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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

उपकार का बदला

एक बार की बात है कि जंगल के राजा सिंह के पैर में एक बहुत बड़ा मोटा सा काँटा चुभ गया। सिंह ने दाँत से उसे निकालने का काफी यत्न किया किन्तु वह किसी भी प्रकार काँटा पैर से बाहर नहीं निकला। वह लँगड़ाता हुआ एक गड़रिये के पास पहुँचा।

सिंह को अपने पास आता देख गड़रिया थर-थर काँपने लगा, किन्तु भागा नहीं। क्योंकि वह जानता था कि यदि वह भागा तो सिंह एक ही छलाँग में उसको दबोच कर खा जायेगा।

आस-पास कोई पेड़ भी नहीं दिखाई दे रहा था कि गड़रिया उस पर चढ़ कर अपनी जान बचा लेता क्योंकि शेर पेड़ पर नहीं चढ़ सकताथा। वह चुपचाप अपने स्थान पर बैठा रहा।

सिंह आ तो रहा था, किन्तु न गरजरहा था और न गुर्रा ही रहा था। गड़रिये ने यह भी देख लियाथा कि वह लड़खड़ाता हुआ आ रहा है। सिंह चुपचाप आकर गड़रिये के पास बैठ गया और उसने अपना वह पैर आगे कर दिया जिस में काँटा गड़ा हुआ था।

गड़रिया समझ गया कि सिंह उससे कुछ सहायता चाहता है। वह आश्वस्त होकर सिंह को देखने लगा। उसने सिंह के उस पैर की ओर देखा, जिसमें काँटा चुभा हुआ था। गड़रिये ने यत्न से उसका काँटा बाहर निकाल दिया।

सिंह जैसे आया था वैसे ही जंगलकी ओर चला गया। किन्तु इस बार उसकी चाल में फुर्ती थी।

गड़रिये ने ईश्वर का धन्यवाद किया और अपने पशुओं को एकत्रित कर वह भी अपने घर की ओर चल दिया।

दिन बीतते रहे। एक दिन पता चला कि राजा के राजमहल में चोरी हो गयी है।

गड़रिये से कुछ लोगों की शत्रुता थी। इस को अच्छा अवसर जान उन्होंने राजा से कह दिया कि उसके यहाँ गड़रिये ने चोरी की है। राजा ने गड़रिये को पकड़वा लिया। जब उसके घर की तलाशी ली गयी तो चोरी की कोई वस्तु वहाँ नहीं मिली। राजा ने समझा कि गड़रिये ने चोरी का सामान कहीं अन्यत्र छिपा दिया है। इससे कुद्ध होकर उसने गड़रिये को जीवित ही सिंह के आगे डालने का आदेश दे दिया।

गड़रिया बहुत गिड़गिड़ायाऔर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास किया किन्तु राज्य के मद में चूरराजा ने उसकी एक नहीं सुनी।

गड़रिया ज्यों-ज्यों मिन्नत-खुशामद करता था, राजा का क्रोध त्यों-त्यों बढ़ता जाता था। अन्त में उसने आज्ञा दे दी, "इसको जीवित ही शेर के पिंजरे में डाल दो।"

संयोग की बात थी कि जिस सिंह के पैर का गड़रिये ने काँटा निकाला था, वह राजा के द्वारा पकड़ लिया गया था। उसको मारने की अपेक्षा राजा ने अपनी वीरता दिखाने के लिए उसको अजायबघर में एक पिंजरे में बन्द कर दिया था। वहाँ एक-दो सिंह और भी अन्य पिंजरों में बन्द थे।

यह भी संयोग की बात थी कि गड़रिये को उसी सिंह के पिंजरे में डालागया, जिसके पैर का काँटा उसने निकाला था। जब गड़रिये को सिंह के पिंजरे में धकेला गया और गड़रिया डर के मारे थर-थर काँपता हुआ उसके सम्मुख खड़ा हुआ तो सिंह ने उसकी गन्ध से उसे पहचान लिया था। पशुओं की घ्राण-शक्ति बड़ी प्रबल होती है।

गड़रिये पर झपटने की अपेक्षा सिंह मन्द गति से उसके पास आया और उसकेसमीप धरती पर बैठ गया।इतना ही नहीं, वह स्वामी भक्त कुत्ते के समान उसके आगे अपनी पूँछ हिलाने लगा।

राजा तथा वहाँ उपस्थित सभी दरबारियों को यह देख कर बड़ा आश्चर्य हो रहा था। वे तो इस आशा में थे कि देखें शेर किस प्रकार मनुष्य का शिकार करता है, किन्तु यहाँ तो वह पूँछ हिला रहा था।

गड़रिया भी समझ गया कि यह वही सिंह है जिसका कभी उसने काँटा निकाला था। उसका भय भाग गया। वह शेर को सहलाने लग गया।

राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ, यह देख कर उसने गड़रिये से इस मैत्री का कारण जानना चाहा तो गड़रिये ने पूर्व घटना का वर्णन कर दिया। उसको डर तो लग ही रहा था कि अब राजा उसे किसी दूसरे के पिंजरे में डालेगा।

किन्तु राजा नेसोचा, जब पशु भी इतनी कृतज्ञता प्रकटकरता है और इस गड़रिये के पास उसका चोरी का माल भी नहीं मिला।अतः उसने निश्चय किया कि गड़रिये को मुक्त कर दिया जाय। उसने आज्ञा दी, "गड़रिये को मुक्त कर दो।"

पिंजरा खोल कर गड़रिये से बाहर निकलने के लिए कहा गया। गड़रिया एक बार फिर शेर को सहला कर बाहर आ गया। मनुष्य होकर जो किसी का उपकार भूल जाते हैं, वे तो पशु से भी निकृष्ट प्राणी कहलाते हैं।

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