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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

29

यह दूसरी बात है।

ये तो ठंडे दिमाग से नरहत्या है।

एक दिन लड़ाई में जय पराजय घोषित हुआ।

बंबई जाने वाली एक ट्रेन के फर्स्टक्लास के कंपार्टमेंट में चंचला दिखाई पड़ी मंजरी के बगल में।

चंचला का उतरा चेहरा, गालों पर सूखे गये आंसुओं के दाग, और आंखों में उत्साह का प्रकाश।

और मंजरी के?

उसे देखकर कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

मंजरी जो ठहरी प्रथम श्रेणी की अभिनेत्री।

जो लोग उसे ले जा रहे थे वे हर स्टेशन पर उसकी खोज खबर लेने आ रहे थे।

नहीं, उन्हें चंचला के लिए किसी तरह का आश्चर्य नहीं हुआ।

ऐसे छोटे मोटे रिश्तेदार तो बहुत लोगों के साथ आते हैं। ट्रेन दौड़ चली, उसके पीछे-पीछे एक डर खदेड़ता आने लगा।

लड़की भगाने की सजा क्या है?

लेकिन डर के साथ-साथ एक भरोसे का अहसास भी था। अभियोग कौन करेगा? सुनीति न? तो तब वह दिखाई तो पड़ेगी। पता नहीं आएगी भी या नहीं। न जाने क्या नियम है।

बंबई शहर।

यहां का चित्रजगत।

शायद इसी को कहते हैं चित्रजगत।

लेकिन इतने दिनों से मंजरी थी कहां? वह भी तो चित्रजगत ही था। लेकिन इसकी तुलना में वह तो नाबालिग है। शिशुमात्र। ओफ, कैसी उज्ज्वलता, आंखों को चकाचौंध कर दे वह प्रकाश, और श्वासरोधी कर्म व्यस्तता, और सीने की धड़कन ठहर जाए देखकर वैसी रुचिहीनता।

यह कहां आ गयी मंजरी?

कहां ले आई बेचारी चंचला को?

याद आया वनलता का निषेध, याद आया निशीथ राय की व्यंगोक्ति, "आज आप मुझे लौटा रही हैं मंजरीदेवी लेकिन बंबई आपको लौटाएगा नहीं।"

कैसी भयंकर भविष्यवाणी।

जीवन की सारी शक्ति को दांव में लगाकर लंबे दो वर्षों से जिस बांध की रक्षा करती आई थी मंजरी यहां आते ही दो दिन में वह बांध टूटने लगा। यह कैसा जानलेवा आकर्षण है?

नहाने आई तो मगरमच्छ के मुंह में पांव पड़ गया। अब किसमें दम है जो उसकी रक्षा करे?

जो वस्तु सोने के डिब्बे में रखा सात राजाओं का धन एक बहुमूल्य माणिक है, उसी वस्तु को लेकर छीना झपटी मची रहती है।

शराब न पीना यहां एक हास्यकर बात है। दैहिक पवित्रता की यहां उदारता पूर्वक कीमत लगती है।

रात को तो कोई दिशा ही दृष्टिगोचर नहीं होती।

हर दिन घर लौटकर देखती कि चंचला सो गई है।

और आश्चर्य तो इस बात का था कि अभी तक लड़की चुराने के नाम से वारंट नहीं आया मंजरी के पास।

सुनीति को क्या हो गया है?

