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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

8

विजयभूषण आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर पांव नचाते हुए बोले, "सुनीति! तुम लोगों ने ही अपनी बिरादरी को पहचाना है।"

सुनीति तकिए पर गिलाफ चढ़ा रही थी, हाथ का काम रोककर पूछा, "मतलब?"

"माने तुमने कहा ही था। तुम्हारी बहन फिर फिल्मों में काम करना चाहती है।"

"ऐसी बात कही है? किससे कहा है उसने?''

"और किसे? मुझे।"

"तुम्हे?'' सुनीति ने शक की नजर से देखा, "तुम उसे मिले कब?''  

"है रहस्य! अगर कोई मिलने की कोशिश करे तो एकांत का अभाव कहां है?" विजयभूषण हंसते हुए बोले।

"हुं। ये बात नहीं। मुझमें इतना साहस कहां है कि तुम्हारे अनजाने में साली संग सुख का आस्वादन करने जाऊं? चिट्ठी लिखी है जी, चिट्ठी लिखी है।"  

"चिट्ठी? अरे! चिट्ठी कब आई? मैंने तो नहीं देखी।

"दफ्तर के पते पर लिखी है। शायद सोचा होगा कि तुम्हें पता नहीं चल सकेगा।"

"नखरा! देखूं तो जरा।"

विजयभूषण जेब में हाथ डालकर करुण स्वर में बोले, "दे दूं? जिंदगी का पहला पराई स्त्री का पत्र अपनी पत्नी को दे दूं?''

"तो फिर रखो। हृदय के बक्स में बंद करके रख दो।" कहकर सुनीति गुस्सा दिखाते हुए एक छोटी सी तकिया का गिलाफ एक बड़ी सी तकिया पर चढ़ाने लगी। ठहाका मारकर हंसने लगे विजयभूषण।

"कर क्या रही हो? तकिए की तो छाती की पसलियां चूर-चूर हुई जा रही हैं। ये लो। इसके बाद चिट्ठी न देना हृदयहीनता होगी।" तब तक सुनीति ने चिट्ठी झपट ली।

दो चार बार नजर घुमाकर चिट्ठी पढ़ डाली। उसके बाद ही सुनीति अग्निमूर्ति होकर बोली, "देखा? कहा नहीं था मैंने? कहा नहीं था एक बार बांध तोड़ दिया तो बच पाना मुश्किल होगा। लो, अब साली का हीरोइन बनने का शौक पूरा करो। तुम ही हो। तुम ही सारी बातों के लिए जिम्मेदार हो। तुम्हीं ने उसका सिर खाया है।"

विजयभूषण हंसकर बोले, "तो फिर देखा, इस वृद्धावस्था में भी मुझ में वह कैपेसिटी है।"

"मैं जाती हूं उस राक्षसी का दिमाग ठीक करने।" सुनीति तेजी से कमरे से चली गयी।

लेकिन जायेगी कहां? विजयभूषण भी पीछे लग लिए। झट से आंचल पकड़कर बोले, ''उसका अर्ग्यूमेंट भी असंगत नहीं है। फिल्म लाइन में जब आई ही है तब एक अच्छा सा रोल करके लोगों को चौंका देने की इच्छा स्वाभाविक ही है।''

''हुं। उतरी जब है तब पाताल तक ही उतर जाए।'' फिर भी विजयभूषण सीरियस नहीं हुए। सुनीति का गुस्सा देखकर हंसने लगे।

छोटी सी एक बात।

उसी को लेकर कितना तूफान।

जैसा छोटा सा पत्थर निस्तरंण नदी के जल में तरंग पैदा करता है।

इधर फिलहाल निर्मल नीला पानी ही है।

मां के कमरे से हंसता हुआ अभिमन्यु आया। हंसी रोकने की कोशिश में गंभीर बनते हुए बोला, ''चलो, अब डाक्टर के यहां चलो।''

''डाक्टर के यहां?'' चौंक उठी मंजरी, ''क्यों?''

