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तुलसी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : गंगा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15410
आईएसबीएन :81-8113-018-9

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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...

6

ताज्जुब की बात यह है कि विशेष कोई बन्धन न होते हुये भी तीनों करणपुर में ही रह गये हैं। तकदीर ठोंक इधर-उधर भटक नहीं गये। इन लोगों के लिये यहाँ से चला जाना ही स्वाभाविक था। ऐसे 'ना रस्सी ना पगहा' लोग ही तो दरवेश हो जाते हैं, हो जाते हैं वैरागी, रस्सी टूटे बैल हो मटरगश्ती करते हैं। यह बताना करीब-करीब नामुमकिन है कि इन लड़कों को यहाँ किस बन्धन ने बाँध रखा है। कौन-सी खूँटी है वह जिसे यह तुड़ा नहीं पाते। यह किसी को पता नहीं। ननी का यहाँ रह जाने का फिर भी कारण है। उसकी दूकान है ही, उसकी गृहस्थी है। विधवा दीदी है। बे-माँ के बच्चे हैं। यह बन्धन कोई कम बन्धन है क्या?

यह लोग बेवकूफ हैं। निर्बोध हैं यह लोग।

यह लोग अगर विश्व संसार की विशालता में छिटक जाते, तो हो सकता है, उस विशालता के फैलाव में आ, वे खुद भी, उस विशालता का कुछ न कुछ अंश, अपने में समेट लेते। मगर यह खयाल उन्हें कभी आया ही नहीं। उनके लिये 'पृथ्वी' का फैलाव इस करणपुर रेल स्टेशन की चौहद्दी को घेर कर ही सीमित है। और उनके सारे सुखों का केन्द्र है ननी की चाय की दूकान। इससे अधिक सुख की प्रत्याशा भी अब उनके मनों में धुँधली हो गई है।

लेकिन जिस दिन पेड़ की उस ऊँची डाल पर खिलने वाला फूल, अपने से आकर चाय की दूकान में पड़ी चौकी पर बिछी फटी चटाई पर टपक पड़ता है, उस दिन, उस समय उसकी धुँधली पड़ी भावनाओं पर प्रकाश की एक किरण चमक जाती है। मगर जब वह चली जाती है तब कोई उसे ताना देने से रुकता नहीं, सभी लग पड़ते हैं उसकी नुख्ताचीनी करने। ऐसा क्यों होता है? क्या वे अपनी आशा पूरी न होने के कारण ऐसा करते हैं? या, यह उनकी हीनमन्यता का प्रकाश है?

यह भी बात समझ में नहीं आती कि खामख्वाह उसे यह लोग अपने से ऊँचा समझते क्यों हैं? है तो रेल अस्पताल की आया ही। जरूरत के वक्त 'बाबू' लोग उसकी खुशामद कर अपने घर ले जरूर जाते हैं पर फिर भी उसे अपने से 'नीचा' समझ उससे घृणा भी करते हैं। किसी के घर पर अगर उसे एक प्याली चाय देते हैं लोग तो इसका पूरा ध्यान रखते हैं कि प्याली टूटी या चिटकी हो, ताकि उसके चाय पी लेने के बाद उस प्याली को फेंकते तकलीफ न हो। किसी के घर जा अगर तुलसी चटाई पर बैठ जाती है, तो उसके वहाँ से उठ कर आने के बाद ही घर की महिलायें उस चटाई को धुलवा लेती हैं। फिर भी राजेन, सुखेन और जग्गू अपने को तुलसी से ओछा समझ झुलसते रहते हैं। उसी झुलसन के कारण रह-रह कर उसे पुरानी बातें याद दिला कर कहते हैं,-'उन दिनों को तू भूल गई होगी, पर हम नहीं भूले हैं।' आजकल उसे 'तू कहते भी झिझक होती है, इसलिये जोर जबरदस्ती 'तू' कहते हैं। उनके इस ताने के जवाब में तुलसी कहती है 'भूलेगा कैसे? ग्वाले की गाय की तरह एक ही खूँटे से जिन्दगी भर बँधा जो रहा-'

सुखेन कहता, 'अरे, तो तू ही कौन सा आसमान में उड़ी?'

'औरत जात की बात रहने दे। परकटे पक्षी की भाँति तो हैं वे। बात तो मर्द की हो रही थी। अगर चाहता तू और तेरे यह दोस्त, तो जिन्दगी में कुछ न कुछ कर ही गुजरता।'

'अभी ही कौन बुरे हैं हम?' कहता राजेन।

'कीचड़ में रहने वाला मेंढक भी सोचता है कि कोई बुरा तो नहीं है वह, दिन तो बड़े आराम से गुजर रहे हैं। जाने दे। क्यों रे सुखेन, तेरा ब्याह होने वाला है?'

संजीदा बन सुखेन जताब देता है,'हूँ।'

'कब?'  

'जब होगा तब तुझे न्योता जरूर मिलेगा। कुछ नहीं होगा तो तुझे ले जाकर ढाबे में खाना खिला दूँगा।'

हाथ नचा कर तुलसी बोली, तू तो न जाने क्या कहता है। तेरी बुआ तो कह रही थी...'

