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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

7

बड़े भाई छोटे भाई को प्यार से अनुरोध कर गये हैं "बहुत दिनों से साथ खाया नहीं है" कहकर। इस निमंत्रण की उपेक्षा नहीं कर सकता था। लेकिन मंजरी बिदक गयी।

बोली, "तुम जाओ, मैं नहीं जाऊंगी।"

"न जाने का कारण क्या दर्शाऊंगा?"

"कहना तबीयत खराब है।"

"कोई विश्वास नहीं करेगा।"

"सो तो है ही।" मंजरी तीक्ष्ण स्वरों में बोली, "तुम्हारे रिश्तेदारों से तो मुझे यहीं मिलना है। खैर, आज विश्वास न करना चाहें न करें, भविष्य में कर सकते हैं।"

अभिमन्यु ठिठककर बोला, "मतबल?"

"मतलब नहीं?"

"नहीं।"

अभिमन्यु ने एक बार उसकी तरफ देखा। सच में, बहुत ही ज्यादा थकी और क्लांत करुण लगी मंजरी। उतरा चेहरा, फीका रंग, आँखें छलछलाई हुई। आँखों के नीचे कालिख। बड़ी ममता जागी। कितने दिनों से उसने मंजरी की तरफ ठीक से देखा नहीं है?

संदिग्धभाव से पूछा, "तुम्हारा चेहरा तो बड़ा खराब लग रहा है। क्या हुआ है?"

अभिमानिनी को डर लगा कहीं प्रिय के स्नेह स्पर्श की हवा से पत्ते की नोक में इकट्ठा शिशिरकण ने झरना शुरू कर दें। वह बड़े शर्म की बात होगी। इससे तो हंसने लगने में भलाई है।

भले ही वह हंसी अस्वाभाविक हो।

"होना क्या है?"

"तो इतनी क्लांत क्यों लग रही हो?"

"जान-बूझकर अपनी तबीयत को खराब शो कर रही हूं अभिनेत्री हूं न?"

अभिमन्यु ने अपलक दृष्टि से एक बार उसके अस्वाभाविक हंसते चेहरे को देखकर शांत भाव से कहा, "क्या पता? पर जाने पर मंझले भइया भाभी बड़े दुःखी होंगे।"

"तुम तो जा रहे हो।''

"मैं तो आधा हूं।" अभिमन्यु प्यारी सी हंसी हंसा।

"तुम तो अकेले ही सौ के बराबर हो।" मंजरी ने उससे अधिक प्यारी हंसी हंसकर कहा।

"सचमुच नहीं जाओगी?''

"नहीं जी, अच्छा नहीं लग रहा है।"

"मुझे भी अच्छा नहीं लगेगा।"

"आहा।"

"आहा माने? मझली भाभी के हाथ का नया पुलाव खाऊंगा और आँखों से आँसू झरेंगे।"

अपने स्वाभाविक ढंग की हंसी हंस उठी मंजरी-बहुत दिनों पहले जैसी। हंसते हुए बोली, "वह झर सकते हैं। सारे मसालों का राजा है मिर्च-मझली दीदी इस थ्योरी पर विश्वास करती हैं।"

"तब फिर घर में अपने लिए अच्छा खाना बनवाओ।"

"तुम भी क्या कह रहे हो?"

"क्यों इसमें गलत क्या कहा है? अपने प्रति उदासीनता अब पुरानी बात हो गयी है।"

"मैं खाने के प्रति उदासीन नहीं हूं। रोज ही तो कितना कुछ खा रही हूं न?"  

"खाती नहीं हो न?"

अभिमन्यु ने फिर एक बार संदिग्ध दृष्टि डालकर कहा, "मुझसे नाराज होकर खाना छोड़ा है न?"

"हां छोड़ा है। अब फालतू बातें करना छोड़कर नहाने जाओ। देर होगी तो मझली भाभी से डांट खाओगे।"

"बचपन से इसे खाकर ही तो बड़ा हुआ हूं।" कहता हुआ सीटी बजाता अभिमन्यु नहाने चला गया।

उसके नहाने का शोर बाहर से सुनाई पड़ रहा था।

चिरकाल के निर्मल आकाश पर कभी-कभी गलत समझने का कोहरा छा जाता है तो कभी सहज बातों और सहज हंसी से सूर्योदय हो जाता है।

वहां जाकर अभिमन्यु ने देखा भीड़ इकट्ठा हुई है। दोनों दीदियां आई हैं, मां आई हैं। बड़ी भाभी भी बड़े भइया को घर पर छोड़कर आई थीं। कहने का मतलब ये कि मझली बहू ने मोटी रकम खर्च कर डाली थी।

उपलक्ष?

उपलक्ष कुछ नहीं-यूं ही।

पर अभिमन्यु हमेशा का शरारती है इसीलिए आविष्कार कर बैठा इसमें अंतर्निहित उपलक्ष को-अभिमन्यु पर मुकदमा। लेकिन इन्हें बड़ी चोट पहुंची जब अपराध का डक्यूमेंट साथ नहीं दिखाई पड़ा। तभी तो मजा आता।

"छोटी बहू नहीं आई?"

"ओ मां! क्यों?''

"क्यों?''

"तबीयत खराब है?"

"कहां, कल तो कुछ सुना नहीं था।"

"अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि एक बार आ न सकी?"