''क्यों का जवाब तुम जानती हो और जानती हैं तुम्हारी सास।''

मंजरी के फीके चेहरे पर लालिमा दिखाई दी फिर भी कंठ स्वर, स्वाभाविक बनाए रखते हुए कहा, ''डाक्टर के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है।''

''तुम्हारे 'नहीं' कहने से कौन सुनता है? पूर्णिमादेवी का हुक्म है। आजकल डाक्टर दिखाने का फैशन है अतएव... ओ: इतनी खुशी हो रही है... जी कर रहा है खूब सीटी बजाऊं।''

''अच्छा? मुझे डाक्टर के यहां जाना है सुनकर खुशी से तुम्हारी सीटी बजाने की इच्छा हो रही है?''

''ऐसी ही इच्छा हो तो रही है?''

''चुप रही। मुझे बहुत बुरा लग रहा है।''

''बुरा लग रहा है?''

''लग ही रहा है। बुरी तरह से खराब लग रहा है।''

सहसा अभिमन्यु गंभीर हो गया। सचमुच का गंभीर। उसी आवाज में बोला, ''यह मनोवृति प्रशंसनीय नहीं है।''

''सो अब क्या करूं? मनोवृति अगर हर समय प्रशंसा के रास्ते पर चलती तो पृथ्वी पर स्वर्गराज्य होता। मुझे बहुत बुरा लग रहा है, बहुत बुरा।''

अभिमन्यु इस बात का उत्तर देने जा रहा था कि कमरे का दरवजा खटखटाकर नौकर श्रीपद भीतर आया। टिपटॉप सभ्य नौकर। पूर्णिमा का दाहिना हाथ।

''छोटी भाभीजी, आपको एक महाशय बुला रहे हैं।''

''मुझे?'' मंजरी ने आश्चर्य से पूछा, ''मुझे भला कौन बुलाएगा रे? जो लोग आते हैं उन्हें तो तू पहचानता है।''

''जी हां, ये महाशय मेरे पहचाने नहीं हैं। बहुत बड़ी एक गाड़ी पर चढ़कर आए हैं और आपको पूछ रहे हैं।''

मंजरी ने अभिमन्यु की तरफ देखकर कहा, ''बहुत बड़ी गाड़ी पर कौन आया होगा और मुझे बुला रहा है? मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है। तुम जाकर देखो न।''

अभिमन्यु का चेहरा कुछ गंभीर था। उदासीन भाव से बोला, ''बुला तुम्हें रहे हैं, मैं जाकर क्या करूंगा?''

''अरे एक बार जाकर देख आओ न? क्या शरीफ आदमी दरवाजे पर खड़े रहेंगे?''

अभिमन्यु मुस्कराकर बोला, ''बड़ी सी गाड़ी पर चढ़कर आये हैं इसीलिए इतना सोच रही हो?... ए श्रीपद जा, जाकर पूछ आ क्या काम है?''

श्रीपद चला गया।

कहना न होगा, थोड़ी देर बाद आकर व्यस्त भाव से बोला, ''भाभीजी कह रहे हैं वह हैं झइरेक्टर गगन घोष, आपसे उन्हें एक जरूरी बात करनी है।''

सहसा एक डर मंजरी के हृदय को आच्छन्न कर बैठा। मूर्ख की तरह बोली, ''क्या जरूरत है यह बताया?''

''पूछा था लेकिन बोले आप ही ओ बतायेंगे।''

मंजरी का चेहरा उतर गया।

अभिमन्यु की तरफ देखकर कातरभाव से बोली, ''सुनो, जाकर देखो न कौन आया है। क्या कहना चाहते हैं?''

लेकिन उसकी कातरता अभिमन्यु को विचलित न कर सकी। वह व्यंग करते हुए बोला, ''कौन आया है यह तो सुन ही लिया। क्या कहना चाहता है, आशा है यह भी अनुमान लगा सकती हो। और फिर बुला तुम्हें रहे हैं, मैं जाकर क्या करूंगा?''

