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प्रेरक कहानियाँ

डॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15422
आईएसबीएन :9781613016817

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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह

देवर पुत्र समान होता है

ऋषिकुमार कण्व और प्रगाथ दोनों सगे भाई थे। कण्व बड़े थे और प्रगाथ छोटे। दोनों की शिक्षा-दीक्षा गुरुकुल में हुई और दोनों वहाँ से साथ ही वापस घर आये।

माता-पिता का बहुत पहले ही देहान्त हो चुका था। कण्व का प्रगाथ के प्रति असीम प्रेम था। उसी प्रकार प्रगाथ भी कण्व को अपने बड़े भाई नहीं बल्कि पिता के समान आदर देते थे। कण्व का विवाह हुआ तो भाभी के प्रति उनके मन में मातृ-भाव था। ऋषि-पत्नी भी अपने देवर के प्रति पुत्रवत् स्नेह रखती थी। इस सौहार्द तथा सौजन्यता से आश्रम का वातावरण बड़ा निर्मल और पवित्र हो गया था। वहाँ सात्विकता का साम्राज्य छाया रहता था।

एक दिन की बात है कि बड़े भाई कण्व वन में समिधा लेने के लिए गये तो उनको वनप्रान्त के अन्तराल में जाना पड़ गया था, इसलिए आने में विलम्ब हो गया। उनकी पत्नी यज्ञवेदी के समीप बैठ कर कुछ चिन्तन कर रही थी। प्रगाथ पास में ही बैठ कर सामगान कर रहे थे। शीतल, मन्द मधुर बयार बह रही थी। सामगान करते-करते प्रगाध को निद्रा आने लगी तो वे अपनी भाभी की गोद में विश्राम करने लगे और सो गये।

ऋषिपत्नी ध्यानमग्न थी। प्रगाथ सो रहे थे कि तभी कण्व वन से लौट आये। उन्होंने दूर से देखा कि कोई उनकी पत्नी की गोद में सो रहा है। कण्व को इससे क्रोध हो आया। कण्व के समिधा रखने की ध्वनि से उनकी पत्नी का ध्यान भंग हुआ। उसने पति की ओर देखा और वह 'देव!' इतना ही कह पायी थी कि कण्व ने क्रोध में प्रगाथ की पीठ पर लात मार दी। प्रगाथ की नींद खुल गयी। वे सहसा उठ कर खड़े हो गये और कण्व को प्रणाम करने लगे।

कण्व तो उस समय साक्षात क्रोध की प्रतिमा बने खड़े थे। क्रोध में ही उन्होंने अपने पुत्र समान भाई से कहा, "आज से तुम्हारे लिए इस आश्रम का द्वार बन्द है। तुरन्त निकल जाओ यहाँ से।"

प्रगाथ हाथ जोड़कर खड़े थे। बोले, "भैया! आप तो मेरे लिए पिता के समान हैं और भाभी को मैंने सदा ही अपनी माता के स्थान पर माना है।"

कण्व कुछ सँभले, किन्तु चित्त अभी भी शान्त नहीं हुआ था। कुछ क्षण मौन के बीते। अन्त में उनकी पत्नी ने ही कहा, "देव! प्रगाथ ठीक कह रहा है। मैंने तो इस आश्रम में पैर रखते ही उसको पुत्र समान मान कर उसका लालन-पालन किया है। भाभियाँ अपने देवर को सदा अपने पुत्र के समान ही मानती हैं। इस देश की यही परम्परा है देव! क्या यह साधारण और सामान्य-सी बात भी आप स्मरण नहीं रख सके?"

पत्नी के वचनों ने आग में पानी का कार्य किया। कण्व का क्रोध शान्त हो गया। अन्त में उनको अपनी भूल का आभास हुआ और प्रगाथ को प्रगाढ़ आलिंगन में लेते हुए बोले, "प्रगाथ! दोष मेरे नेत्रों का है, मैंने तुम पर व्यर्थ शंका की।"

प्रगाथभाई के चरणों में झुक गया। कण्व ने भावावेश में कहा, "आज से प्रगाथ हमारा भाई नहीं पुत्र है।"

इसके उपरान्त आश्रम का वातावरण फिर उसी प्रकार निर्मलता से परिव्याप्त हो गया। तीनों ने मिल कर यज्ञ किया।

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