नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
सच्चा धन
सिकन्दर दिग्विजयी कहलाता था किन्तु वह महात्मा डायोनीज के आध्यात्मिक वैभव को देख कर उनसे बड़ा प्रभावित हुआ था। वह अनुभव कर रहा था कि सैनिक सफलता तो क्षणभर है। दिग्विजयी कहलाने के लिए उसने जो रक्तपात, हिंसा, दमन और बर्बरता की है, वह सब व्यर्थ है। बड़प्पन यदि कहीं है तो वह तो महात्मा डायोनीज के पास ही है।
मन में यह विचार आने पर वह एक दिन महात्मा डायोनीज की शरण में जा पहुंचा और आत्मसमर्पण-सा करते हुए कहने लगा,"महात्मन्! मेरी आप पर बड़ी श्रद्धा और आपके प्रति बड़ाआदर-भाव है। अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए मैं आपको बहुमूल्य भेंट देना चाहता हूँ। कृपया बताइए, दक्षिणा स्वरूप कौनसी वस्तु सेवा में प्रस्तुत करूँ?"
डायोनीज यह विचित्र प्रश्न सुन कर उसकी ओर देखने लगे और उसकी बात पर विचार भी करते रहे। वे देख रहे थे कि स्वयं को महान् कहने वाला सिकन्दर उनके सामने ऐसे खड़ा था, मानो सिंह के सम्मुख कोई बकरा खड़ा हो।
डायोनीज बोले, "सिकन्दर! हिंसा, हत्या, आतंक, रक्तपात आदि पाशविक रीति-नीति अपनाने वाला कोई भी व्यक्ति महान नहीं बन सकता। महानता तो मनुष्य की विद्वता, शील, गुण और अच्छे कर्मों से ही आ सकती है। तुमने अपने सारे जीवन में पाप और अपराध ही किया है।'' डायोनीज बाहर आँगन में धूप में बैठे थे और सिकन्दर उनके सामने ऐसे खड़ा था, जिससे उनकी धूप रुक रही थी। उन्होंने उससे कहा, "अच्छा, जरा एक ओर हो जाओ, मुझ तक धूप को तो आने दो। कम से कम यह प्राकृतिक वस्तु तो मुझसे मत छीनो। इस समय इस धूप जैसी अमूल्य वस्तु को तुम अपने वैभव से खरीद कर मुझे नहीं दे सकते।"
यह सुन कर सिकन्दर स्तब्ध रह गया। उसने एक आह भरी और फिर स्वयं से ही कहने लगा, "हाय! मैंने आतंक के द्वारा बड़प्पन प्राप्त करने में ही अपना अमूल्य जीवन गँवा दिया.।
"यदि मैं सिकन्दर न होता तो डायोनीज ही होना पसन्द करता।"
इसके बाद सिकन्दर को कुछ कहने और करने के लिए रह नहीं गया था। वह वहाँ से अपना-सा मुख लेकर वापस चल दिया।
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