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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

पात्रता

एक दिन एक सेठ भगवान बुद्ध की शरण में गया और बोला, "भगवन! मेरे मन में बहुत अशान्ति है। अनेक प्रकार की वासनाएँ मुझे परेशान करती हैं। आप मुझे इसकी शान्ति के लिए कृपया धर्म में दीक्षित कीजिए ताकिमैं सब प्रकार के दुःखों से छुटकारा पा सकूँ।"

भगवान बुद्ध ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा, "आपके विचार तो बहत अच्छे हैं। आगामी पूर्णमासी पर हम आपके यहाँ भिक्षा ग्रहण करने आयेंगेऔर आपको दीक्षा भी देंगे।"

सेठ प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया। उसने सबसे यह कहना आरम्भ करदियाकि अगली पूर्णमासी को भगवान तथागत मेरे यहाँ भिक्षा ग्रहण करने आयेंगे और मुझे दीक्षा भी देंगे। उन्होंने वचन दिया है। बड़ा आनन्द होगा,अब शीघ्र ही मेरे सौभाग्य का उदय होने वाला है।"

जिनलोगों ने उसकी बातों को सुना, वे सब उसके भाग्य की सराहना करने लगे। इससे सेठ का उत्साह बहुत बढ़ गया और वह भाँति-भाँति की बढ़-बढ़ कर बातें करने लगा।

पूर्णमासी का दिन आया। सेठ ने भगवान को भिक्षा देने के लिए नाना पकार के पकवान तैयार करवाये। यथा समय भगवान् बुद्ध एक मैली-सी हँडिया लेकर भिक्षा लेने उसके घर आये।

जब सेठ ने सोने-चाँदी की थालियों में भिक्षा प्रस्तुत की तो भगवान बुद्ध ने अपनी मिट्टी की हाँडी उसके सम्मुख रख दी। सेठ आश्चर्य से देखने लगा। भगवान ने उससे कहा, "मेरी भिक्षा इसमें डाल दो।"

सेठ हिचकिचाया। हँडिया बहुत ही मैली थी। उसमें ऐसा सुन्दर पकवान डालने के लिए उसका मन तैयार नहीं हुआ तो उसने कहा, "भगवन्! क्या यह शुद्ध अन्न इस मैली-सी हँडिया में डालना उचित होगा? कृपया मुझे इस हँडिया को भली प्रकार धोने की अनुमति दीजिए।"

भगवान तथागत ने कह दिया, "जैसी तुम्हारी इच्छा।"

सेठ ने हँडिया को अच्छी प्रकार धोया और उसमें भिक्षा डाल दी। भगवान् ने भिक्षा ग्रहण की और लौट गये।

सेठ देखता रह गया। उसे तो दीक्षा देने के लिए कहा था किन्तु भगवान बिना दीक्षा दिये ही लौट गये थे। सेठ कुण्ठा से भर गया। सारा उत्साह समाप्त हो गया। सेठ तथागत के पीछे दौड़ा और पुकार कर कहने लगा, "भगवन्! आपने मुझे दीक्षा देने का वचन दिया था, कृपया वह तो देते जाइए।"

भगवान तथागत ने उसकी बात अनसुनी कर दी और आगे बढ़ते चले गये। सेठ को यह देख कर क्रोध आ गया। आस-पास खड़े लोग यह दृश्य देख रहे थे, इसलिए सेठ को और खीझ होने लगी। उनको देख कर सेठ अपने आप ही जोर-जोर से कहने लगा, "यह तो धोखा है। सरासर धोखा। भिक्षा ले ली किन्तु दीक्षा नहीं दी। अपना वचन पूरा नहीं किया।"

सेठ तो दीक्षा लेने पर तुला हुआ था। उसने अपने सेवकों से कह कर अपनी घोडागाड़ी निकलवाई। उसमें बैठ कर उसने भगवान बुद्ध का पीछा किया। भगवान मार्ग में जाते हुए मिल गये, वे अभी तक विहार नहीं पहुँच पाये थे।

उन्हें देख कर बड़े आवेश में सेठ ने उनसे कहा, "भगवन! क्या आपको अपना वचन याद नहीं? मुझे दीक्षा दिये बिना आप भिक्षा लेकर चले आये?"

भगवान् ने उससे पूछा, "क्या आपको अभी तक दीक्षा नहीं मिली?"

"भगवन्! यह क्या उपहास कर रहे हैं? मुझे दीक्षा देने की कृपा कीजिए।",

भगवान ने सेठ से पूछ लिया, "अभी थोड़ी देर पहले आपने स्वयं ही मेरी हँडिया को मैली कह कर धोया था न? क्या वह घटना आपको याद है?"

"याद है, भगवन्!""आपने हँडिया को माँजा और फिर धोया था न?""जी, महाराज!""क्यों माँजा और धोया था?"

"इतनी सुन्दर भिक्षा मैं उस गन्दे पात्र में कैसे डाल सकता था। इसलिए मैंने पहले हँडिया को माँजने की अनुमति चाही थी।"

भगवान ने कहा, "तो क्या कुपात्र को दीक्षा देना उचित होता?"

सेठ अवाक् होकर भगवान का मुँह ताकता रह गया।

भगवान ने आगे कहा, "आप पहले आत्मशुद्धि करके पात्रता प्राप्त करें। आज इतनी ही दीक्षा पर्याप्त होगी।"

सेठ को इतना कह कर भगवान तथागत अपने विहार की ओर चल दिये।  

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