नई पुस्तकें >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
35
सुरेश्वर कुंठित हुआ। लज्जित होकर बोला, ''लेकिन सारे दिन में आज मुझे तो वक्त नहीं मिल पाएगा।''
''ट्रेन तो रात को है?''
''वह तो है।''
''अगर मैं स्टेशन पहुंचा दूं तो तुम्हें कोई एतराज है?''
''एतराज? कैसी बात कह रही हैं? लेकिन आप समय निकाल सकेंगी?''
''यह मेरे ऊपर छोड़ दीजिए। लेकिन मुझ पर विश्वास कर सकेंगे न?''
''विश्वास मानें?''
''मान लीजिए आखिरी वक्त पर मैं इसे छिपा लूं-आपको न ले जाने दूं?''
सुरेश्वर ने उसके चेहरे पर स्वच्छ स्थिर, निश्चित दृष्टि डालकर कहा, ''ऐसा आप न कर सकेंगी।''
''न कर सकूंगी?''
''नहीं।''
सारे दिन मंजरी ने ढेरों खरीददारी कर डाली। अपने हृदय का आवेग प्रकट करना चाहती थी शायद उपहार के माध्यम से। तीन बड़े-बड़े नए सूटकेस भर डाले।
लेकिन स्टेशन में अभिमन्यु भी हो सकता है, और हो सकता है क्यों, होगा ही क्या मंजरी ने सोचा नहीं था? ऐसे चौंकी क्यों? तो फिर अभिमन्यु को देखकर-न?
लोग ही लोग-लोगों से पटा पड़ा था स्टेशन विक्टोरिया टर्मिनल की भीड़ रथयात्रा की भीड़ लग रही थी।
फोर वर्थ का एक कमरा रिजर्व किया था, किसी तरह से भीड़ ठेलते हुए बाहर लगे चार्ट में नाम ढूंढकर चढ़ा गया।
चंचला रो रही थी। मंजरी को छोड़ ही नहीं रही थी। मंजरी उसे अपने बांहों के घेरे में लेकर चुपचाप बैठी थी। बातों से सांत्वना देना उसे आता नहीं है। फिर जानती थी यह सब सामयिक है ट्रेन छूटते ही चेहरा खिल उठेगा। चंचला जैसी लड़कियां, सहज ही में रो लेती हैं और हंसती भी जल्दी हैं। ऐसी लड़कियां सुखी होती हैं।
अभिमन्यु से क्षण भर के लिए आंखें मिली थीं। टैक्सी से उतरते ही। चौंक उठी थी मंजरी। लेकिन चौंकने का क्या सचमुच कोई कारण था?
यह दुर्घटना क्या आकस्मिक थी? अप्रत्याशित थी?
सुबह से क्या इसी मधुर आशा को लिए फिर नहीं रही थी मंजरी? चंचला को स्टेशन पहुंचाने के प्रस्ताव के पीछे भी यही चिंता नहीं थी क्या? इसीलिए तो सारे दिन विहल थी वह।
यहां से भागने का प्रश्न नहीं उठता है।
अभिमन्यु और सुरेश्वर प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहे थे। जब तक ट्रेन खड़ी है चंचला अच्छी तरह से मौसी से विदा ले ले। अभिमन्यु क्या सोच रहा है यह समझ पाना आसान नहीं। मर्द होते ही हैं ऐसे-दिल की बात दिल में रख लेते हैं। उनके चेहरे पर हृदय के भाव जल्दी उभरते नहीं हैं।
मंजरी सोच रही थी, ट्रेन के चलते ही ये लोग प्लेटफार्म पर टहलना बंद करके ट्रेन पर चढ़ेंगे। अगर मंजरी ट्रेन से उतरना भूल गई? क्या ये लोग उस भूल को सुधारने का प्रयास करेंगे? ये लोग क्या कहेंगे, ''जाओ, अब तुम उतर जाओ तुम्हें यहां रहने का अधिकार नहीं है। तुम्हारे पास टिकट नहीं है। स्वाभाविक जीवन पथ पर चलने का हक तुमने खो दिया है।''
वार्निंग बेल बजी।
प्लेटफार्म में खलबली मची।
मंजरी चंचला के हाथ से अपना हाथ छुड़ाते हुए सस्नेह बोली, "ऐसा सुंदर दूल्हा मिल रहा है, पैसे वाली सास पाने जा रही है, तब फिर क्यों रो रही है?''