एक लड़की के खो जाने का भी उसे दुःख नहीं, चिंता नहीं।

घर पर रात का खाना।

इसे तो लगभग भूल ही गई थी मंजरी। क्लांत अवसन्न नशे में चूर शरीर को किसी तरह से घसीटकर लाकर बिस्तर पर डालना ही काम था।

फिर भी नींद नहीं आती। बिस्तर तक पहुंचने से पहले लगभग, तकिए पर सिर रखते ही सो जाऊंगी लेकिन न जाने क्या होता? सिर के भीतर लाखों लाखों करताल बजते रहते, सारी रगें टपकती रहतीं, खून का एक-एक कतरा थिरकता रहता। नींद आते-आते तीसरा प्रहर हो जाता।

नींद खुलती बहुत दिन चढ़े। तब तक चंचला नहा धोकर नाश्ता करके उदास बैठी किताब के पन्ने उलटती रहती।

शुरू-शुरू में मंजरी लड़की के साथ समय बिताने की कोशिश करती थी लेकिन वह कोशिश हास्यकर सिद्ध हुई। समय कहां था? मोटी रकम का ऑफर देकर जिस सुंदरी अभिनेत्री को कलकत्ते से इतनी दूर खींच लाया गया है, उसें कौन समय देगा एक तुच्छ लड़की को साहचर्य देने के लिए?

मंजरी लाहिड़ी को यहां का समाज पंख की गेंद की तरह छीन रहे थे, उछाल रहे थे।

परिचालक नंदप्रकाशजी ने अपने फ्लैट के पास ही निरविभावक बंगाली अभिनेत्री को प्रतिष्ठित किया। वही उसके मां बाप बन बैठे।

कभी-कभी अपनी मोटर पर ले भी आते हैं वह। लाते हैं माने लाना पड़ता है। जैसे आज पड़ गया। नशे में धुत्त एक औरत पर नजर रखना जरूरी भी तो है।

यहां नंदप्रकाशजी की पत्नी पुत्र साथ रहते हैं जो इस बात को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं लेकिन वे इस दायित्व से पीछे हट भी तो नहीं सकते थे। लगभग पकड़कर मंजरी को सिढ़िया चढ़ाकर ऊपर ले आए और उसके फ्लैट के दरवाजे पर खड़ा करके बोले, "जा सकेंगी न? असुविधा तो न होगी?"

"नो नो थैंक्स।" लड़खड़ाती जुवान से कहकर मंजरी डगमगाती हुई कमरे में घुसकर सोफे पर बैठ गई। हत्की नीली रोशनी हो रही थी कमरे में, दीवार के पास एक सिंगलबेड पर चंचला सो रही थी-मानो वदिनी राजकन्या हो। उसकी तरफ देखकर अचानक फूट-फूटकर रोने लगी मंजरी जैसे एक दिन वनलता रोई थी।

अचानक चौंककर उठ बैठी चंचला। खाट से उतरकर छोटी मौसी छोटी मौसी कहते हुए मंजरी के पास पहुंचते ही छिटककर पांच हाथ दूर हट गई। पूर्व परिचित न होने पर भी बोधशक्ति के बल पर समझने में देर नहीं लगी कि छोटी मौसी के सारे शरीर से किस चीज की गंध आ रही है।

उसे हटते देख बिलख उठी मंजरी, "चली जा, चली जा। और दूर चली जा। मैंने शराब पी है, मैं शराबी हूं। समझी? समझ गई है न? मैं तेरी मौसी, प्रोफेसर अभिमन्यु लाहिड़ी की पत्नी मंजरी लाहिड़ी, मैं शराबी होकर आई हूं-खराब होकर आई हूं।"

लड़खड़ाई जुबान और भी ज्यादा लड़खड़ाने लगी। सोफे पर मुंह घिसने लगी मंजरी।

एक तरफ खड़ी बुरी तरह से कांप रही थी चंचला। बीती रात को, अचानक नींद खुल जाने पर इस दृश्य को देकर वह इतना घबरा गई कि भागकर नंदप्रकाशजी के घर, का दरवाजा पीटने लगी। इधर कुछ दिनों से उनकी पत्नी से उसकी मित्रता हो गई थी-भाषा के व्यवधान के बावजूद।

मध्यरात्रि में अच्छा खासा नाटक शुरू हो गया। नंदप्रकाशजी आए, उनकी पत्नी आईं, लड़के दरवाजे के आगे भीड़ लगाकर खड़े हो गए, नौकर-चाकर ताक-झांक करने लगे।

दूसरे दिन उतरा चेहरा, रुखे बाल लिए मंजरी नदप्रकाशजी के पास आई, "मुझे कुछ दिनों की छुट्टी दीजिए।"

छुट्टी के नाम से पहले तो चौंक उठे वे फिर शायद कुछ सोचकर चुप हो गए। एक मिनट तक मंजरी के चेहरे की ओर देखने के बाद बोले, "ठीक है? कितने दिन की? चार दिन?"

