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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

भक्त की कामना

भक्त प्रसाद की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। प्रसाद का पिता था तो राक्षस किन्तुवह स्वयं को भगवान से भी बड़ा समझता था और प्रसाद, जो कि भगवद्भक्त था, कोकहा करता था कि वह भगवान की भक्ति छोड़ कर उसकी भक्ति किया करे। किन्तु प्रसाद की समझ में यह बात आ नहीं रही थी। परिणामस्वरूप पिता की ओर से उसको भाँति-भाँति के कष्ट सहन करने पड़े। प्रसाद के प्राण हरण की भी अनेक योजनाएँ पिता द्वारा रची गयीं किन्तु सब निष्फल सिद्ध हुईं। मारने वाले सब स्वयं मर गये किन्तु प्रसाद का बाल भी बाँका नहीं कर सके।

प्रसाद के पिता हिरण्यकश्यपु को इससे क्रोध आने लगा था। तब उसने निश्चय किया कि अब वह स्वयं ही अपने भगवद् भक्त पुत्र का वध करेगा। और एक दिन प्रह्लाद को मारने के निश्चय से उसने प्रहाद पर अपनी तलवार उठाई ही थी कि तभी नृसिंह भगवान वहाँ पर उपस्थित हो गये। उन्होंने एक हाथ से हिरण्यकश्यपु कोपकड़ा और दूसरे हाथ से भगवान ने उसका पेटफाड़ कर उसकी आँतें बाहर निकाल दीं।

भगवान को उस पर क्रोध आ रहा था और उनकी जीभ उसका रक्तपान करने के लिए लपलपा रही थी। भगवान का यह विकराल रूप देख कर वहाँ पर उपस्थितसभी देव, दानव तथा मानव थर-थर काँप रहे थे। दैत्यों को अवसर मिलातो वे अपनी जान बचा कर भाग गये थे। देवतागण भगवान की स्तुति करने लगे, किन्तु भगवान का क्रोध शान्त नहीं हो रहा था। जब सब उनको शान्त करने में विफल हो गये तो ब्रह्मा जी को उनको शान्त करने की एक युक्ति सूझी। उन्होंने प्रसाद से कहा, "वत्स। तुम ही अब भगवान का क्रोध शान्त कर सकते हो। तुम उनकी स्तुति करो।"

प्रसाद नेतो 'भय' शब्द सुना भी नहीं था। वह भगवान के समीप जाकर उनके चरणों में लोट गया। भगवान ने बालक प्रह्लाद को धरती पर से उठा कर अपनी गोद में बैठालिया और कहने लगे, "वत्स! मुझे क्षमा कर दे। मुझे यहाँ आने में कुछ विलम्ब हो गया, जिसके कारण तुमको अनेक कष्ट झेलने पड़े। मैं तेरी श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो वह वरदान माँग लो।"

प्रह्लाद बोला, "प्रभो। आप यह क्या कह रहे हैं? जो सेवक कुछ पाने की आशा रखता है प्रभु की सेवा करता है, वह तो सेवक ही नहीं कहा जा सकता। आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक हूँ। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे यही वरदान दें कि मेरे मन में कभी किसी वस्तु की कामना ही अंकुरित न हो।"

भगवान उसकी वाणी सुन कर अभिभूत हो गये और बोले, "तुम निष्काम तो बने रहोगे, फिर भी इस समय तो कुछ माँग लो।"

प्रह्लाद निराश-सा दिखने लगा। उसे लगने लगा था कि भगवान उससे जो बार-बार माँगने की बात कह रहे हैं इससे यह सिद्ध होता है कि उसके मन में कोई कामना है।

वह बोला, "नाथ। मेरे पिता ने आपकी बहुत निन्दा की है, मुझ को भी उन्होंने अनेक कष्ट दिये हैं। मेरी कामना है कि वे इस पाप से मुक्त हो जाएँ।"

भक्त ने अपना अनिष्ट करने वाले का भी उद्धार करना चाहा।

भगवान प्रसन्न होकर कहने लगे, "प्रह्लाद। तुम जैसा जिसका पुत्र हो, वह तो स्वयं पाप-मुक्त हो गया। तुम्हारी तो इक्कीस पीढ़ियाँ तक पापमुक्त हो गयीं।"

अपने को कष्ट देने वाले की भी दुर्गति न हो, यही कामना थी भक्त प्रह्लाद के मन में। भक्त अपने स्वयं के लिए किसी प्रकार की कामना नहीं करता।  

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