आहत दृष्टि से एक बार उसकी तरफ देखकर मंजरी ने गंभीर भाव से श्रीपद से कहा, ''अच्छा तू बैठ जाकर, मैं आती हूं।''

दोबारा अभिमन्यु की तरफ बिना देखे, खुले बालों को हाथ से लपेट, अलगंडी से एक शॉल लेकर लपेटा और नीचे उतर गयी मंजरी।

आए हैं दो सज्जन।

जोर जबर्दस्त। विनय से विगलित, जुड़े हाथों का जोड़ ही नहीं खुल रहा था। खैर, शुभ संभाषण का लेन देन खत्म हुआ तो असली बात पर आ गए वे लोग। उन्हें मंजरीदेवी की जरूरत है।

मंजरी ने आरक्त मुख से कहा इस अनुरोध का पालन उसके लिए संभव नहीं। क्षमा करना पड़ेगा।

लेकिन क्षमा करने के लिए वे आये नहीं थे। किस बात का क्या जवाब देंगे यह सब तय करके ही आए थे वे लोग। अतएव मंजरी को वे समझाकर ही मानें कि एक छोटे से रोल में जो 'टच' दिया है मंजरी ने, उसे देखकर इनकी अभिज्ञ चक्षु ने जान लिया है कि मंजरी का भविष्य उज्ज्वल है। 'स्टार' बनने की प्रतिभा साथ लेकर ही वह पैदा हुई है। बातों की बरसात होने लगी। बातों की फुलझड़ी छूटने लगी। बातों की लहरें उठने लगीं। मंजरी किस किससे अपना बचाव करें। जितना ही वह आत्मरक्षा की कोशिश करती, उतना ही वे अपने युक्तियुक्त वाणों से निरुत्तर कर देते। अंत में 'सोचकर बताऊंगी' कहकर मंजरी ने उन्हें विदा किया।

यद्यपि जाते-जाते भी वे लोग ये कहते हुए गये, "इसमें 'सोचना-वोचना' कुछ नहीं है। मंजरी को दर्शकों की डिमांड पूरी करने के लिए फिल्म में आना ही पड़ेगा।" यह भी कहते गए कि कल परसों के भीतर ही वे अनुबंध-पत्र लेकर आयेंगे।

निचले मंजिल में एक कमरा अभिमन्यु ने अपने प्रयोजनार्थ रखा था जो दिन के वक्त बैठक और रात के वक्त श्रीपद का शयनमदिर बन जाता है।

इस कमरे की साजसज्जा के प्रति सभी उदासीन थे। अभिमन्यु के पिता के समय की कुछ कुर्सियां, जो बदरंग हो गयी थीं और एक मेज-यही बैठक नाम का गौरव वहन कर रही थी। एक कोने में एक तख्त पड़ा है जो श्रीपद की राजशय्या है। मंजरी ने इस कमरे के रखरखाव के लिए कभी सोचा तक नहीं था क्योंकि उसकी सहेलियां या रिश्तेदार जो भी आते हैं, सीधे सीढ़ी चढ़कर ऊपर पहुंच जाते हैं।

अभिमन्यु के दोस्त ही आकर इस कमरे में बैठते हैं।

आज चारों तरफ नजर दौड़ाने पर मंजरी को लगा कमरा कितना गंदा है। ऊपर आकर श्रीपद से बोली, "कमरे को इतना गंदा क्यों कर रखा है?"

श्रीपद सिर खुजलाता खड़ा रहा।

"अपना तेलचिट्टा बिस्तर तू ढककर क्यों नहीं रखता है?"

नई बात थी इसीलिए श्रीपद ने दोबारा सिर खुजलाया।

अभिमन्यु ने अखबार की आड़ से कहा, "अभी तक इतने बड़े सम्मानीय अतिथि के पांव की धूल तो पड़ी नहीं थी इसीलिए बेचारे का इस पर कभी ध्यान ही नहीं गया था।"

सुनकर स्तब्ध रह गयी मंजरी।

स्तब्ध होकर बैठी रही बगल वाले कमरे में जाकर।

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