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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

8

प्रचण्ड क्षोभ सें मूक हो गई थी तुलसी। वैसे घोषाल की बेटी ने उसे लुभाने के लिये उसे बड़े-बड़े सब्ज बाग दिखाये थे। यहाँ तक कि, उसी वक्त बाजार जाकर उसके लिये सस्ते छींट का एक फ्रॉक भी ले आई थी और तुलसी को वो वह फ्रॉक थमाती हुई बोली थी, 'इसे पहन, परसों रेलगाड़ी में बैठना। ऐसी और बहुत सी फ्रॉक ला दूँगी तुझे। यह वही फ्रॉक है जो 'बटन हीन' होकर भी तुलसी के गले से लटकता रहा।

क्षोम से तुलसी जैसे एक ओर मूक हो गई थी वैसे ही थी और कभी न देखी हुई दुनिया को देखने। जानने की इच्छा भी जागी थी उसके मन में। रेलगाड़ी....बहुत-बहुत दूर के देश-रेलक्वार्टर के मकान जिनकी छतों से रेलगाड़ी का आना-जाना दिखाई पड़ता है, इंजन की सीटी सुनाई पड़ती है। कैसी है वह दुनिया?

इंजन की सीटी उसे दूर से ही पुकार रही थी-इसीलिये चली आई थी तुलसी। अगर अपनी मर्जी से वह न आती, तो क्या मजाल था कि चाचा घोषाल की बेटी के हाथों तुलसी नाम की लड़की को सौंप देती? उस वक्त उसकी उम्र सिर्फ आठ साल थी तो क्या, वह बड़ी आसानी से बड़े सैलाब को तैर कर इस पार-उस पार हो सकती थी, ऊँचे पेड़ पर चढ़ सकती थी, चाहती तो दो-चार मील पैदल चल कर दूसरे गाँव पहुँच जाती। अगर तुलसी अपनी खुशी से पकड़ में न आती, तो औरों में यह क्षमता थी ही नहीं कि उसे पकड़ कर पिंजड़े में बन्द करें। क्षोभ से हो या नई दुनिया देखने की इच्छा से हो, तुलसी अपनी खुशी से आकर पिंजड़े में कैद हुई थी। करणपुर आने के बाद घोषाल की बेटी के पास जब भी मायके से पत्र आता तो वह तुलसी को पुकार कर कहती, 'ओ तुलसी सुन, मेरी भावज का खत आया है। लिखा है कि तेरे चाचा-चाची सकुशल हैं, पुँटु बिन्दावन राजी खुशी है। तुझे यह समाचार सुनाने को कहा है उन्होंने।' तुलसी को मगर उनके कुशल क्षेम सुनने की इच्छा भी नहीं होती। घोषाल की कन्या की बात पूरी होने के पहले ही वह कमरे से बाहर हो जाती।

जाते-जाते कहती जाती, 'उनका हाल सुन कर मुझे कौन-सा स्वर्गसुख मिलेगा?

'वाह री लड़की।' कहते घोषाल के दामाद, 'जान-सुन कर भी तुम मायके से ऐसी बिच्छू ले आईं। धन्य तुम्हारी बुद्धि को!'

आड़ से उनकी बातें तुलसी मुँह बिचकाती।

विधाता ने तुलसी का जिगर किस धातु से गढ़ा था, कौन जाने। क्या वह लोहे का था? या पत्थर का? या वह इस्पात से बना था?

तुलसी की हँसी बाहर के अन्धकार को चीर कर रख देती है। ननी ने कहा, 'दीदी को चिढ़ा कर तुझे क्या मिलता है तुलसी?'

रुकती नहीं तुलसी। और हँसती है। कहती है, 'क्या पता सिर्फ दीदी को ही नहीं, हरेक को। चिढ़ाने में ही खुशी होती है मुझे।'

खेल खत्म हो गया था। चलने को तैयार हो सब उठ आये थे दुकान से।

सड़क पर आते ही सुखेन ने कहा, 'इतनी जल्दी क्या है तुलसी? जरा धीरे चल। मैं तेरे साथ चल रहा हूँ, छोड़ दूँगा तुझे तेरे घर पर।'

सुखेन का घर तुलसी की कोठरी के रास्ते में ही पड़ता है। थोड़ी दूर चल कर वह उसे उसके घर तक छोड़ सकता है। राजेन, जग्गू का घर उल्टी तरफ है।

'घर तक छोड़ देगा?' चलते-चलते रुक गई तुलसी। 'अगर मुझे घर ही छोड़ना है, तो चलो। तीनों चलो।

'तीनों? उनका घर किधर और तेरा किधर है?'

