नई पुस्तकें >> काल का प्रहार काल का प्रहारआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास
8
वह कविता की कापी तीर से घायल पंछी की तरह अपने पंन्नों को फैलाकर जमीन पर मुँह के बल औंधी गिर पड़ी। किसी की भी उसे उठाने की हिम्मत नहीं थी।
फिर भी मैं इस बात से इंकार भी नहीं करती कि मुझे उस समय भी हँसी आ गई थी पर उसे मुश्किल से रोका। क्योंकि नये दादा की भविष्यवाणी क्या भविष्य की आशा में थी? दलूमौसी के पास क्या वह कापी वापिस नहीं आई? नहीं आई थी। पर अगर आई ना होती तो दलूमौसी ना जाने क्या कर बैठतीं? उसको 'वाणविद्' हाल देखते ही उन्होंने एक भयंकर प्रतिज्ञा कर डाली।
बाल्यवाहिनी कुछ-कुछ संवादवाहिनी का काम भी करती थी। तभी तो पता चला कि उस पापिनी की जननी ने अपनी ननद से कातरता पूर्वक देसलाई मांगी थी। (ननद ही तो भंडारे की मालकिन थी)।
उस पापपूर्ण पोथी की उनको सद्गति तो करनी थी। पर ननद ने भी तीव्र भर्सना से रोका, मझली बहू तुम्हारी मति मारी गई है? तभी क्या माता सरस्वती के शरीर को आग से जलाना चाह रही हो?
उसी ननदिनी ने ही दलूमौसी को उसे वापिस दिया। वह देते वक्त दबे स्वर में बोलीं, यह सब फालतू बातें लिखकर क्यों हैरान होती है? चाचा, ताया को काहे क्रोध दिलाती है। और बच्चे ले सकें ऐसी जगह इसे रखा भी क्यों? बूढा ही सारे झगड़े की जड़ है। अपनी दादी का दूत सावधानी से रख। अगर लिखने की इच्छा जागे तो ठाकुर-देवता-प्रकृति पर लिखना। बाप, चाचा, ताया किसी को भी तो लड़की के लिए वर का जुगाड करने की ताकत नहीं है सिर्फ गुस्सा करने की हिम्मत है।
वह बड़बड़ाती हुई चली गई।
और दलूमौसी उस पद्य वाले खाते पर जो गिरने से फटने को था, हाथ फेरते-फेरते बोली, मैंने भी इस कविता की किताब को ना छपवा दिया तो मेरे नाम का कुत्ता पालना।
हम वीरांगना मूर्ति देख कर पहले से ही उन्हें पूजते थे, अब तो स्तम्भित हो गये । हमेशा की प्रियपात्री दलूमौसी पर नये सिरे से प्यार उमड़ आया। कितनी हिम्मत, क्या रौब, क्या तेज-बिल्कुल झाँसी की रानी लग रहीं थीं। और कोई ना जाने मैं तो उनके प्रेमप्रसंग से अवगत थी।
दलूमौसी ने अपने जगमगाते रूप पर मुस्कान की छटा बिखेर कर कहा था, पता है वह मुझे ललिता कह कर बुलाता है।
ललिता क्यों, उसे क्या तेरा नाम पसंद नहीं है? धत् तू भी बुद्ध ही रही। 'पेरिणीता' नहीं पढ़ा? इसके बाद भी मैं अंधेरे में रहने वाली ना थी।
सुनकर हृदय पर जैसे बर्फ के पहाड़ जमने लगे। करुण स्वर में पूछा-तुझे डर नहीं लगता?
भय? दलूमौसी के चेहरे पर अलौकिक मुस्कान फैल जाती थी। पता है घृणा, लज्जा, भय तीनों को ही वर्जन करना पड़ता है। प्यार को मर्म तू कैसे समझ सकती है?
उस समय आम बोलचाल में प्रेम करना या प्रेम चलाना जैसे शब्द चालू ना थे। प्यार, मनुहार भी छिपकर ही व्यवहृत होते थे।
दलूमौसी का किसी को प्यार करना ही मेरे लिए एक अचंभा था । एक दिन हिम्मत कर अपने रोमांचित चित्त को समेट कर पूछा-तुम लोग क्या बातें करते हो?
दलूमौसी का चेहरा दिव्य ज्योति से भर गया-स्वर में भी गौरवमयी आत्मगरिमा का अभास्य था-"क्या कहती हैं या सुनती हूँ सब क्या याद रहता है? बेकार की ही सब बातें होती हैं। पर उस समय तो ऐसा लगता है जैसे स्वर्ग में विचरण कर रहे हो। खुमारी-सी छायी रहती है।
दलूमौसी के उत्तर में उनके हमसे उच्चस्तरीय लोक में विरण करने वाली अहंवार मयी वाणी का आभास मिलता था। शायद कोई अमरावती वाली जीव हमारी दलूमौसी के हृदय में घर कर चुका था।
स्वयं को अत्यन्त निम्न श्रेणी में पाती। दलूमौसी पर अभिमान भी होता था। वह मेरे दिल से निकल कर किसी दूसरे के दिल में चली गई थी। उन्हें पकड़ना मेरी शक्ति के बाहर था।
फिर भी एक आत्मप्रसाद का भाव भी रहता था। ब्याह बिना किये। प्रेम करने वाली, जीती जागती मानवी हमारे साथ रह रही है, खा रही है, सो रही है। मन की बातें बताती है-यह कम गौरवपूर्ण था? यह तो अनोखी बात थी। तभी कौतूहल, आग्रह के सागर हमेशा उमड़ते रहते।
बड़ी सावधानी से पूछती गुस्सा मत करना, तुम दोनों न कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़ा है?
इस प्रश्न का जबाव दलूमौसी ने दलनी बेगम की भाँति ही सिर ऊँचा करके दिया, “क्यों हाथ पकड़ने से जात चली जाती है? धत्-नहीं। सिर्फ-
फिर दलू का चेहरा कोमल हो गया और ऐसे देखा जैसे किसी अवोध शिशु को देखते है।
“हाथ ना पकड़ने से क्या प्यार हो सकता है? उँगली से उंगली छूने से ही तो प्राणों से पाणों का आदान-प्रदान होता है। कहकर और कितना समझाऊँ। कुछ भी तो नहीं जानती तू? तेरे ऊपर मुझे दया आती। है। उंगली से उंगली छूने से आग-सी लगती है।
काफी देर तक ऐसी जलन होती है जैसे पिसे मिर्च से होती है। बलराम को खुश करने के लिए कभी मिर्चा पीस देती हूँ। देखा है वह जलन की मिर्च जैसी ही तीखी होती है।
मैं गहरी साँस लेकर कहती-पर मिर्च की जलन से तो कष्ट होता है।
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