नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
प्रासाद नहीं धर्मशाला
प्राचीन काल में जीमूतकेतु'नाम के एक बड़े ऐश्वर्यवान् राजा थे। देवराज इन्द्र की उपासना कर उन्हें प्रसन्न करने के बाद उन्होंने कल्पवृक्ष प्राप्त कर लिया था। उनके राजभवन को देख कर देवता भी आश्चर्यचकित होते थे।
राजा धार्मिक प्रवृत्ति के थे किन्तु फिर भी भोगों में लिप्त रहते थे। एक बार भगवान दत्तात्रेय को उन पर दया आ गयी कि एक धार्मिक राजा भोग-विलास में लिप्त है। उन्होंने उनके उद्धार का विचार किया। एक दिन उन्होंने अवधूत का रूप धारण कियाऔर मलिन वेश में राजा जीमूतकेतु के सामने जाकर खड़े हो गये। राजा उस समय पलंग पर बैठे हुए थे। अवधूत वेशधारी दत्तात्रेय भी उनके पास जाकर पलंग पर बैठ गये।
राजसेवकों ने जब यह देखा तो वे सब भय से काँपने लगे। अवधूत को वे पागल समझते थे लेकिन उनकी ओर दृष्टि जाते ही वे सब निस्तेज हो जाते थे। उनको वहाँ से हटाने का किसी में साहस नहीं था। स्वयं राजाकोभी अवधूत ऋषि पर क्रोध आने लगा था, किन्तु वह भी कुछ नहीं कर सके।
फिर भी साहस बटोर कर राजा ने कहा, "कौन है तू, निकल यहाँ से!"
अवधूत बड़ी निश्चिन्तता से बोले, "भाई! रुष्ट क्यों होते हो, यह तो धर्मशाला है। तुम तो इसमें रहते ही हो, अब मैं भी इसी में रहने का निश्चय करके आया हूँ। दोनों इस धर्मशाला में रहेंगे।"
राजा का क्रोध बढ़ रहा था। उसने कहा, "यह धर्मशाला नहीं, मेरा राजप्रासाद है, तुरन्त बाहर निकल जाओ।"राजा ने डाँट कर कहा। किन्तु सेवकों का फिर भी साहस नहीं हो रहा था कि वे अवधूत को किसी तरह वहाँ से निकाल सकें। अवधूत ने राजासे प्रतिप्रश्न किया, "तो क्या हजार-दो हजार वर्ष से तुम इस राजमहल में रह रहे हो?"
राजा बोला, "कैसा पागल है? मनुष्य की आयु क्या हजार-दो हजार वर्ष की होती है? मैं इतने वर्ष से इसमें कैसे रहता?"
"तो फिर तुम से पहले इस प्रासाद में कौन रहता था?"अवधूत ने राजा सेपूछा।
राजा ने झल्लाहट में कहा, "मेरे पिता रहते थे और कौन रहता था।"
"वे कहाँ गये और कब तक लौट आयेंगे?"
"वे अब कभी नहीं लौटेंगे, उनका देहान्त हो गया है।"राजा ने उत्तर में कहा।
अवधूत इस प्रकार अनेक ऊटपटाँग प्रश्न राजा से करता रहा। राजा को भी बताना पड़ा कि उसके पिता से पूर्व इसमें उसके पितामह रहते थे, उनसे पूर्व उसके प्रपितामह इसमें रहते थे, इस प्रकार अनेक पूर्वजों के निवास के विषय में राजा बताता रहा।
राजा का उत्तर सुन कर अवधूत को हँसी आ गयी। फिर बोले, "भले आदमी! जहाँ आकर कुछ काल ठहरकर मनुष्य चला जाय और फिर लौट कर न आये तो वह धर्मशाला नहीं तो और क्या हुई?"
राजा का माथा ठनका। उसको लगा कि यह कोई साधारण अवधूत नहीं है। वहउठ कर खड़ा हो गया और उसने अवधूत से हाथ जोड़ कर क्षमा माँगी और याचना करने लगा कि वह अपना वास्तविक रूप ग्रहण करें और उसको बताएँ कि वे वास्तव में कौन हैं?
भगवान दत्तात्रेय की समझ में आ गया कि अब राजा को बोध हो गया है। उन्होंने राजा को अपना परिचय दिया। राजा उनके चरणों में लोटपोट हो गया। भगवानदत्तात्रेय ने राजा को अनेक प्रकारसे समझाया और उसे जीवन का रहस्य भी बताया।
राजा मानो तन्द्रा से जागा हो। उसने उनसे बार-बार क्षमा याचना की और वचनदिया कि भविष्य में वह इस राजप्रासाद को धर्मशाला से अधिक कुछ नहीं समझेगा।
भगवान दत्तात्रेय आशीर्वाद देकर विदा हुए और राजा जीमूतकेतु भी भोग-विलास छोड़कर सदाचारी राजा के रूप में राज्य करता हुआ निश्चित समय पर वन के लिए प्रस्थान कर गया।
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