"तुम भी चलो छोटी मौसी।''
"मैं? मैं कहां जाऊंगी रे? तेरी नौकरानी बनकर?" हंसने लगी मंजरी। उसे लगा, वह पहले वाली मंजरी ही है। साधारण गृहवधू की भांति एक निकट आत्मीय को ट्रेन पर बैठाने स्टेशन आई है, विच्छेद व्याकुल स्नेहातुर हृदय लिए। घर लौटकर आल्मारी से शराब की बोतल निकालकर नहीं बैठेगी, नशे से चूर फर्श पर पड़ी-पड़ी रोएगी नहीं, या फिर कल ही आंखों में काजल लगाकर, शालीनताहीन पोशाक पहनकर स्टूडियो में हाजिरी नहीं लगाएगी। मानो वह चित्रतारिका नहीं, केवल मंजरी है।
लेकिन यह सुख-सपने कितनी देर के लिए? चंचला ने झुककर पैर छूए। उतरने का संकेत। जल्दी से उतरना पड़ा मंजरी को। और उसके बाद-ट्रेन हिली तो आराम से दोनों चढ़े। अभिमन्यु और सुरेश्वर।
मंजरी से अभिमन्यु की आंखें मिली नहीं? क्षण भर के लिए? मिली थीं। लेकिन अभिमन्यु की उन आंखों में, क्या कोई भाषा थी? या केवल पथराई सी आंखें थीं? पथराई आंखों से हृदय की वाणी फूटती है।
लेकिन क्या पथराई आंखें इतनी उदास इतनी कोमल होती हैं?
बृहत अजगर का शरीर केंचुल छोड़कर मानो सरसराता हुआ आगे बढ़ गया। गति उसकी द्रुत से द्रुततर होने लगी हर पल। सिर झुकाए जनता के बीच मंजरी आगे चलने लगी शिथिल कदमों से। ज्यादा कुछ नहीं सोच रही थी-बस यही सोच रही थी कि ट्रेन के चक्कों के नीचे जाने के लिए कितने साहस की जरूरत है? कितने लोग तो ऐसा करते हैं।
मंजरी में साहस की बड़ी कमी है।
साहस नहीं हुआ बिना दिकट ट्रेन में बैठे रहने का, ट्रेन के पहिए के नीचे आ जाए वह साहस भी न बटोर सकी। केवल साहस कर एक टैक्सी पर चढ़ बैठी जिसके ड्राइवर को देखकर डर लगना चाहिए था।
क्या डर गई थी वह?
वरना घर पहुंचते ही उस तरह से दौड़ती सीढ़ियां क्यों चढ़ने लगी? अगर डर गई थी तो कमरे में आकर बिस्तर पर लोटपोट कर इस तरह से हंसने क्यों लगी? आंखों से झरती हंसी।
इस हंसी को शब्दों में पिरोया जाए तो यह वाक्य बनते हैं, "अब और क्यों? अब किस बात की आशा? सब कुछ तो खत्म हो गया?''
जबकि किस बात की आशा?
केवल फिर से एक बार देख पाने की आशा? शायद हां-उसी आशा के मध्य, अचेतन चेतना के द्वारा, जरा-जरा करके संचित हो उठी थी और भी अधिक आशा। अनजाने में बन गया था एक आश्वासन की भीत।
एकबार मुलाकात होते ही शायद अब कुछ ठीक हो जाएगा। मंजरी की यह बदसूरत छद्यवेश उतर जाएगा, हवा का झोंका उड़ा ले जाएगा। गलतफहमियों के बोझ को।
कुछ नहीं हुआ।
कुछ भी नहीं हुआ।
अभिमन्यु से भेंट हुए-स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष। हवा में लुप्त हो गया वह परम क्षण। धूल उड़ा ले गई स्वप्न प्रासाद की दीवार को। दुनिया जैसी चल रही थी वैसी ही चलती रही, मंजरी जहां थी वहीं खड़ी रह गई।
तब फिर खत्म होने के लिए बचा क्या?