"हर एक हफ्ते के लिए नहीं मिल सकती है?"

"एक हफ्ते-सात दिन? इतनी छुट्टी चाहिए?"

"तबीयत बहुत खराब है?"

"अच्छा ऐसा ही होगा। शूटिंग प्रोग्राम चेंज करवाता हूं।"

चंचला के जीवन मे उत्सव का ज्वार आ गया। सारे-सारे दिन मंजरी टैक्सी में लिए उसे बंबई दिखाती फिर रही है। सुबह दोपहर शाम। म्लान उदास, डरी सहमी लड़की को प्यार और ममता में डुबो देना चाहती थी। उपहारों से भर देना चाहती थी। शाम को समुद्र के किनारे।

रोशनी से जगमगाता मेरिन ड्राइव।

झिलमिलाता साफ सुथरा-मानो स्वर्ग से उतरा परी राज्य।

अभिभूत चंचला की समझ में नहीं आ रहा था किधर देखे। थोड़ी दूर पर उनकी टैक्सी इंतजारी कर रही थी।

उस रात की भयावह घटना को जबर्दस्ती भुलाया है चंचला ने। जबर्दस्ती अपने को सहज बनाया है। फिर भी उसकी अंतरात्मा तृषित नयनों से हर रास्ते हर दुकान हर पार्क में यह ढूंढ़ा करती कि इतने लोगों के बीच एक परिचित चेहरा दिखाई पड़ जाए। क्या यहां कलकत्ते का कोई नहीं रहता है? क्या ऐसा कोई नहीं है जिसे चंचला पहचानती है और उसके साथ कलकत्ता लौट जा सके?

कलकत्ता पहुंचकर मां के पांव पकड़कर रो लेगी, माफी मांग लेगी। सब ठीक कर लेगी वह। ओफ, कौन जानता था छोटी मौसी इतनी भयानक और अजीब हो गई है। हालांकि इधर कुछ दिनों से बहुत बदल गई है, बिल्कुल पहले जैसी लग रही है फिर भी मन चंचला का परेशान ही था। बाहर निकलते ही उसका ध्यान भीड़ भरी सड़क में परिचित चेहरा छूने लगता।

लेकिन यहां के लोग कैसे यंत्रचलित से, कठोर चेहरे वाले हैं। सभी लगातार दौड़ रहे हैं। समुद्र तट पर घूमने फिरने आए हैं उसमें भी उन्हें जल्दी लगी है। आ रहे हैं जा रहे हैं, दो मिनट बैठे नहीं कि उठकर खड़े हो जाते हैं। आज सिर्फ वे दोनों ही काफी देर से बैठी थीं। वे देख रही थीं कि उनसे थोड़ी दूर पर हटकर दो आदमी भी काफी देर से बैठे थे इधर पीठ करके।

कुर्ता पहने एक व्यक्ति की पीठ चंचला की दृष्टि बार-बार आकर्षित-कर रही थी। लग रहा था उसके बैठने का ढंग तौर तरीका बड़ा परिचित है।

क्या वह आदमी उठकर इधर आएगा?

छोटी मौसी तो उधर देख ही नहीं रही है।

"तू जरा भी बोल नहीं रही है-क्या हुआ है रे चंचला?"

चौंककर बोली चंचला, "बोल तो रही हूं।"

"कहां? लगातार तब से आसमान की तरफ देख रही है।"

"छोटी मौसी।''

"हूं। क्या हुआ?"

"उस आदमी को देख रही हो?"

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