नई पुस्तकें >> चेतना के सप्त स्वर चेतना के सप्त स्वरडॉ. ओम प्रकाश विश्वकर्मा
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डॉ. ओ३म् प्रकाश विश्वकर्मा की भार्गदर्शक कविताएँ
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भारतीय कवितायें
चलो उन गाँवों की ओर
प्रकृति स्वयं जहाँ डेरा डाले,
मस्त पवन वहाँ झूले हालें।
दिनकर तो सबको ही पालें,
जहाँ चिड़ियाँ चहके चहकारी दें,
होता सबसे पहले भोर। चलो उन गाँवों की ओर । (१)
हरियाली जहाँ मस्त हो रही,
फुदुक-दूर्वा स्वयं सो रही।
कमल खिलें हैं तालाबों में,
सुषमा इनकी व्यस्त हो रही।
पुष्प खिले हैं, डगर-डगर पर,
नाचें हर दम मोर। चलो उन गाँवों की ओर।।(२)
बम्बा नहरें नीर बाँटते,
खेतों को हैं खूब डाटते।
हरित क्रान्ति की लहर आ रही,
बालायें हैं गीत गा रही।
नदियाँ जहाँ की कलकल करती,
नहीं पता है छोर। चलो उन गाँवों की ओर ।।(३)
पशुओं के भी गीत हो रहे,
चरवाहे गोपाल हो रहे।
बछड़े-बछियाँ फुदक रहे,
आपस में कुछ बात कह रहे।
चरखा चलता हैं घर-घर पर,
बनाते सन की डोर। चलो उन गाँवों की ओर ।।(४)
जाड़ों में सब आग तापते,
पशु भी उनके नहीं काँपते।
पशु बंगले के अन्दर होते,
चौपारे में स्वयं है सोते।।
कहते किस्सा घोर। चलो उन गाँवों की ओर ।।(५)
किस्सा कहते हरिश्चन्द्र की,
स्वर्ण काल, विक्रमादित्य की।
कृष्ण-सुदामा, युधिष्ठिर की,
महावीर अरु गौतम बुद्ध की।
होते भाव विभोर। चलो उन गाँवों की ओर । ।(६)
याद आ रही बाग-खेत की,
नदिया के उस मधुर रेत की।
लहराते उस बाँस बेंत की,
माता के वात्सल्य हेत की।
'प्रकाश' मन लेता हिलोर। चलो उन गाँवों की ओर।।(७)
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