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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

30

"किस आदमी को?" कहकर चंचला चकित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगी मंजरी।

"वह उधर।''

पलक झपकने भर की बात थी। बिजली का झटका लगा हो जैसे... शरीर की रगों में बिजली दौड़ गई। दूसरे ही क्षण उसने मुंह फेर लिया। किस उम्मीद से चंचला उसे दिखाना चाहती है। स्वप्नलोक के किसी एक व्यक्ति के हावभाव से उस आदमी के थोड़े बहुत हावभाव मिलते हैं इसलिए? धुंधले अंधेरे में इधर पीठ किए बैठे एक आदमी की पीठ और बैठने की मुद्रा मिलती है इसलिए?

बंगाली तो हैं।

यहां कोई धोती कुर्ता कहां पहनता है। लेकिन इसके ये मतलब तो नहीं... 

चंचला पागल हो सकती है, मंजरी तो पागल नहीं है।

"मैं उधर जाऊंगी छोटी मौसी।"

"क्यों? नहीं-नहीं। उधर जाकर क्या करेगी?"

"कुछ नहीं। सिर्फ देखूंगी कि वह आदमी बंगाली है या नहीं।"

"होगा तो क्या हुआ? क्या फायदा होगा?"

"यूं ही। जाऊं ना छोटी मौसी।"

"अगर पुलिस के आदमी हुए तो?''

"क्यों?'' डर गई चंचला, "पुलिस के लोग क्यों होंगे?"

"तुझे पकड़ने के लिए, मुझे पकड़ने के लिए। तू घर से भाग आई है, मैं एक नावालिक लड़की को बहला फुसलाकर घर से बाहर निकाल लाई हूं-इसी अपराध में जेल जा सकती हूं।"

"वाह, मैं कहूंगी कि मैं अपनी मर्जी से आई हूं।"

"तेरी बात की कोई कीमत नहीं है। खबर मिलते ही तुझे पकड़कर घर ले जाएंगे और मुझे जेल ले जाएंगे।"

"और छोटी मौसी... देखो वे लोग चले जा रहे हैं।" और बिना कुछ पूछे अचानक चंचला तीर की तरह उधर दौड़ पड़ी। और समुद्री की हवा को बेधती, तितर-बितर करती उसकी आनंद मुखरित आवाज गूंज उठी, "छोटे मौसाजी।"

"चंचला!"

"मौसाजी!"

"तुम यहां? कब आई हो? बड़ी दीदी आई हैं?"

बहुत दिनों से कलकत्ते से बाहर होने की वजह से अभिमन्यु को चंचला के गायब होने की बात मालूम नहीं थी।

खुशी से बेकाबू चंचला सब कुछ भूल गई थी लेकिन अभिमन्यु का प्रश्न सुनते ही अकचका गई। अपने को संभालकर बोली, "नहीं मां नहीं आई हैं। आप कब आए हैं?"

यद्यपि अभिमन्यु के बगल वाले व्यक्ति को संपूर्ण रूप से अनदेखा करके ही वार्तालाप चलता रहता है।

"मैं? यहां आए तो सिर्फ दो दिन हुए हैं लेकिन कलकत्ता छोड़े काफी दिन हो गए हैं। और बताओ, घर में सब अच्छी तरह से तो हैं?''

"हां।"

"तुम यहां अकेली कैसे घूम रही हो? किसके साथ आई हो?"

चंचला ने क्या कहा समझ में नहीं आया।

अभिमन्यु ने भी उसके उत्तर पर विशेष ध्यान नहीं दिया। उसने सोचा सुरेश्वर की उपस्थिति के कारण इस तरह से शर्मा कर उत्तर दे रही है।

"कहां ठहरी हो?"

"क्या पता? यहां के रास्तों का नाम याद नहीं रहता है।" अभिमन्यु हंसकर बोला, "ठीक ही कह रही हो। कमला लोगों के साथ आई हो क्या? या अपनी मोटी बुआजी के साथ?"

"नहीं, उन लोगों के साथ नहीं।"

"तब फिर?" अभिमन्यु की आवाज में आश्चर्य था।

"मैं? मैं आई हूं छोटी मौसी के साथ?"

"किसके साथ?" अपने कानों पर विश्वास न कर सका अभिमन्यु। इसीलिए उसने प्रश्न पूछा।

हिम्मत बटोरकर चंचला एक ही सांस में बता गई, "छोटी मौसी के साथ। वह, वहां! वहां बैठी हैं छोटी मौसी... अरे, कहां गई?''

फिर पागलों की तरह पीछे की तरफ भागी चंचला।

सुरेश्वर ने अवाक् होकर पूछा, "मामला क्या है अभिमन्यु दा?"

अभिमन्यु अपने सामने फैले सूनेपन की तरफ देखकर अजीब सी हंसी हंसा, "शायद भाग्यचक्र।"

"मौसाजी।'' वापस लौट आई चंचला। रुंधी आवाज में बोली।

"कहीं भी नहीं दिखाई पड़ रही हैं। टैक्सी वाला भी गायब है।"

"टैक्सी? वह कहां खड़ी थी?''

"उस जगह पर खड़ी थी।"

मन की समस्त शक्ति संग्रहित कर, कंठ स्वर को शांत रखकर अभिमन्यु बोला, "तुम्हें छोड़कर भाग गई वह?''

इस शांत व्यंगोक्ति पर अचानक चंचला की आंखें भीग उठीं। बेचारी ने गर्दन झुका ली।

अभिमन्यु चंचला की मानसिक हालत को समझ रहा था लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी कि चंचला मंजरी के पास कैसे आई। वह भी कलकत्ते से इतनी दूर। क्या अचानक सुनीति इतनी प्रगतिशीला हो गई हैं? या शुरू से ही अभिमन्यु से छिपाकर मंजरी से संपर्क बनाए रखा था उन्होंने?