'बुआ को ऐसे सपने हर वक्त आते रहते हैं।'

ननी ने टोका, यह बाजी आगे बढेगी, या बिगड़ गया है खेल?'

'नहीं, नहीं बिगडने क्यों लगा?' सुखेन, राजेन और जग्गू अपनी-अपनी ताश उठा लेते हैं।

उसी मौके पर ननी के सामने पड़े ताशों को तुलसी झट से उठाकर कहती है, 'मैं तुम्हारी जगह खेल लेती हूँ ननी भैया तुम तब तक जाकर खाना खा लो।'

'यह बचकाना खेल तो तू खेलती नहीं।'

'खेल लूँ जरा! बच्चों के बीच जब आ ही गई हूँ! जाओ, खा लो खाना। तुम्हारी दीदी घर बैठी जलभुन रही है।'  

'जलने-भुनने का टाइम अभी नहीं आया है। अभी तो साँझ ही ढली है।'  

'तो ठीक है, लो अपने ताश।'

'ना ना। तू खेल। मैं देखूँ।'

कुछ देर खेल चलता रहा। रह-रहकर'शाबाशी' की हर्षध्वनियॉ उठने लगी और बाकी तीनों खिलाड़ियों के दमकते चेहरे को देख कर लगा कि ये बेचारे अब तक फूस चबा रहे थे। अब उनकी जीभों पर रस का संचार हो रहा है।  

'तो फिर, तुम तीनों में अभी कोई शादी-वादी नहीं कर रहा है।' नई बाजी के पत्ते उठाती हुई तुलसी ने पूछा।

'किस से पूछ रही है?'

'सब से।'

सुखेन ही हर वक्त प्रधान वक्ता होता है। इस वक्त भी उसी ने जवाब दिया। कहा,'क्या कहने हैं तेरे! अपने खाने का ठिकाना नहीं, घर-घर दावत देने चले हैं! हुँ ह! शादी! क्या बात है तुलसी, हमारी फिक्र में क्यों घुलने लगी तू? मामला क्या है?'

'अरे मामला क्या होगा? पुरानी दोस्ती है, इसलिये पूछा। ले, चल किसकी बारी है? पहले किसे ताश देना है?'

'शादी' शब्द ही मधुर है।

हरेक के मन में थोड़ी बहुत खलबली मच गई। इसलिये ताश के पत्ते फेंकते-फेंकते, राजेन'कुछ अपने से कुछ जग से' कहने के ढंग से कहता है,'क्यों रें तुलसी आयागीरी के साथ-साथ आजकल तो तू लोगों की शादियाँ तय कराने का काम भी करने लगी है क्या?'

'कौन कहता है बुरा है? तो तेरे जान-पहचान में है कोई ब्याहने लायक लड़की?'  

'है।'

कहाँ? कहाँ?'

बताने से फायदा क्या? तुम तीनों में से जब शादी करने को कोई तैयार ही नहीं, क्यों फिजूल बात बढ़ाऊँ?'

'तुलसी रें! शादी करने का मन किसे नहीं हैं?' मूर्ख जग्गू बोल पड़ा है, 'घरवाली के बिना, घर ही नहीं, जगत् सूना है! पर हमारे जैसे अभागों को लड़की अपनी देगा कौन?'

ऐसी क्या बात है? इस दुनिया में राजा के लिये जैसे रानी है, वैसे ही काने के लिये कानी भी तो हैं। लड़की जो है सो, तेरे बराबर की ही होती। हाय! बातों-बातों में मैंने गलत ताश दे दिया। अरे ननी भैया, गये नहीं तुम खाना खाने?'

ननी ने गम्भीर होकर कहा, मेरे रहने से तुझे क्या तकलीफ है।

'मुझे? मुझे भला क्या तकलीफ होगी? इतनी ही देर में पद्मा। दीदी तीन बार झाँक गई है, इसलिये कह रही थी।'

उनके झाँकने की वजह कुछ और है।'

'यह बात है? तब तो मानना ही पड़ेगा कि पद्मा दीदी में अभी बहुत एनर्जी है।' तुलसी ने जोर-जोर से कहा।

बाहरी दुनिया में तुलसी ने बातचीत के बहुत तरीके सीखे हैं। अपने मामलों में भी उनका प्रयोग करते नहीं चूकती वह। आजकल दिन भर की मेहनत के बाद यह नहीं कहती कि बड़ी थकान है, कहती है, बहुत टायर्ड लग रहा है।' इसमें मेरी रुचि नहीं के बदते कहती है, 'इसमें इन्टरेस्ट नहीं।' सारी रात न कह तुलसी क्हती है 'होल नाइट'। सारा दिन को कहती है 'होल डे।' यह सब शायद उसको 'डे-ड्यूटी' 'नाइट ड्यूटी' की देन है।

'क्यों रें तुलसी, तुझे देर नहीं हो रही है?' ननी कहता है।

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