नई पुस्तकें >> प्रेरक कहानियाँ प्रेरक कहानियाँडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिये प्रेरक एवं मार्गदर्शक कहानियों का अनुपम संग्रह
दो मित्रों का भ्रम
प्राचीन काल की बात है। इक्ष्वाकु वंश के राजा त्रिअरुण की अपने पुरोहित के पुत्र वृशजान के साथ घनिष्ठ मित्रता थी। यह मित्रता राज्य की वृद्धि और सुख-समृद्धि में बाधक नहीं सहायक थी। प्रजा राजा के शासन से प्रसन्न थी।
एक बार राजा के मन में आया कि दिग्विजय करने निकला जाय। राजा ने अपने मित्र वृशजान से निवेदन किया कि इस अभियान में वे उनके सारथी का काम करें क्योंकि वृशजान को अश्वसंचालन कला में निपुण माना जाता था। वृशजान ने मित्र का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दोनों में परस्पर मित्रता और प्रगाढ़ हो गयी।
महाराज दिग्विजय कर राजधानी लौट रहे थे कि राजधानी के निकट ही रथ के पहिये के नीचे आकर कोई ब्राह्मणकुमार कुचल गया। रथ रुक गया। महाराज का मन खिन्न हुआ और उन्हें अपने सारथी पर क्रोध भी आने लगा। बोले, "आप बड़ी असावधानी से रथ हाँक रहे थे। यह तो आपने घोर पाप कर डाला।"
वृशजान ने उत्तर में कहा, "महाराज! यदि आप दिग्विजय के श्रेय के भागी हैं तो इस पाप के भागी भी आप ही हैं।"
बस इतनी-सी बात थी कि दो प्रगाढ़ मित्रों में अनबन हो गयी। वृशजान को लगा कि राजा ने उसका अपमान किया है। वे घायल ब्राह्मणकुमार के समीप गये और उसका परीक्षण कर उपचार में लग गये। उनके उपचार से ब्राह्मणकुमार ठीक हो गया। किन्तु दोनों मित्रों के हृदय में जो गाँठ बन गयी थी वह खुली नहीं। वृशजान ने त्रिअरुण का राज्य ही छोड़ दिया।
जब राजा को विदितं हुआ कि वृशजान ने उनका राज्य ही छोड़ दिया तो उनके मन में भी ग्लानि होने लगी, पश्चाताप होने लगा। वे एक सुयोग्य परामर्शदाता खो चुके थे।
महाराज अब एक प्रकार से यौवन के उत्साह में उन्मत्त से रहने लगे और कुछ समय बाद एक चाण्डाल कन्या से विवाह भी कर लिया। यदि वृशजान उनके साथहोते तो कदाचित यह विवाह सम्भव न होता। किन्तु अब महाराज को रोकने वाला कोई नहीं था। विवाह हो गया। परिणाम यह हुआ कि महाराज राज-काज को छोड़ भोग-विलास में लिप्त रहने लगे तो राज्य का ह्रास होने लगा। राज्य में सूखा, अकाल और महामारी भी फैलने लगी।
राजा स्वयं इस स्थिति से अनजान नहीं था, अतः विचार करने लगा कि यह सब कैसे हो रहा है, इसका क्या कारण हो सकता है। किन्तु प्रजा समझती थी कि कोई वृशजान जैसा सत्पुरुष राजा को परामर्श देने वाला नहीं है। राजा ने चाण्डाल कन्या से विवाह रचा लिया. उसके कारण ही यह सब अनर्थ हो रहा है। प्रजा में बात फैलने लगी तो महाराज के कानों में भी यह बात पहुँच गयी। किन्तु चाण्डाल कन्या इतनी सुन्दर थी कि उसका मोह राजा से छोड़ा नहीं जारहा था।
किसी प्रकार राजा को सुबुद्धि आयी और वे मन्त्रियों को साथ लेकर वहाँ गये जहाँ उनके मित्र वृशजान रह रहे थे। उन्हें किसी प्रकार मनाया और उनको साथ लेकर अपनी राजधानी वापस आ गये। वृशजान को राज्य की सारी स्थिति का ज्ञान तो पहले से ही था, वापस आने पर स्वयं देख भी लिया। वे उसके निराकरण का उपाय सोचने लगे। उन्होंने राजा को चाण्डाल कन्या का परित्याग करने का सुझाव दिया, किन्तु राजा उसके मोहजाल में जकड़ा हुआ था, छोड़ना असम्भव हो गया था।
जब समझाने से बात नहीं बनी तो फिर अन्य उपाय सोचा गया। वृशजान ने एक वृहद् यज्ञ की योजना बनाई। विशाल यज्ञकुण्ड का निर्माण किया गया। राजा-रानी दोनों को आहुति देने के लिए यज्ञवेदी के निकट बैठाया गया। अरणिमन्थन द्वारा अग्नि प्रज्वलित की गयी, यज्ञ आरम्भ हुआ तो आहुति डाली जाने लगी। जब राजा और रानी को खड़े होकर आहुति डालने के लिए कहा गया तो कुछ इस प्रकार की घटना घटी कि आहुतिडालते-डालते महारानी स्वयं यज्ञकुण्ड में गिर पड़ी। तब तक अग्नि खूब भड़क चुकी थी। महाराज चिल्लाये और सेवकों ने रानी को निकालने का यत्न किया, किन्तु सबका परिश्रम व्यर्थ गया। वह यज्ञ-कुण्ड में स्वाहा हो चुकी थी।
वृशजान की योजना सफल हुई। कुछ ही दिनों में राज्य फिर से धन-धान्य और वैभव से सम्पन्न होने लगा।
दोनों मित्रों की मित्रता भी उसी प्रकार बढ़ती गयी।
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