यही संभव है।

इसके अलावा और क्या होगा।

मंजरी के बारे में सारी चिंताएं मन से हटा देने पर भी, सपने में भी अभिमन्यु यह नहीं सोच सकता था कि दीदी की लड़की को चुराकर ले आई है मंजरी।

"तुम लोग रहती कहां हो? माने, पता क्या है?''

कितना भी अजीब हालात क्यों न हो, इस प्रत्याशित घटना के आघात से उसका खून कितना ही क्यों न उछलकूद करे, इस लड़की को बह, रात के वक्त यहां अकेली छोड़कर चले जाने की बात सोच ही नहीं सकता था। जबकि मंजरी ने यह काम किया कैसे? हो सकता है इसके अलावा वह कर भी क्या सकती थी?

चंचला रुंधी आवाज में बोली, "पता नहीं।"

"तुम्हें पता नहीं मालूम है? कितने दिन हुए हैं आए?''  

"बहुत दिन। दो तीन महीने।"  

"पता क्यों नहीं मालूम है ?"

"बहुत मुश्किल मुश्किल शब्द हैं-भूल जाती हूं।"

"घर में चिट्ठी नहीं लिखती हो?"

खिसककर रो उठी चंचला, "नहीं।"

कुछ पल चुप रहने के बाद गंभीर भाव से अभिमन्यु ने पूछा, "घर से भाग-वाग तो नहीं आई हो?"

इस बात का कोई उतर नहीं मिला।

अनरुकी हिचकियां ही इसका उत्तर थीं।

"क्यों आईं?"

मूर्ख लड़की डर के कारण एक झूठी बात बोल बैठी। बोली, "छोटी मौसी के लिए मन उदास हो रहा था, उन्हें देखने गई थी। वह बोली, "बंबई चलेगी?"  

"उसने कहा और तुम चली आईं? बड़ी दीदी माने तुम्हारी मां राजी हो गईं?"

फिर मुंह पर ताला पड़ गया चंचला के। बहुत सारे प्रश्नवाण छोड़ने पर भी नहीं।"

अभी तक सुरेश्वर तीक्ष्ण दृष्टि और तीखा कर्ण का प्रयोग कर इन दोनों की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था। अब दबी आवाज में बोला, "मामला क्या है अभिमन्यु दा?''

"पूरी बात तो मेरी समझ में भी नहीं आ रही है। जितना समझ सका हूं तुम्हें बताने में वक्त लग जाएगा।"

सुरेश्वर समझ गया कि अभिमन्यु बात टाल रहा है। लेकिन बात की गहराई तक तो जाना ही होगा। एक शब्द उसके कानों में कांटे की तरह चुभ रहा था। उसने साफ-साफ चँचला की आनंद उत्फुल्ल पुकार सुनी थी, 'छोटे मौसाजी.' उसके बाद सुना था 'छोटी मौसी के वहां..'

यह रहस्य क्या है? कौन हैं छोटी मौसी?

पति परितक्तया? स्वामी त्यागिनी? या कि अभिमन्यु का एकाधिक विवाह हुआ है?

अभिमन्यु को घेर एक रहस्य छिपा है इस बात का संदेश सुरेश्वर को बहुत बार हो चुका था, आज लगता है उस पर से पर्दा उठ जाएगा।

सुरेश्वर को निरुत्तर देख अभिमन्यु ने फिर कहा, "मामला क्या है यह मैं तुम्हें आराम से समझाऊंगा अभी तो इस बालिका को यथास्थान पहुंचाने की व्यवस्था करनी है।"

"लेकिन ये तो पता ही नहीं जानती है।''

"यही तो मुश्किल है। यहां से कितनी दूर है चंचला?''

उदास भाव से चंचला बोली, "बहुत दूर।"

"मोटर से चले तो तुम रास्ता पहचनवा सकोगी?''

"नहीं पहचनवा सकूंगी" कहते हुए आत्मसम्मान को ठेस लगेगा इस लज्जा से गर्दन झुकाकर चंचला बोली, "हां, सकूंगी।"

यहां तो सिर्फ मौसाजी नहीं, सामने एक युवक भी खड़ा है। सोलह साल की लड़की को अपनी मूर्खता पर शर्म आ रही थी। उसने मकान का पता रट क्यों नहीं लिया था? ऐसी मूर्खों की तरह रोने क्यों बैठ गई?

"सुरेश्वर इस काम की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंप रहा हूं भाई।"

"अरे? और आप?"

"मैं होटल वापस जा रहा हूं। तुम एक टैक्सी करके इसके बताए डाइरेक्शन से... '' चंचला जल्दी से आगे बढ़कर अभिमन्यु का एक हाथ पकड़ लेती है। उस पकड़ में एक कातर अनुरोध था। अभिमन्यु ने जरा विचलित भाव से उसके सिर को थपथापते हुए प्यार से कहा, "डर किस बात का है चंचला? ये तुम्हारे बड़े भाई जैसे हैं। और देखना, अभी एक ही मिनट में ऐसी दोस्ती हो जाएगी... ''  

"आपके न जाने का कारण है अभिमन्यु दा?''

बात को टालत हुए अभिमन्यु बोला, "कारण कुछ भी नहीं है, यूं ही तबीयत कुछ ठीक नहीं है-लग रहा है सिर दर्द कर रहा है। चलो मैं तुम लोगों को टैक्सी तक छोड़ दूं... टैक्सी के लिए कुछ दूर तक चलना होगा... ''

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