एक दर्जन प्रश्न पूछने वाले, उत्तरदाता एक अभिमन्यु।

हर एक के सवाल में अविश्वास का स्वर था। हर एक के चेहरे पर आशाभंग की ग्लानि थी।

आशाभंग का दुःख समाप्त हुआ तो असली काम शुरू हुआ।

"अभिमम्यु क्या सोचा है तुमने?"

"एक बार में सीख मिल चुकी है या इसे खींचते चलोगे?''

"ये बड़ा भयानक नशा है?''

"शेरनी को रक्त का स्वाद मिलने की तरह। अभी अगर अंकुर में विनष्ट नहीं किया तो अभिमन्यु की खैर नहीं।

"पत्नी अगर प्रोफेशनल अभिनेत्री बन बैठी तो क्या अभिमन्यु को प्रोफेसरी करना पड़ेगा?''

नाना प्रकार से, नाना रूपों में, घुमा फिराकर एक ही प्रश्न।

आश्चर्य! अभिमन्यु अविचल। पत्नी के काम को निंदनीय कहकर स्वीकार नहीं किया बल्कि समर्थन किया। बोला, "किसके भीतर कौन सी प्रतिभा छिपी रहती है, कौन कह सकता है? हो सकता है मंजरीदेवी बांगलादेश की श्रेष्ठ अभिनेत्री बन जाएं।"

"प्रतिभा! जहन्नुम में गयी प्रतिभा। तू क्या तब भी सिर उठाकर घूम सकेगा?''

"अवश्य ही। क्यों नहीं? तब तो बड़ी कार में चढ़कर घूमा करूंगा। बड़ी कार पर चढ़ने से मुंह और छाती दोनों खुद व खुद बड़े हो जाते हैं।"

"छात्रायें थूकेंगी तुझ पर?"

"छात्रायें? दिन फिर गए तो कौन जाता है छात्राओं कों पढ़ाने? पांव पर पांव धरकर खाऊंगा और भविष्य में डाइरेक्टर बनकर ठाठ से जम जाऊंगा।"

बातों से बात बड़ी, बहस से बहस।

लेकिन अभिमन्यु को बातों से जीता न जा सका।

मन-ही-मन अभिमन्यु ने मंजरी को न आने के लिए धन्यवाद दिया उसकी बुद्धि की प्रशंसा की। साथ आती, सामने रहती तो न जाने क्या होता। सामने होती तो शायद अभिमन्यु इतना फ्री नहीं होता।

अंत में इन लोगों ने उम्मीद छोड़ दी।

मान गए कि बीबी का गुलाम हो गया है।

इसके बाद समस्या उठी पूर्णिमादेवी को लेकर। गुस्सा होकर लड़की के घर चली गईं थीं लेकिन अब तंग आ चुकी थीं। उधर जबर्दस्त जिद सवार थी।

तंग दोनों पक्ष ही थे।

छोटी बहन ने आकर अभिमन्यु से कहा, "तुझे चाहिए मां को मना समझाकर अपने साथ ले जाना।"

भौंहें सिकोड़कर अभिमन्यु बोला, "मना समझाकर? क्यों?"

"तू जानता नहीं है कि मां अभिमानवश चली आई थीं?''

"ऐसा भी तो हो सकता है इस बात से मैं भी अभिमानाहत हुआ बैठा हूँ।"

"बक मत। तू गुस्सा होने की हिम्मत कर सकता है? सोच रही थी तू छोटी बहू के साथ मेरे घर आयेगा।"

"अजीब बातें हैं। मां तो छोटी बेटी के घर पर बड़े मजे से हैं।"

छोटी दीदी को चिंता हुई।

इनका इरादा क्या है?

बूढ़ी मां को उसके कंधे पर लादना चाहता है क्या? हो भी सकता है। बहू अगर हवा में उड़े, मां को पास रखने में झंझट तो है ही। न बाबा, इसी वक्त प्रतिकार करना जरूरी है।

दूसरा रास्ता पकड़ा।

"मजे से रहने से क्या होता है, मन तो छोटे बेटे के लिए रोया करता है।"  

"ओ, ऐसा! तुम्हारे पास तो अंतर्दृष्टि है।"

इसके बाद बात नहीं हुई। अभिमन्यु मां के पास तक नहीं फटका लेकिन मोटर पर बैठते-बैठते, अभिमत्यु ने सबको आश्चर्यचकित करके कहा, "मां आओ।"

जैसे उसी के साथ आई थीं मां। कहना न पड़ेगा, बेझिझक पूर्णिमा भी कार पर जा बैठी।

और घर आकर?

घर आने के दो दिन बाद ही पूर्णिमा ने आविष्कार किया कि तबीयत खराब होने का सही कारण है।

खुशी से उल्लासित हुईं पूर्णिमा।

भावी पौत्र का मुंह देखने की खुशी जितनी न हुई, मंजरी के पर टूटे, सोचकर ज्यादा हुई। लो, अब करो जो मर्जी सो। अब और नहीं चलेगा।

इंसानों के सृष्टिकर्ता ने स्त्री जाति के वश में रखने का जो अद्भुत कौशल आविष्कृत किया है, पुरुष उसका हमेशा से ही फायदा उठाता आया है।

औरतें तक औरतों को छोड़ती नहीं हैं।

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