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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

7

ननी जानता है कि उसकी बहन की आँखों में यह लड़की किरकिरी से भी ज्यादा चुभती है। उसे यह भी मालूम है कि वह जो, जब तब यहाँ आ धमकती है और इन रस्सी टूटे बैलों के साथ ताश खेलती है और सिगरेट फूँकती है, यह उसकी बहन को तिलमिला देने के लिये बहुत है। इसीलिये वह जरा रोक-थाम करने की कोशिश करती है।

ननी की इस घबराहट को तुलसी जानती है, इससे उसे बड़ा मजा आता है। वह तपाक से कहती है, 'क्या जाने क्या कहते हो ननी भैया! चुड़ैलों की जैसे सालगिरह नहीं होती, तुलसी को भी कभी देर नहीं होती। इस करणपुर के जितने भूत-प्रेत, दानों-दैत्य हैं, सब से मेरी जान पहचान है। रात को जब घर लौटती हूँ तब उन्हीं से गप-शप करती चली जाती हूँ।'

सुखेन ने व्यंग्य से कहा, 'तेरे कहने का मतलब यह तो नहीं कि तेरी राह में वे ओंखें बिछाये इन्तजार करते होते हैं!'

'ऐसे तो हो ही सकता है। भूत तो मनुष्य की गन्ध से ही खिंचे चले आते हैं।'

'आज नाइट ड्यूटी नहीं है तेरी?'

'है। रात के बारह बजे के बाद। आपरेशन होगा।'

'तो तेरा क्या? नर्स तो नहीं है तू।'

इस बात को सुन तुलसी के मुख पर आत्मप्रत्यय भाव चमका। उसने कहा, 'नहीं हूँ तो क्या है? नर्सिंग पास की हुई नर्सों से ज्यादा विश्वास रखते हैं डाँक्टर लोग मुझ पर।'

'सो तो जरूर रखते होंगे!' राजेन भी क्यों पीछे हटता? 'नौजवान डॉक्टरों की बात कह रही है न?'

'नौजवान? अब और ज्यादा मत हँसा मुझे राजेन!'

हँसाने को तुलसी ने मना जरूर किया, पर हंस-हँसकर दोहरी होती हुई वह बोली, तू सोचता है कि नौजवान ही पापी होते हैं, न? मगर सच पूछे तो बताऊँ, वे अच्छे होते हैं। असल पाजी तो हैं वह बूढ़े बदजात।'

'अच्छा? तो यह ज्ञान भी मिल गया है तुझे?' हाथ के ताशों को फेंक सुखेन ने कहा, तो फिर 'नाइट डयूटी' का वक्त सिर्फ बीमारी के साथ ही नहीं गुजारना पड़ता!'

'देख सुखेन, इस तरह बात मत किया कर! बाज वक्त तेरी बातों से जी ऐसा जल जाता है कि तबीयत होती है कि तुझे जान से मार कर फाँसी चढ़ जाऊँ। ताश फेंक क्यों दिये तूनै?'

'अब अच्छा नहीं लग रहा है।'

लगेगा, जरा धुँआ पी। हाय, तौबा! अब तो सिगरेट भी नहीं है मेरे पास...ला, अपने पास से एक बीड़ी ही दे।'

ननी जरा हिल-डुल कर फिर ठीक से बैठता हुआ बोला, क्या री, तुझे तो बीडी की महक से चक्कर आता है न?'

'आता तो है। पर अभी तो सुखेन की बात सुन कर यों ही ऐसे मूड 'ऑफ' हो गया है कि उसी से चक्कर आने लगा है। अब जहर से जहर उतारना है।'

चार-चार मर्दों के बीच बैठी निःसंकोच बीड़ी फूँकती जाती है तुलसी। उसके हालचाल देख कर यही लगता है कि वह भी सुखेन राजेन की 'जोड़ीदार' है।

'तो अब ताश खेला नहीं जायेगा न?' बिखरे पत्तों को बीनता हुआ ननी बोला, मैं तभी जान गया था।'

कब?'

'जब सनीचर का उदय हुआ।'

'सनीचर का उदय तो ननी भैया तुम लोगों कीं कुण्डली में आज नहीं हुआ है, वह तो हमेशा से ही तुम्हारे साथ हैं।'

'मगर हमारे खेल का सत्यानाश तो तू जिन दिनों आती है उन्हीं दिनों होता है।'

'उसमें मेरा क्या दोष-हैं ननी भैया? जिस दिन मुझे जरा फुर्सत मिलती है, पुराने दोस्तों से मिलने को मन करता है, इसीलिये चली आती हूँ। इधर तुम लोगों का यह हाल है, कि तुम यही बात मन में गांठे बैठे हो कि तुलसी औरत है।'

'जो सच है, उसमें गाँठने का क्या है रे तुलसी! तू क्या भगवान के नियमों का भी उलट फेर करना चाहती है?'

