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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
36
"नियुक्ति-पत्र? इसके मतलब आप भारत छोड़कर नौकरी करने अमेरिका चले जा रहे हैं?"
'अरे नहीं, इतनी बड़ी कोई बात नहीं है। तीन साल के लिए है, एक मामूली लेक्चरार की पोस्ट है, लगभग स्टूडेंट स्कॉलरशिप जैसी चीज। पैसेज का खर्च देंगे और रहने खाने के लिए कुछ पैसे। वह भी हमारे पुराने कॉलेज के प्रिंसिपल की कोशिश से ही हुआ है, मुझ में वह कैपेसिटी कहां है?''
लगा सुरेश्वर इस अचानक की खबर से अंदर तक हिल गया है। अपने को संभाल पाने में असमर्थ वह बोला, "आपका वह नियुक्ति-पत्र कब आया जरा बताइए तो सही। आज चार महीने से तो मैं आपके साथ लगा हूं।"
"प्रिंसिपल साहब के घर में चार पांच दिन से आकर पड़ा हुआ था। कल तुम लोगों को उतारकर ही चला गया था न? सोदपुर उनके घर गया था। बड़े घबरा रहे थे बेचारे। खूब डांटा बेखबर घूमने के लिए। बोले, "अविलंब पासपोर्ट बनवा लो।" सुरेश्वर ने फिर भी अविश्वासपूर्वक कहा, "कहां, देखूं तो आपके वह सारे कागजात।"
"बिना दिखाए विश्वास नहीं करोगे?"
"ऊहुं।"
"अच्छा दिखा दूंगा। जानता हूं तुम और चंचला दुःखी होगे लेकिन मुझे इस बात की उम्मीद नहीं थी कि यह सब इतनी जल्दी होगा। वैसे तो होने की ही उम्मीद नहीं थी।" सुरेश्वर गंभीर होकर बोला, "हम लोग दुःखी होंगे? हुं। मैं तो उम्मीद कर रहा था कन्यादान आप ही करेंगे।"
"ये लो। देखो दोस्त हो यही अच्छा है। दामाद बन रहे हो यहां तक भी ठीक है पर मैं पूरी तरह से ससुर बनना नहीं चाहता हूं।''
"तब फिर आप उस समय निश्चित रूप से नहीं रहेंगे?"
"हां, एक तरह से तो निश्चित ही है।"
"तो जितने दिन भारत की मिट्टी पर हैं हमारे साथ ही रहिए।"
"रहना क्या जरूरी है?"
"हां। जाएंगे कैसे, पानी के रास्ते या हवाई जहाज से?''
"सुना है हवाई जहाज से जाने की व्यवस्था हुई है।''
मिनट भर चुप रहने के बाद सुरेश्वर बोला, "अभिमन्यु दा एक बात कहूं?''
"इतना हिचक क्यों रहे हो?'' अभिमन्यु हंसा।
"कह रहा था... '' कुंठा छोड़ सुरेश्वर बोला, "तो क्या हार मानकर भाग रहे हैं?"
भीतर से कांप उठा अभिमन्यु फिर फीकी हंसी हंसकर बोला, "दुनिया में आकर कितने लोग हैं जो जीत अर्जित करके जा पाते हैं? कोई हारकर कोई मार खाकर भागता है।''
''बात को टालिए नहीं अभिमन्यु दा। मैं बातों के आर्ट को नहीं समझता हूं। मैं साफ बात का आदमी हूं। अगर भाभीजी को न देखता तो मुझे यह प्रश्न पूछने की जरूरत न होती। लेकिन उन्हें देखने का सौभाग्य मुझे हुआ है और तभी से ये सवाल मेरे जेहन में उठ रहा है। आज आपके देश छोड़ने के संकल्प से अवाक् होकर सोच रहा हूं क्या उन्हें आपने संपूर्ण रूप से त्यागने का विचार कर लिया है?''
अभिमन्यु शांत स्वरों में बोला, "त्याग या ग्रहण करने का प्रश्न तो बहुत दिन हुए खत्म हो चुका है सुरेश्वर।"
"न:, नहीं हुआ है।" जोर डालते हुए सुरेश्वर ने कहा, "क्या इंसान इतना सस्ता है अभिमन्यु दा जिसे आप इतना आसानी से छोड़ दें? मैंने तो देखा, उन्हें छोड़ देने से नुकसान नहीं होगा, ऐसी महिला वह नहीं हैं। उनके बारे में किसी तरह की चिंता न करके, बिना झिझक इस तरह से जाना आपको परेशान नहीं करेगा?"
