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चेतना के सप्त स्वर
चेतना के सप्त स्वर
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2020 |
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 15414
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आईएसबीएन :978-1-61301-678-7 |
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
मैं उन्मुक्त गगन का पक्षी
मैं उन्मुक्त गगन का पक्षी,
पिंजरा नहीं सुहाता मुझको।
चाहें हो सोने, चांदी या हीरे का,
नहीं चाह है, मेरे मन को।।१
परम्परागत डाली-डाली;
नीड़ बनाये रहने को।
स्थिरता तो मृत्यु तुल्य है,
नहीं भावती मेरे मन को।।२
खुली हवाओं के झोकों से,
मन की तृष्णा बुझपाती है।
फूल-फूल पर कली-कली पर,
मन की कोयल इठलाती है।।३
देखे बहुत सुनहरे सपने,
आँख खुली तो भ्रम ही पाया।
जग को अपनाना चाहा तो,
पाया, किया स्वयम् श्रम जाया।।४
बांध सका है कौन हवा को
बादल की कब सीमा बांधी।
तूफानों से टकाराना चाहा,
किन्तु उड़ाकर ले गई आंधी।।५
सुरभित झोका एक हवा का,
लाया जीवन में नई बहार।
उसमें भी लगी शर्त तो,
वह भी लगने लगा व्यापार।।६
अपना नहीं है जग में कोई,
अपना केवल सपना है।
नाता जोड़ मानना अपना,
गर्म तवे सा तपना है।।७
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पुस्तक का नाम
चेतना के सप्त स्वर
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