'भगवान के नियम?' उदास हो तुलसी बोली, 'होगी। पता नहीं। भगवान कैसे हैं, क्या हैं उनके नियम-कानून, वह सब तो मुझे कुछ पता नहीं। भगवान तो कभी मिले नहीं। जिन्दगी भर तो सिर्फ भूत-प्रेत, दैत्य-दानवों से ही पाला पड़ता रहा है मेरा।' कह कर तुलसी उठ खड़ी हुई। ऐन उसी वक्त पद्मा की आवाज सुनाई दे गई, 'क्यों रे ननी आज खाना-वाना नहीं खाना है क्या?'

तुलसी की आँखों में शैतानी चमकी। उसने पुकारकर जोर से कहा, 'कब का यह खेल खत्म हो गया होता पद्मा दीदी, पर मैं आ गई थी न, इसलिये इन्हें देर हो गई। जा रही हूँ अब मैं।'

मन में तो पद्मा ने जरूर कहा होगा, 'जा, मर जाकर चुड़ैल। चैन आवे मुझे।' पर आमने-सामने ऐसी बात कहने की हिम्मत कहाँ? पहले तुलसी को जैसे दुरदुराया जा सकता था, अब तो वैसा किया नहीं जा सकता न। अब तुलसी की अपनी प्रतिष्ठा है, पोजीशन है। इसीलिये सौजन्य जताती कहती है पद्मा, 'हाय राम। तू आई है? तो अभी आकर ही चली क्यों जायेगी री? आई है पुराने दोस्तों के पास, बैठ, बातचीत कर, ताश-वाश खेल।'

'सिर्फ उन्हीं के पास तो नहीं, आई थी पद्मा दीदी, सोचा था, लगे हाथों तुम्हारे चरण भी छूती चलूँगी, कहती तुलसी आगे बढ़ी।

पद्मा की आचारशीलता सर्वजन विदित है। इसलिये तुलसी के चेहरे पर कौतुक की द्युति चमक रही थी।

'रहने दे, रहने दे। अब तुझे मेरे चरण रज नहीं लेना है, कहती पद्मा ने फटाक से दरवाजा बन्द कर दिया। वह वही किवाड़ है, जिसकी आड़ से वह कम से कम चौदह बार झाँक गई है। दरवाजा बन्द होते ही तुलसी ने हँसना शुरू किया। तुलसी जब हँसती है तब लगता ही नहीं कि उसकी आयु अट्ठाइस साल की है। जब तुलसी आठ साल की थी तब अपनी चाची की माँ को छू लेने की धमकी दे इसी तरह हँसा करती थी।

वह बुढ़िया भी 'आचार संहिता' की जानकार ही नहीं, निष्ठा से मानने वाली भी थी।

बुढ़िया रहती थी दामाद के घर में ही, और रात दिन दामाद के पुरखों को गालियाँ देना ही उसका काम था। इसकी वजह यह थी कि केवल तुलसी ही नहीं, उसका चचेरा भाई बिन्दा भी उसे तंग किया करता था। उसका सर्वप्रिय खेल था-जानबूझ कर कूड़ा छू कर बुढ़िया को यह चिढ़ाना कि अब छू दिया तुम्हें, तब छू दिया।

तुलसी की चाची का कहना था कि बिन्दा का कोई दोष नहीं है। यह बदजात तुलसी ही उसे यह बुरी बातें सिखाती रहती है। 'अगर यह हरामजादी, माँ-बाप को खाकर मेरी गृहस्थी में न आती, तब बिन्दा कभी भी ऐसा न होता' तुलसी की चाची का यही रोना था।

मगर तुलसी भी बड़ी हिम्मतवाली थी। दूसरे के टुकड़ों-पर पलने वाली यह अनाथ लड़की अपनी चाची के मुँह पर अनायास कहती, 'इनकी गृहस्थी! क्यों क्या हम कोई नहीं? यह घर तो चाचा का है, बिन्दा का है, मेरा है और पुँटु का है। पराई तो तुम हो, दूसरे घर की लड़की।'

कहाँ से आया था, कौन देता था, तुलसी को इतना साहस!

उसकी चाची उसे धक्के देकर निकालने आती तो तुलसी हँस-हँस कर कहती, 'देख लो नानी, तुम्हारी लड़की मुझे छूने आ रही है। उसके बाद ही वह तुम्हारे चौके में जायेगी। याद रखना मैं अभी कूड़ेदान को छूकर आ रही हूँ।

श्राप?

गालियाँ?

इन सबों से तुलसी का कुछ नहीं होता था। अब तक वे तुलसी को बर्दाश्त कर सके, करते रहे, जब कर न सके तो अपने गाँव के 'घोषाल' की बेटी-दामाद के साथ उसे रवाना कर दिया। घोषाल का दामाद करणपुर का 'रेल बाबू' था। उसके बाद का इतिहास तो सारी दुनिया जानती है।

अपने घर पर रवाना करने के पहले तुलसी के चाचा ने एक दिन घरवाली की आँख बचा कर तुलसी से, प्यार से पीठ पर हाथ फेरकर कहा था 'इसमें तेरा भला ही होगा बेटी। यहाँ तो तुझे कितने-कितने कष्टों के बीच रहना पड़ रहा है। खाने का कष्ट, पहनने का कष्ट....'

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