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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

ब्रह्मज्ञानी

जनकपुरी के राजा जनक ने एक बार बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ के उपरान्त दान के लिए उन्होंने एक हजार दुधारू गायों के सींगों को सोने से मढ़वा दिया। सारी गायें हृष्ट-पुष्ट और दुधारू थीं।

यज्ञ सम्पन्न होने पर महाराज ने ब्राह्मणों की ओर हाथ जोड़कर देखा और बोले, "पूज्य ब्राह्मणों! आप लोगों में जो ब्रह्मनिष्ठ हों, वे इन गायोंको ग्रहण करें।"

ब्राह्मण वर्ग ललचाई दृष्टि से गायोंकी ओरदेख रहा था, किन्तु किसी में यह साहस नहीं हुआ कि वह स्वयं को ब्रह्मनिष्ठ घोषित कर गायोंको ग्रहण करे। कुछ समय उपरान्त महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य सोमश्रवा से कहा, "सोमश्रवा! तुम इन्हें ले जाओ।"

इस प्रकार सहसा गायों को ले जाने की बात सुन कर ब्राह्मण समाज मेंखलबली मच गयी। किसी से कुछकहते नहीं बनता था। तभी किसी ब्राह्मण ने कहा, "इतने ब्राह्मणों में क्या सोमश्रवा ही एक ब्रह्मनिष्ठ है?"

याज्ञवल्क्य बोले, "ब्रह्मनिष्ठ को तो हमारा नमस्कार है। हमें तो इन दुधारू गायों की आवश्यकता है, इसलिए हम इनको ले जा रहे हैं।..."

कोई अपने को ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध नहीं कर रहा है और गायोंको ले जाने का संकेत कर दिया गया है। इससे विवाद बढ़ने लगा। अनेक ऋषि जो स्वयं को ब्रह्मनिष्ठ कहतेथे, अभिमानी थे, वे तर्क-वितर्क करने लगे। महर्षि याज्ञवल्क्य ने उन सबके कुतर्कों का यथोचित उत्तर दिया। जिस-जिस ने जो प्रश्न किया, सबका समाधान महर्षि याज्ञवल्क्य ने किया।

यज्ञमण्डप में एक बार फिर मौन छा गया। तब अन्त में गार्गी ने प्रश्न किया, "महात्मन् ! बताइए तो कि यह विश्व किस में ओत-प्रोत है।"

"आकाश में!"महर्षि का उत्तर था।

"और वह आकाश किसमें ओत-प्रोत है?"

"आकाश तो अविनाशीहै, अक्षर में ही ओत-प्रोत है।"

उत्तर देने के बाद महर्षि याज्ञवल्क्य ने गार्गी को सारी ब्रह्माण्ड-प्रक्रिया विस्तार से समझाई, जिसे सारा ऋषि-मुनि समाज भी सुन रहा था। किसी ने किसी प्रकार का प्रश्न नहीं किया। अन्त में महर्षि याज्ञवल्क्य ने बताया कि किस प्रकार का व्यक्ति ब्रह्मविद् हो सकता है और कौन ब्रह्मनिष्ठ हो सकता है।

महर्षि की व्याख्या सुनकर गार्गी का समाधान हो गया। उसने तर्क-वितर्क करने वाले ब्राह्मणों से कहा, "ब्राह्मणों! याज्ञवल्क्य ऋषि हम सबके पूज्य हैं। ब्रह्म सम्बन्धी इनके ज्ञान से हमको लाभान्वित होना चाहिए।"

ब्राह्मण समाज ने मौन स्वीकृति प्रदान की।

राजा जनक को भी परम सन्तोष की अनुभूति हुई कि उनके राज्य में कम से कम एक तो ब्रह्मज्ञानी और ब्रह्मनिष्ठ है।  

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