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पलायन

वैभव कुमार सक्सेना

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :60
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15417
आईएसबीएन :9781613016800

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गुजरात में कार्यरत एक बिहारी मजदूर की कहानी

4

अमरकांत अगले दिन सुबह ही अपने पैतृक गांव को रवाना हुआ। अमरकांत जो अम्मा के घर पहुँचा तो देखा घर पूरी तरह जर्जर हो चुका था। जिस घर में अमरकांत का बचपन बीता वहां मिट्टी की ढेरी लगी हुई थी और खपरों को एक ओर ढेर कर जमा रखे थे। अमरकांत धीरे-धीरे रसोई की ओर बढ़ा तो पाया कि अम्मा ठंड में मोटा साल ओढ़े चूल्हे पर खींच पका रही है।

अम्मा ने झटपट अमरकांत को पहचान लिया क्योंकि इतना युवा लड़का और कोई उनसे मिलने नहीं आता। वह अमरकांत ही है। अमरकांत के हाथ अम्मा के चरणों पर पहुँचे ही थे कि अम्मा ने झटपट अमरकांत को गले लगा लिया। अमरकांत को ऐसा मालूम हुआ कि उसका छुट्टी लेकर घर आना सफल हो गया हो। अम्मा ने छटांक से चूल्हे से कढ़ाई उतारी और खींच को दो थाली में परोस दिया। मानो अम्मा इसलिए खुश थी क्योंकि उनको उनका अकेलापन ही नहीं बल्कि साथ बैठकर खींच खाने वाला भी कोई मिल गया हो। अमरकांत के मन में सवालों की गंगा बह रही है। क्या सभी परिवार जनों ने अम्मा को छोड़ दिया या परिवार जनों को अम्मा ने छोड़ दिया।

समय व्यतीत होते अमरकांत को मालूम हुआ कि न ही अम्मा ने परिवारजनों को छोड़ा और ना ही परिवार जनों ने अम्मा को, बल्कि आधुनिक भारत के विकास की तेज रफ्तार ने अम्मा को पीछे छोड़ दिया कहने का अर्थ था - अम्मा को अपना घर बहुत प्यारा था। अम्मा ने अपना घर नहीं छोड़ा बल्कि धीरे-धीरे परिवार जनों ने अम्मा का पुराना घर छोड़ दिया। अम्मा से कई बार उनके साथ चलने का आग्रह किया मगर अम्मा को अपना घर वीरान छोड़ना उचित ना लगा इसलिए अम्मा ने अपना घर नहीं छोड़ा ।

अमरकांत का मन भयभीत हुआ उसके घर में भी तो कहीं न कहीं यही होने जा रहा है क्योंकि अमरकांत भी घर का त्याग कर चुका है और उस के भाई की भी सरकारी नौकरी में तबादला होने की आशंका थी।

अमरकांत का मन अम्मा को अकेला छोड़कर आने का बिल्कुल नहीं था। अमरकांत ने फिर अम्मा से पूछा- "साथ चलो मेरे, अब वहीं रहना।"

अम्मा ने पहले घर की ओर निगाह फेरी और बोला- "मैं यहीं ठीक हूँ।" अमरकांत को यह उत्तर पहले से ही मालूम था।

अमरकांत ने वापस एक बार फिर पुराने घर की ओर निगाह फेरी और वापस घर लौटा। अमरकांत को ऐसा लगा मानो घरों में भी कोई आत्मा रहती हो जो उन्हें वीरान करने से मना करती हो।

घर पहुँचने से पहले अमरकांत ने पिताजी के स्कूल जाना अधिक उचित समझा। वह पिताजी के स्कूल पहुँचा और स्कूल के प्रवेश द्वार से स्कूल में हो रहे कोलाहल का इंतजार किया। लेकिन अमरकांत को इसके विपरीत शांति सुनाई दी। अमरकांत वहीं खड़े एक व्यक्ति से पूछता है, "स्कूल में शांति क्यों है? सभी लोग कहां गए।"

व्यक्ति अपनी उंगली का इशारा करते हुए बताता है कि मास्टर जी अक्सर हल्की धूप में बच्चों को पढ़ाने के लिए चबूतरे पर ले जाया करते हैं । अमरकांत जैसे ही बच्चों के करीब पहुँचा स्कूल के सभी बच्चे अमरकांत को पहचान गए और अमरकांत के सम्मान में खड़े हो गए।