'तब जाने दे। मैं अकेले ही चली जाऊँगी, किसी को नहीं जाना है मेरे साथ।'

'क्यों? नाराज क्यों हो रही है तू?'

'नाराज? नहीं बिल्कुल नहीं।' धीरे से तुलसी ने कहा, 'नाराजगी नहीं अविश्वास।'

'अविश्वास?' सुखेन चकराया।

'नहीं तो क्या? तेरी जात ही विश्वासघातक है। घर छोड़ने के नाम के साथ चलते-चलते, हाथ पकड़े तो कोई ताज्जुब है?'

'ऐसा कब हुआ है रे तुलसी?'

मौका देती तो जरूर होता। मैंने कभी मौका ही नहीं दिया। ऐ राजेन,

जग्गू इधर आ जल्दी।'

'क्यों? उधर क्यों?'

'मुझे घर तक छोड़ दे।'

'सुखेन तो जा रहा है।'

'सिर्फ उसके साथ डर कम नहीं होता। कई और एक साथ हों तो हिम्मत पड़ती है।'

रात काफी हो चुकी थी इतना चलने का मन भी नहीं हो रहा था, पर यह निमंत्रण प्रत्याख्यान करने लायक भी तो नहीं! दोनों उल्टे रास्ते चले।

'ठीक है, तुम ही दोनों जाओ उसके साथ, कह कर सुखेन तेज कदमों से अपने रास्ते चल पड़ा।

उसकी तरफ देखता रहा राजेन। फिर पूछा, 'क्यों रे तुलसी, इतनी जरा सी देर में क्या हो गया रे?'

'होता क्या? उसे थोड़ा चिढ़ा दिया मैंने। चिढ़ाने से जो चिढ़ जाते हैं, उन्हें छेड़ने में मुझे बड़ा मजा आता है।'

'और उनका क्या जो अपने आप ही खार खाये बैठे हैं?'

'उन्हें देख करे? ऐसी रात-विरात?'

नहीं। उन्हें देख मजा नहीं आता तुलसी को। उन्हें देख उसके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। खून जम जाता है।

राजेन और जग्गू तुलसी के घर के सामने का लकड़ी वाला फाटक खोल उसे घर के चौक तक छोड़ कर चले गये। कमरा एक ही है तो क्या घर तुलसी को अच्छा मिला है। अच्छा है तो क्या, इस घर में रह ही कितनी देर पाती है तुलसी? दिन आते और चले जाते हैं, रातों के बाद रातें आतीं और चली जाती है, तुलसी के किवाड़ पर ताला पड़ा रहता है। तुलसी ड्यूटी पर होती है। फिर भी यह उसका अपना है। जब यहाँ होती है तब आजादी से साँस लेती है। और भी एक बात है। घर आने पर वह अपने हाथ का बनाया खाना भी खा सकती है। दूसरी जो आया और है, वो जहाँ काम करती है, खाना भी वहीं खाना पसन्द करतीं है। खाना लेने के कारण पैसे जरा कम जरूर हो जाते हैं, पर भरपेट जा वे अपने नुकसान को पूरा कर लेतीं हैं। तुलसी लेकिन ऐसा नहीं करती। और लोगों का कहना है कि 'तुलसी की खुराक बहुत कम है, इसलिये पूरी तनख्वाह लेती है।'

आते-आते राजेन ने पूछा था, 'अभी जा तुझे खाना पकाना पड़ेगा?'

'क्यों? किस दुश्मन के लिये?' हँस कर तुलसी ने कहा था, सुबह के चावल में से निकाल कर रख दिया था, नींबू के पेड़ से पत्ती तोड़ लूँगी। बस बढ़िया खाना हो जायेगा।'

'बस? इसी से पेट भर जायेगा? और कुछ नहीं खायेगी?'

'तूने क्या यह सोचा था कि मैं अपने लिये बिरियानी और कोफते बनाऊँगी?'

बेवकूफ जग्गू ने कहा, 'अगर यह खाना है, तो इतना-इतना मेहनत कर अपनी देह क्यों झुलसाती है रे तुलसी! पेट भर खाने के लिये ही तो आदमी नौकरी करता है।'

उसकी बात पर संजीदा हो तुलसी ने कहा, 'नहीं। पैसे सिर्फ खाने के लिये ही नहीं चाहिये। ढंग से रहना ज्यादा जरूरी है। पैसे उसके लिये ज्यादा जरूरी हैं।'

उसके बाद वह घर पहुँच गई।

फाटक पर एक कुत्ता लेटा था। उसे राजेन ने शोर मचा कर भगा दिया था। पर, तुलसी के बरामदे में एक और जीव दुबका पड़ा था उसे राजेन जग्गू ने नहीं देखा था। देख नहीं पाये थे।

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