नई पुस्तकें >> तुलसी तुलसीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वे हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र हैं। इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं...
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एक दिन ननी ने ही उसे मना कर दिया। कहा, 'कल से तू मत आया करना तुलसी।'
उसके मुँह पर तुलसी ने क्या देखा, वही जाने। उसने जवाब दिया, 'अच्छा।'
'दु:खी मत होना। नाराज भी मत होना।'
ननी अगर यह न कहता, तब शायद तुलसी चुपचाप ही चल देती वहाँ से, पर ननी के इन प्यार भरे शब्दों से वह बिफर उठी। चिल्लाई तो नहीं, पर कड़ुवाहट से भर कर बोली, 'घबराओ मत ननी दा। नौकरी से निकाली जाना मेरे लिये कोई नई बात नहीं है।'
'नौकरी? मेरी दूकान में नौकरी करती है तू? तनख्वाह दी है मैंने तुझे कभी आज तक?'
'तनख्वाह नहीं देते हो, उस पर भी तो निकल, भाग, कर रहे हो। देते होते तो न जाने क्या करते।'
'तेरी भलाई के लिये ही कह रहा हूँ।
'पता है।' कहकर तुलसी चली गई।
उसके बाद, अपनी शादी के वक्त ननी उसके पास जा, मनुहार कर, उसे बुला लाया था। कहा था ननी ने तू मेरी छोटी बहन के बराबर है। दीदी को और तुझे मिल कर सारा काम करना है।' उसकी बात रख ली थी तुलसी ने। उसमें काम करने की ताकत भी तो बहुत है।
फणी वाली घटना उन्हीं दिनों की है। और उसके कुछ ही दिनों बाद फणी गायब भी हो गया था।
फिर तो कितना पानी बह गया गंगा का।
लोगों के घरों में बच्चे सम्भालने का काम छोड़ तुलसी अस्पताल के आया की ट्रेनिंग लेने गई। उसमें सफल हो, अस्पताल में नौकरी पकड़ी अपने लिये अलग कोठरी ली। देखते-देखते तुलसी कहाँ से कहाँ पहुँच गई।
इधर ननी का भाई भाग गया, बीवी मर गई, और दूकान में खास मेहनत किये बिना ही आमदनी बढ़ गई।
उसे तो बढ़ना ही था। बढ़ती ही।
जो जहाँ जैसा भी व्यवसाय करने बैठे, उसकी आमदनी में बढोत्तरी होगी ही। एकमात्र कारण है, जनसंरव्या में वृद्धि। हर जगह, हर चीज की माँग में बढ़ोत्तरी हुई है, और जिस कदर जनसंख्या बढ़ रही है उससे, चिटके गिलास की चाय और 'देसी' बिस्कुट की माँग बढ़ेगी, इसमें ताज्जुब क्या है?
आमदनी के बढ़ने का सवाल नहीं उठता, सिर्फ नौकरी करने वालों की। उनकी तो साल, महीने का हिसाब लगा कर आमदनी बढ़ती है। सुखेन, राजेन, जगाई तीनों ने इसी रेल स्टेशन के आसपास छोटी-मोटी नौकरियाँ जुटा ली है। दिन भर के हड्डीतोड़ मेहनत के बदले में नाममात्र मजदूरी पाते।
जिस मजदूरी का सभ्य नाम है तनख्वाह।
उन लोगों के लिये शादी के सपने संजोना भी पागलपन है। इसके बावजूद भी, किसी जमाने में इन लोगों ने उस स्वप्न को संजोया है, सबसे मजेदार बात और साथ ही बड़े शर्म की बात तो यह है कि इन तीनों की कल्पना एक ही मूर्ति को घेर कर पली और बढ़ी।
मूर्ति है एक रहस्यमयी की।
जिसकी दृष्टि में प्रश्रय, बाहों में प्रतिरोध, भंगिमा में निमंत्रण, जिह्वा पर विषवाण। उसके आकर्षण का मूल शायद उसकी रहस्यमयता में ही है। और पता नहीं क्यों, तीनों के मन में ही यह विश्वास पनपता रहा कि उसके लिये वह दुर्लभ नहीं है। इसी कारण उसे केन्द्र बना स्वप्नों का जाल बुनना, कल्पना का गजरा गूँथना सदा चलता रहा।
यह किसी जमाने की बात है।
अब उस स्वप्न का मोह समाप्त हो गया है।
अब वे जान गये हैं कि वह रहस्यमयी इनके पकड़ की सीमा के बाहर है।
अब सुखेन, राजेन और जग्गू तीनों ही सोचते हैं कि यह नौकरी अगर तब मिली होती तो इस तरह वह पकड़ के बाहर न चली जाती। अब तो वह सुदूर गगन की तारा है।
अब करने को बचा ही क्या है?