अमरकांत को बच्चों की संख्या देखकर अचंभा हुआ, "इतने सारे बच्चे।"

बच्चे परीक्षा में व्यस्त थे और आज स्कूल की परिक्षा का आखिरी दिन था तो अच्छे खासे उत्साहित भी दिख रहे थे। अमरकांत के पिताजी ने इतने सारे शब्द सुनकर कहा –"यहां केवल तीन ही शिक्षक हैं। शर्मा जी की तबीयत अक्सर खराब रहती है और प्रिंसिपल साहब तो ऑफिस से ही बहुत कम निकलते हैं।"

अमरकांत ने मन ही मन सोचा, 'पिताजी छुट्टी ले लें तो इतने सारे बच्चों का भविष्य क्या होगा।'

पिताजी ने बच्चों से कहा कि अमरकांत इसी स्कूल में पढ़ा है और आज गुजरात की बड़ी कंपनी में अफ़सर है। अमरकांत को अपना बचपन याद आ गया। अमरकांत ने परीक्षा खत्म होने के बाद पिताजी के साथ ही वापस घर लौटने का निश्चय किया तब तक बच्चों कि उत्तर पुस्तिका को लेकर बड़े ध्यान से पढ़ने लगा।

अमरकांत जब पिताजी के साथ घर को लौटा तो अम्मा की बात निकाल दी- "क्यों ना अम्मा को हम अपने साथ रख लें?”

पिताजी ने उत्तर दिया, "वह हमारे साथ नहीं रहेंगी।"

"तो क्यों ना हम वहां जाकर उनके साथ रहने लगें?”

पिताजी बोले- "तेरी माँ और भैया नहीं मानेंगे।"

अमरकांत को इस समस्या का हल समझ नहीं आ रहा था।

अमरकांत ने बात को पलटते हुए घूमने जाने की बात कही। अमरकांत उत्तराखंड यात्रा का पूरा नक्शा तैयार कर चुका था। अमरकांत ने पिताजी को ट्रेन रुकने व अन्य घूमने के स्थानों की जानकारी दी। अमरकांत ने बताया कि यह उसकी पहली हरिद्वार यात्रा है। पिताजी ने अमरकांत को ध्यान दिलाते हुए कहा कि वह इससे पहले भी हरिद्वार ऋषिकेश गया है उस समय वह बहुत छोटा था। बात ही बात में घर पहुँच गए।

घर पर हरिद्वार जाने की सारी तैयारी हो चुकी थी। माँ भाई ने भी अपने सारे सामान का एक बैग तैयार कर लिया था। अब बस पिताजी को अपनी तैयारी करना बाकी था। अमरकांत अगले दिन सुबह ही अपने परिवार के साथ हरिद्वार को रवाना हुआ।

अमरकांत परिवार सहित हरिद्वार पहुँचा। पहुँचने पर अमरकांत को गर्व की अनुभूति होती है।

अमरकांत बोला- "पहले हम होटल चलेंगे सारा सामान रखकर फिर हर की पौड़ी में स्नान के लिए जाएंगे।"

भाई ने कहा- "नहीं पहले हर के पौड़ी चलते हैं होटल जाने और फिर वापस आने से स्नान करने में देरी हो जाएगी और ठंड भी तेज हो रही है।"

पीछे से माँ बोली- "गंगा जी का पानी तो बहुत ठंडा है।"

अमरकांत ने कहा- "ठीक है जैसी सब की मर्जी।"

अमरकांत सब के साथ हर की पौड़ी पर स्नान के लिए पहुँच गया। स्नान करने के बाद जैसे ही अमरकांत अपने सामान के पास पहुँचा तो देखता है कि उसका काला बैग किसी और के काले बैग से बदल गया है।

अमरकांत खुद को दोषी ठहराता है कहीं उसकी लापरवाही की वजह से किसी ने ट्रेन में उसका सामान तो नहीं बदल दिया या फिर हो सकता है बैग ही बदल गया हो। अगर किसी को सामान चुराना ही होता तो वह पूरा ही चुरा ले जाता।

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