हताशभाव से अभिमन्यु ने कहा, "अब मेरे लिए करने को बचा क्या है सुरेश्वर? वह चल रही है अपने रास्ते, भंयकर तीव्र है उसकी गति। उस रास्ते से उसे खींच निकालने की क्षमता मुझमें नहीं है। इसीलिए मैंने अपने जीने का रास्ता चुन लिया है।"
"उसे भी बचाइए। उसे ध्वंस के रास्ते से जबर्दस्ती खींचकर निकाल लाइए।''
"अब ऐसा क्या हो सकता है रे पगले?"
सुरेश्वर ने पूछा, "स्नेह, प्रेम, ममता, क्षमा जैसे शब्द तो क्या अर्थहीन हैं अभिमन्यु दा? या कि समाज-व्यवस्था के थर्मामीटर का पारा है? व्यवस्था के ताप के अनुसार घटता बढ़ता है। हमारे समाज में तो पुरुषों को हजारों गलियां माफ हो जाती हैं और लड़कियों से जरा सी गलती हुई तो उन्हें त्याग दिया जाता है, निकाल दिया जाता है। हमेशा यही व्यवस्था चालू रहेगी क्या? क्या हम कभी सोचेंगे तक नहीं कि पुरुष जाति के लिए यह एक लज्जाजनक बात है? लड़कियों को अपराध की कड़ी सजा और पुरुषों को क्षमा का निर्देश देने वाले कौन हैं शास्त्रकार? मुझे तो लगता है वह औरतें ही होंगी। वरना इस तरह से पुरुषों के चेहरे पर कालिख न पोत सकती। तो क्या हम वही कालिख पोते बैठे रहें?''
अभिमन्यु ने सोचकर धीरे से कहा, "शायद अब न रहे सुरेश्वर। शायद व्यवस्था में परिवर्तन आए। एक-एक युग के प्रयोजन के मुताबिक एक-एक तरह की कानून की सृष्टि होती है और अगले युग में जब तक वह कानून अचल नहीं हो जाता है तब तक चलता ही रहता है। विकृत विकलांग आकृति में भी चलता रहता है। इसीलिए आज इस समाज व्यवस्था को कोई अस्वीकार कर रहा है, कोई इसका मजाक बना रहा है। और कोई पुर्खों की विधि व्यवस्था मानकर हृदय से लगाए बैठा है। लेकिन अब वह दिन दूर नहीं। युग के प्रयोजन को देखते हुए नए कानून की सृष्टि होने लगी है।"
"तब फिर आप इस नए युग के पास कदम मिलाकर नहीं चलना चाहते हैं अभिमन्यु दा?''
अभिमन्यु ने खिड़की से बाहर देखा। बाहर दोपहर ढल रही है, संध्या के आगोश में स्थान पाने के लिए। हल्की चल रही हवा, सामने खड़े एक बड़े पेड़ के पत्तों को हौले-हौले हिला रही थी। उधर देखते हुए अभिमन्यु ने कहा, "वहीं तो मैंने हार मानी है सुरेश्वर। अपने मन को परखकर देखा, वहां उसे मान लेना मुश्किल नहीं था लेकिन मेरी मां? मेरा सारा परिवार? उन्हें मैं कैसे दुःख पहुंचाऊं? हम तो ममता के जाल में बुरी तरह से उलझे हुए हैं सुरेश्वर।''
सुरेश्वर बोला, "कोई अगर गलत बात के लिए दुःख झेले तो उसे कौन बचा सकता है? आज भी जो लोग जीवन को पुराने नजरिए से देखना चाहेंगे, दुःख तो उन्हें होगा ही। कभी हमारे समाज में लड़कियों का गाना गाना भी निंदनीय था। आज यह चीजें हास्यकर है। नृत्यु है, अभिनय है, यह भी इसी तरह से जगह बना रही है-देख लीजिएगा।"
धीरे से अभिमन्यु बोला, "जानता हूं। धीरे-धीरे समाज इन्हें रास्ता छोड़ देगा लेकिन इसके लिए कुछ संघर्ष होगा, जानें जाएगीं, सुख का बलिदान होगा।"
"इसे कहते हैं। निश्चेष्टवाद।"
''शायद।"
"टालिए नहीं। आप तो रिश्तेदारों, समाज को छोड़कर दुनिया, के दूसरे छोर पर चले जा रहे हैं तब फिर क्यों... '' अभिमन्यु हंसने लगा। बोला, "तुम सिर्फ मेरा पहलू ही को क्यों देख रहे हो? एक और पहलू भी तो है? उधर भी तो इच्छा अनिच्छा का प्रश्न है।"
"इसी जगह पर तो मेरा आपसे विचार मेल नहीं खा रहा है। मैं अगर आग में कूदना चाहूं, रोकेंगे नहीं आप? चंचला अगर जहर खाना चाहे, खाने देंगे? फिर... जो आपका सबसे ज्यादा प्यारा है, जिसके प्रति आपका कर्त्तव्य का दायित्व सबसे ज्यादा है, उसे ही पतन के रास्ते पर धकेल देंगे?''
