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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

परिश्रम का फल

भैरोमल नाम का एक धनी व्यक्ति एक गाँव में रहता था। उस के पास कुछ खेत थे, उसने काम करने के लिए बहुत सारे नौकर रखे हुए थे। भैरोमल स्वयं बड़ा ही सुस्त और आलसी था। वह कभी अपने खेतों को देखने नहीं जाता था सिर्फ अपने मजदूर और नौकरों को भेज कर ही वह काम कराया करता था।

मजदूर और नौकर मनमाना काम करते थे। वे लोग खेत पर थोड़ी देर तो काम करते थे, बाकी समय गप्पबाजी किया करते थे या फिर इधर-उधर घूम कर समय नष्ट किया करते थे। खेत न तो ठीक प्रकार से जोते जाते थे और न समय पर ठीक प्रकार से खेतों की सिंचाई की जाती थी। उनमें ठीक से खाद भी नहीं पड़ती थी। न बीज ठिकाने से पड़ते थे और न कभी कोई खर-पतवार या घास निकालता था।

इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे उसके खेतों की उपज घटने लगी। उससे भी अधिक दुष्परिणाम यह हुआ कि कम उपज के कारण भैरोमल अब दिन-प्रतिदिन निर्धन होता जा रहा था।

उसी गाँव में रामप्रसाद नामक एक दूसरा किसान भी रहता था। वह किसान तो था, किन्तु उसके पास खेत नहीं थे। वह भैरोमल से ही कुछ खेत लेकर उनमें खेती करता था, किन्तु था बड़ा परिश्रमी। अपने मजदूरों के साथ वह स्वयं खेत पर जाता था, मन लगाकर परिश्रम करता था।

उसके खेत उसकी देख-रेख में भली प्रकार जोते और सींचे जाते थे। उनमें खाद भी यथा समय और उचित मात्रा में डाली जाती थी। बीज भी समय पर और ठीक प्रकार से बोया जाता था तथा पौधे उगने पर खेतों से खर-पतवार साफ करवाई जाती थी। उसके घर के अन्य लोग खेत में जाकर काम किया करते थे। इसका ही परिणाम था कि उसके खेतों में अच्छी उपज हो जाया करती थी। लगान चुका कर और सारा खर्च निकाल कर भी उसके पास काफी अन्न बच जाया करता था। इसका परिणाम यह हुआ कि रामप्रसाद धीरे-धीरे धनी होने लगा।

उधर भैरोमल दिन-प्रतिदिन निर्धन होता गया और एक समय ऐसा आया कि वह नितान्त निर्धन हो गया और उस पर बहुत सारा ऋण भी चढ़ गया। ऐसी स्थिति में ऋण से मुक्त होने के लिए वह अपने खेतों को बेचने के विषय में विचार करने लगा।

रामप्रसाद को जब यह समाचार मिला तो वह उसके पास आकर कहने लगा, "मैंने सुना है कि आप अपने खेत बेचना चाहते हैं।"

 "हाँ विचार तो कर रहा हूँ।"

"तो कृपा कर आप उन खेतों को मुझे बेच दीजिये। मैं दूसरों से कम मूल्य नहीं दूंगा।"

भैरोमल ने आश्चर्य से पूछा, "भाई रामप्रसाद! मेरे पास इतने खेत थे फिर भी मैं ऋणी हो गया हूँ, किन्तु तुम्हारे पास तो बहुत कम खेत थे, तुम्हारे पास इतना धन कहाँ से आ गया? तुम तो मेरे ही थोड़े खेत लेकर खेती करते हो? उन खेतों का लगान भी तुम्हें देना पड़ता है और घर का भी काम चलाना पड़ता है। मेरे खेत खरीदने के लिए तुम्हें रुपये किसने दिये?"।

रामप्रसाद बोला, "मुझे रुपये किसी ने नहीं दिये। रुपये तो मैंने खेतों की उपज से ही बचा कर इकट्ठा किये हैं। आपकी खेती और मेरी खेती में अन्तर है। आप नौकरों और मजदूरों से काम कराते हुए कहते हैं, 'जाओ-जाओ'। इससे आपकी सम्पत्ति भी चली गयी। मैं नौकरों और मजदूरों से पहले ही काम करने के लिए तैयार होकर उन्हें अपने साथ काम करने के लिए 'आओ' कहकर बुलाता हूँ। इसीलिए मेरे यहाँ सम्पत्ति आती है।"

अब भैरोमल की समझ में बात आ गयी। उसने थोड़े से खेत रामप्रसाद के हाथ बेच दिये और अपना ऋण उतार लिया। बाकी खेतों में अब वह स्वयं भी परिश्रमपूर्वक खेती करने लगा था। उसने आलस्य और नौकरों एवं मजदूरों पर आश्रित रहना छोड़ दिया था।

इस प्रकार मेहनत करने से थोड़े ही दिनों में उसकी दशा सुधरने लगी और कुछ समय बाद वह फिर धनवान होता गया और उसका जीवन आनन्द से व्यतीत होने लगा।  

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