नई पुस्तकें >> काल का प्रहार काल का प्रहारआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का एक श्रेष्ठ उपन्यास
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सभी भयभीत थे। क्योंकि नये दादा का गुस्सा एक किम्बदन्ती बन चुका था। लड़की के भाग में क्या लिखा है कौन जाने?
आहा–दलूमौसी का हृदय-मन्दिर जिसके द्वारा दिन दहाड़े हजारों आँखों के सामने पूरे खोल दिये गये थे। ये दादा ने सबसे पहले किताब के ऊपरी आवरण को पल्टा और देख कर पहली उक्ति की यह क्या? श्रीमती शतदलवासिनी सेना औरतजात कब से सेन, राय, गुप्ता मजूमदार होने लगीं?
इसका जबाव किसके पास था? सभी चुप थे। पर एक असमसाहसिको, महापापिन कथा लेखिको की जुबान से यह बात फिसल कर ना जाने कैसे उनके कर्णगोचर हो गई-वह भी आजकल तो लड़कियाँ भी अपनी पदवी लिखती है।
“हाँ लिखती है। पर आजकल किस दरवाजे से यहाँ तक पहुँच रहा है? क्या दरवाजे पर सेंध लगाकर पहुँच रही है? इसके बाद तो कुछ भी जबाव ना आया।
वे बोले, देवीं क्या बुरा है? जिस सम्पदा पर मर्दो का हक है उसी पर अधिकार जमाने का लालच। श्रीमती शतदलवासिनी सेन। निम्न व अशिक्षित घरों की लड़कियाँ क्या लिखेंगी? घर में बैठे-बैठे ही सब कुछ सीख रही हैं।
इसके बाद अगले पन्ने पर नजर गई जहाँ दलूमौसी ने गुलाब के फूल को सुखा कर उसे चिपकाया था और उसी के ऊपर अपना उत्सर्ग पत्र भी लिखा था-उसे देख कर तो नये दादा की आँखे फटी की फटी रह गई। फिर कुछ समय शान्त रहकर गर्जना की-इसका मतलब? तुम्हें यानि?
उपस्थित सब की ओर ओंखे निक्षेप किया और बोले-तुम्हारी पद्यरचयिता' बेटी को जरा पूछना तो समझली बहू कि यह 'तुम' कौन?'
मझली बहू ने कहा-मैं नहीं जानती भाई, तुम्हीं इसकी पीठ की चमडी उधेड़ कर पूछो। वह यह कहकर रोने लगी।
नहीं मुझमे एतनी हिम्मत नहीं है। पद्य का नमूना देखकर मेरी अक्त घास चरने चली गई है।
मझली दादी का चेहरा सूख कर काला पड़ गया वह अपनी असहाय नजर से अपने नये देवर के चेहरे को देखती रह गई जिस पर घृणा, व्यंग, कुटिलता सभी कुछ विराजमान था।
दादी बुआ इस अदालत के अहाते में हिम्मत जुटा कर बोली-कणों क्या थियेटर सै गाना नकल किया है क्या?
नहीं वह तो स्वयं ही कृमिककी हैं। नकल काहे को करती? फिर कठोर दृष्टि से आसामी को देखा।
ओह, कितनी दयनीय परिस्थिति थी। इस युग के हिसाब से सोच से परे'।
वही यूनानी शैली वाला चेहरा, घुघराले केश, नरम सुडौल पतला शरीर इतना बदला-बदला-सा लग रहा था।
पर वह क्या रो रहीं थी? अगर रोती तो ठीक था वही करना उचित था।
मुझे भी अजीब लगा।
नये दादा ने संयत स्वर में पूछा, मझली बहू तुम्हारी इस गुणवती बेटी की उम्र कितनी होगी?
मझली बहू तो पत्ते की भाँति काँप रही थी। जबाव दिया उनकी ननद ने - कितनी होगी अभी तो तेरह में पाँव डाले है।
यह गणना कम थी। क्योंकि दलूमौसी और मै दोनों ने ही गौरवमय चतुर्दशी अध्याय पार कर लिया था। पर कुमारी लड़की की उम्र तो पंजिका की गणना में नहीं आती।?
हूँ। नये दादा और भी घृणित स्वर में बोले, अभी से यह। मझली बहू बात-बात मे मैंके जाना बन्द करो।
इस निषेधवाणी का गूढ़ार्थ समझने में किसी को भी कठिनाई नहीं हुई। (मैका शिक्षा-दीक्षा के हिसाब से हीन था)।
पर हर घडी मैके जाना तो विधिनुसार ही था। दलूमौसी तो मझली दादी की पहली संतान थीं। इसके बाद पाँच और जीवो को पूछी का दर्शन करवाया था। उसके लिए तो पितृालय ही जाना पड़ा।
बुआ दादी अपना धैर्य नही रख पा रहीं थी, पढ ना ऐसा भी क्या लिखा है मैं भी तो सुदूँ।
नये दादा पन्ने उल्टते जाते और चेहरे को क्रामश रक्तवर्ण बनाते जाते। बोले, मुझे ना तो पद्य पढने का अभ्यास है ना ही रुचि है-जिन्होंने लिखा है वही सुनायेगी। तुम लोग ही सुनना।
उसी समय एक भोली उक्ति उछली, दलूमौसी तो पद्य नहीं लिखती नये दादा वह तो कविता लिखती है।
हाँ हाँ कविता। यह एक और दूसरी भी तैयार हो रही है इन्हीं की दूसरी प्रतिलिपि। आश्चर्य। जिस कारण बेहया, बेचाल ना बने इसी से पाठशाला नहीं भेजा पर घर में ही।
जिस ढंग से कोई किसी कीडे या केंचुए को लकड़ी से उलट-पलट कर देखता है उसी तरह दो उगली सै वह उसके पन्ने उलटते-पलटते एक स्थल पर रुके-से गोल, माधे के बाल खड़े और जिसका अभ्यास ना था उसी को कार्य में लगाया-
वातायन पथ पर सदा अंखिया बिछोय
सोचती हूँ क्षण भर के लिये आये।
बढ़िया। उस खाते को मझली बहू की ओर फेक कर बोले, तुम्हारी इस लड़की ने आगे चल कर अगर मोहल्ले के लड़कों से प्रेम का चक्कर
नहीं चलाया तो मेरा नाम कुत्ता पालना।
तेज डग भरते हुए चले गये। लगा वहाँ से अभी-अभी फांसी का परवाना जारी कर दिया गया हो।
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