"यहां भी तो बालिग नाबालिग का प्रश्न उठता है भाई।"
"यह सब आपकी लोगों को मूर्ख बनाने वाली बातें हैं।" कहकर नाराज होकर सुरेश्वर उठ खड़ा हुआ।
लेकिन वह ज्यादा देर तक गुस्सा न रह सका।
रात को सोते वक्त फिर बहस छेड़ बैठा।
वैसे तो हंसमुख हल्के स्वभाव के इंसान है लेकिन जब बोलता है तब चिंतनशील व्यक्ति जान पड़ता है। अभिमन्यु विरोध कम ही कर रहा था। स्वर भी धीमा था। सुरेश्वर अकेले ही वाद-प्रतिवाद करता रहा, "इंसान क्या इतना ही सस्ता है अभिमन्यु दा? जो जरा गंदा हुआ, धूल पड़ी और रिजेक्ट कर दिया? आज के युग में हमारा जीवनबोध, हमारा सत्यबोध, क्या अतीत के अंधकार में रास्ता टटोलता फिरेगा? इंसान एक मूल्यवान वस्तु है, इतनी सी बात जान जाए तो दुनिया भी ढेर सारी समस्याएं कम हो जाएं।"
सुरेश्वर कहता रहा, "जो युग हमारे दरवाजे तक आ गया है उसे अस्वीकार करने का कोई उपाय तो है नहीं। जिस सभ्यता को हम निमंत्रण देते आए हैं, उसका दायित्व अब न लेना कहां तक ठीक होगा?"
अभिमन्यु बोला, "देखो सुरेश्वर, मैं मानता हूं इंसान समाज का एक अंश है लेकिन केवल इतना ही नहीं है। हर किसी व्यक्ति का एक संपूर्ण अलग जीवन है और हमारा कारोबार उसी को लेकर है।"
सुरेश्वर कुछ नाराज होकर बोला, "आप तो बहुत हिंदू शास्त्र मानते हैं, क्या इस बात को नहीं मानते हैं कि पति-पत्नी का संबंध जन्म जिंदगी का हैं।"
"मैं यह नहीं मानता हूं कि पति-पत्नी का रिश्ता जन्म जिंदगी का है।"
"नहीं मानते हैं?" सुरेश्वर ने बड़ी-बड़ी आंखों फाड़कर देखा।
"नहीं। इसकी वजह ये है कि हिंदू शास्त्रों में बहुविवाह की जो प्रथा है उसे भी मैं नहीं मानता हूं। पर यह जरूर मानता हूं सुरेश्वर कि अगर जन्म जन्मांतर जैसे संबंध की कोई बात मानी जा सकती है तो वह है पहला प्यार और पहला प्रेमास्पद।" मुस्कराकर आगे अभिमन्यु ने कहा, "दूसरे जीवन में जिससे भेंट हो जाए तो लगे कि 'यही है वह'। जैसे चंचला को देखकर तुम्हें लगा।"
"सुना था आप लोगों ने 'लवमैरिज' किया था। अवश्य ही तब पहली बार देखते ही लगा होगा 'यही है वह'। तब फिर? वह लव, नुकसान के खाते में कैसे चला गया? वह प्रेम का बंधन टूट कैसे गया?"
पल भर चुप रहने के बाद अभिमन्यु ने कहा, "कोई भी 'लाभ' नुकसान के खाते में नहीं चला जाता है सुरेश्वर। सचमुच का प्यार टूटता नहीं है केवल प्रतिकूल परिवेश में फंसकर उसका रूप बदल जाता है। लेकिन वह क्या खत्म हो जाता है? मैं क्या फिर कभी किसी को प्यार कर सकूंगा?"
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