हंसते-हंसते रोने लगी मंजरी। फूट-फूटकर रोने लगी। सिर कूट-कूटकर रोई। रोते-रोते उठ बैठी मंजरी। खाट से उतरकर दीवार की आल्मारी का पल्ला एक झटके में खोल डाला उसने।
बंबई शहर में शराब पर भले ही पाबंदी हो, जिन्हें चाहिए उनके घरों में हमेशा ही मौजूद रहती है।
जरूरत?
जरूरत नहीं तो और क्या? अपने आपको भुलाने की जरूरत तो रहती है इंसान को? कुछ दिनों पहले सोचा था, "बस, अब और नहीं।" आज सोचा, 'नहीं, अभी चाहिए।"
जाए-सब कुछ चला जाए। जब कुछ रहा ही नहीं, तो बाकी कुछ रखने की कोशिश क्यों? अगर तरल अग्नि भीतर डालने से अंदर की आग धधक उठती है, जलन शांत होती है तो हर्ज क्या है? जहर से जहर उतरे-क्या फर्क पड़ता?
अरे! यह क्या?
यह तो बिल्कुल खाली है। दोनों बोतलों को उलटकर झाड़कर देखा, कुछ नहीं था। कब खत्म हो गया? नहीं, नहीं, मंजरी ने खत्म नहीं किया है। जरूर उस नौकर का काम है ये। चोरी की है। चुराकर ऊंचे दामों में बेचा है।
दोनों बोतलों को उठा-उठाकर पटक दिया मंजरी ने। झनझनाकर कांच के टुकड़े चारों तरफ बिखर गए।
आवाज सुनकर वर्दी पहना नौकर केशवन दौड़ा आया। स्तब्ध खड़ा रह गया। ऐसा दृश्य, पहले कभी इस कमरे का देखा नहीं था।
"निकल जाओ, अभी निकल जाओ, डाकू बदमाश चोट्टे।"
फैले कांच के टुकड़ों पर ही लेट गई मंजरी, शराब पिए वगैर ही पक्के शराबियों की तरह।
क्लांत चेहरा, स्निग्ध हंसी हंसकर अभिमन्यु ने कहा, "अब तो हे बंध विदा दो।''
सुरेश्वर व्यस्त भाव से बोला, "मतलब? अभी कैसी विदाई? जब तक शुभकार्य निर्विष्य समाधान नहीं हो जाता है तब तक यहां से जाकर देखिए तो सही।"
"शुभकार्य?" अभिमन्यु हंसा, "वह तो तुम्हारे पत्रे के मुताबिक होना है और बुआजी से मालूम हुआ है कि अभी लगभग पंद्रह दिनों की देर है।"
"यह पंद्रह दिन हमारे साथ रहना क्या कष्टकर होगा?"
"बड़े पागल हो। मैं तो यहां रहूंगा ही नहीं। मतलब इस देश में।"
"इस देश में नहीं रहेंगे? तो कहां जा रहे हैं?"
"अरे भाई, बहुत दिनों से इच्छा थी दुनिया का दूसरा पहलू कैसा है एक बार देख आऊं। इच्छा ही थी, हिम्मत तो थी नहीं। पैसा भी नहीं था। इसीलिए यही कोशिश कर रहा था कि उन्हीं के पैसों से उनका देश घूमने जाऊं। सात घाट का पानी एक घाट में कर, हजारों जगह दरख्वास्त डाले यह सोचकर बैठा था कि कुछ होगा नहीं। अचानक देखा कि मंजरी आ गई है नियुक्ति-पत्र सहित। अतएव अगले हफ्ते ही रवाना हो रहा हूं।"
हंसते-हंसते मानो अभिमन्यु ने सुरेश्वर की फांसी की सजा सुना दी।
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