जिसे जैसी मिले, वैसी शादी ब्याह कर घर बसा लेना, यही न? पर ऐसी तकदीर है बेचारों की, कि 'जैसी तैसी' भी नहीं मिल रही है उनको। बात यह है कि इस शहर का हर कोई, सड़क की धूल फाँकने वाले 'न घर के न घाट के' इन छोकरों को पहचानता है। किसकी लड़की इतनी भारी पड़ रही है कि ऐसे लड़कों को अपनी बेटी सौंपेगा? उन्हीं की तरह दो-एक लालची, निकम्मी लड़कियों ने उनका पीछा किया था, पर वे बेचारी ही हट जाने को मजबूर हुई, इन लोगों ने उन्हें पास फटकने न दिया। कारण? पुरुष खुद लालची हो सकता है, लालचीपन कर सकता है, पर लालची औरत, वह बर्दाश्त नहीं कर सकती।
इतनी निराशा के बाद भी न वे पूरी तौर से निराश हुये हैं, न ही विवाह की वासना को त्यागा है। उनके मनों में अभी भी आशा है कि कुछ न कुछ जरूर होगा। उन्हें लगता है कि अदृश्य भविष्य उनके लिये, अपने अंक में, कुछ छिपाये प्रतीक्षा कर रहा है। समय आने पर वह उपहार उन्हें मिल ही जायेगा। बचपन से एक साथ खेलते-कूदते, लड़ते-झगड़ते बड़े हुये इन तीनों की मनोदशा बिल्कुल एक सी है। ननी के साथ वे ताश जरूर खेलते हैं, ननी उनका हिताकांक्षी मित्र भी जरूर है, पर ननी उनके मन का मीत नहीं है।
सुखेन ननी के सामने किसी दिन जातीं के सिलसिले में कह नहीं सकता, 'अब तो शादी-वादी किये बिना काम नहीं चलता। अगर ऐसे ही रह गया, तो मालूम नहीं किस दिन कुछ गड़बड़ कर बैठूँगा।'
यह बात वह ननी से कह नहीं सकता, पर जग्गू से अनायास ही कह सकता है, कह सकता है राजेन से भी। सुखेन सब से चंचल है, इस कारण उसकी इच्छायें भी सब से तीव्र हैं। इच्छा तीव्र होने से ही तो कोई काम नहीं बनता। इच्छा के पेड़ पर तो फूल लगते नहीं, न ही आते हैं फल। फल यह हुआ है कि उनके पास 'जीवन' नाम की कोई वस्तु अब बची नहीं है। है केवल 'दिन और रात।' अतएव उनके दिन और रात आ रहे हैं, बीते जा रहे हैं। 'जीवन' गायब है। वे इस बात को पकड़ ही नहीं पा रहे हैं कि दिन और रात के बीत जाने के साथ जीवन भी बीता जा रहा है।
राजेन और जग्गू सुखेन से जरा अलग हैं। उनमें चंचलता कुछ कम है। वे इसी उम्मीद में हैं कि तनख्वाह और थोड़ी बढ़ जाने पर जो हो, 'कुछ' करेंगे। चाहे वह 'कुछ' शादी हो, चाहे 'गड़बड़।'
सुखेन की तो फिर भी एक बुआ है, जो सुबह शाम खाना बना कर खिलाती है, बूढ़ा बाप है जो घर पहुँचते ही, 'आज इतनी देर कहाँ लगाई?' पूछने को सामने खड़ा हो जाता है। इन बेचारों के तो वह भी नहीं हैं।
जग्गू जब छोटा था, तब अपने ताऊ की लड़की के घर रहा करता था। सम्बन्ध सुनते ही मामूली हो जाता है कि वहाँ तो वह गले में फँसे काँटे की तरह रहता था। अब याद नहीं कि किस झगड़े या, अपमान के किस निर्लज्ज प्रदर्शन के कारण वह उस आश्रय को छोड़ने पर मजबूर हुआ था। और राजेन? अभी-अभी थोड़े दिन पहले तक एक बूढ़ा मामा था। वह भी सगा नहीं, दूर के रिश्ते का। रेलवे की कोई छोटी-मोटी नौकरी करता था वह। रिटायर होने के बाद भी वह यहीं रह गया था। उसी के पास रहता था राजेन! शुरू-शुरू में वही राजेन को कमाकर भी खिलाता, पका कर भी। जब वह बहुत बूढ़ा हो गया तब राजेन ही उसे रोटी देता। फिर तो वह बूढा भी एक दिन मर ही गया। उसी की कोठरी में पड़ा रहता है। राजेन उसी की टूटी-फूटी चीजों का मालिक बन। जग्गू भी राजेन की इसी कोठरी के एक कोने में पड़ा रहता है, और यहाँ वहाँ खा लिया करता है। सस्ती होटलें तो हर जगह होती ही हैं न?
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