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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

28

सहसा मुंह उठाकर चंचला बोली, "छोटी मौसी, तुम मुझे अपने पास रहने दोगी?''

"सर्वनाश!" सिहर उठी मंजरी। बोली, "ऐसी बात मुंह से न निकाल। मेरे पास भला इंसान रहता है?"

"क्यों नहीं रहेगा? तुमने कौन सी गलती की है? मुझे उनकी बातों पर विश्वास नहीं होता है।"

"किनकी बातों पर?"

"सभी की। सभी कहते हैं तुम बदल गयी हो छोटी मौसी। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ नहीं लग रहा है। ठीक वैसी ही हो तुम।" अपनी बात खत्म करके चंचला ने कमरे को गर्दन घुमाकर देखा।

इतनी सारी चीजें, यह घर-सब छोटी मौसी का है। सब कुछ अपनी कमाई से है? मानो विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन मंजरी बदली कहां है?

मंजरी गंभीर होकर बोली, "किसने कहा वैसी ही हूं? बदल गयी हूं-बिल्कुल बदल गयी हूं।"

"बिल्कुल नहीं।" चंचला अपनी बात पर जोर डालकर बोली, "ठीक वैसी ही हो तुम। मुझे अपने पास रहने दो न छोटी मौसी।" हाय अबोध लड़की।

हृदय मरोड़ उठा। मंजरी फिर भी हंसकर बोली, "मैं तो फिल्में करती फिरती हूं-मेरे पास रहकर क्या करेगी?"

"मैं भी फिल्मों में काम करूंगी।"

"सर्वनाश! ऐसी बात मुंह से मत निकाल चंचल... सपने में भी न सोचना। दुर्गा, दुर्गा।"

"वाह! खुद तो मजे में हो-तुम्हारा कितना नाम है, कितनी ख्याति है, कितना रुपया है।"

मंजरी ने चेहरे पर हंसी का मुखौटा चढ़ाकर क्लिष्ट स्वर में कहा, 'कितना दुःख, कितने कष्ट हैं... ''

"कैसा दुःख? दुःख किस बात का? सिर्फ अपने लोग तुम्हारी निंदा करते हैं, यही न?"

"तो वह क्या कम दुःख की बात है रे?''

"खाक! अपने लोग तो हर बात की निंदा करते हैं। वह कहता है... ," कहकर रुक गयी चंचला।

"कौन क्या कहता है?" मंजरी के स्वर में विस्मत था।

"माने, वह जो लड़का मेरे साथ आया है। मेरी सहेली का दादा है। वह कहता है 'पृथ्वी में ऐसा कोई काम नहीं है जिसकी रिश्तेदार निंदा नहीं करते हैं। देश की सेवा करो तो भी करेंगे, परोपकार करने पर भी करेंगे, दाता बन जाओ तो भी और संन्यासी बनकर चले जाओ तब भी निंदा करेंगे। डस तरह की निंदा की परवाह करने से काम नहीं चलता है।' वह कहता है, वह किसी की निंदा की परवाह न करके सिनेमा एक्ट्रेस के साथ शादी करेगा।"

उसकी वर्णना पर चमकृत होकर मंजरी बोली, "लड़का बड़ा महान है न रे?"

चंचला महोत्साह से बोली, "खू... ब! दूसरे लोग जिसे घृणा करते हैं वह उन्हें भक्ति करता है।"

चंचला के इस उत्साह के र्पाछे उसके फिल्मों में काम करने के उत्साह का कारण आविष्कृत कर जरा अनमनी हो गयी मंजरी। निःसंदेह एक वाचाल लड़के के फेर में पड़ी है चंचला। लेकिन मंजरी क्या करे? उसे रोकने का कोई उपाय उसके हाथ में है क्या?

फिर भी बोली, "अच्छा? अद्मुत लड़का है तो? बुला तो उसे, जरा देखूं।" चंचला उठकर खड़ी हो गयी, "बुलाती हूं।"

"रुक जरा, एक बात कह रही थी... ''

"कौन सी बात?" ठिठककर रुक गयी चंचला।

कौन सी बात? सचमुच कौन सी बात! जो बात पूर्णिमा में समुद्र में उठते उफान की तरह सीने में उफन रही है उसे कहने की क्षमता है क्या? शरीर की समस्त शक्ति को मुंह तक लाने पर भी सहज ढंग से पूछा नहीं जा सकता है, "क्यों रे तेरे छोटे मौसा का हाल कैसा है? आते हैं तेरे घर? तू जाती है उनके वहां?"

किसी तरह से न पूछ सकी। आश्चर्य देखो-चंचला ने भी तो उस प्रसंग को छेड़ा नहीं।

थोड़ी प्रतीक्षा करने के बाद चंचला ने पूछा, "क्यों, तुमने कहा नहीं?"  

"हां-यही। मैं कह रही थी, मैं तो कुछ दिनों में बंबई चली जा रही हूं चंचल, तू मेरे पास कैसे रहेगी?"

चलो, कुछ तो कह सकी।

लेकिन जवाब में चंचला उत्साह की रोशनी से जगमगाकर बोली, "वह तो मैं जानती हूं। चित्रजगत पत्रिका में तुम लोग कब कहां जा रही हो से लेकर कस चीज के साथ खाना खाती हो यह तक छपता है। इसीलिए तो कह रही हूं तुम्हारे साथ मैं भी चलूंगी। कोई झट से पकड़कर ला भी न सकेगा।"

मंजरी के हाहाकार करते सूने मन में भयंकर एक लोभ तृषित हो उठा। अगर ऐसा करना संभव होता? अगर इस स्नेह के धन को पास रख पाती?  

जा सकता है। रखा जा सकता है।

विवेक को चुप रखकर ऐसा किया जा सकता है। मंजरी इसे लेकर भाग जाए तो सुनीति का कौन सा नुकसान होगा? और होता है तो होने दो।

सुनीति की जरा सी अवहेलना के कारण मंजरी के जीवन में कितना बड़ा नुकसान हो गया, सोचा है कभी सुनीति ने? मंजरी नाम की एक नादान लड़की एक भंयकर तूफान के थपेड़ों से छिटककर उसके पास आश्रय मांगने आई थी तब उसे हताश होकर लौटना पड़ा था। उसी कारण दुःख और अभिमान से निरूपाय हो उसने जलती आग में कूदकर आत्महत्या की थी-यह बात सोचकर सुनीति कभी अनुतप्त हुई है क्या?

नहीं, नहीं हुई थी। होती, तो एक पत्र लिखकर खोज-खबर ले सकती थी सुनीति, किसी दुर्बल क्षण में टेलीफोन का रिसीवर उठाकर डॉयल कर सकती थी। मंजरी कोई छिपकर भाग नहीं गयी थी कि उसे ढूंढना मुश्किल था। सुनीति ने मंजरी की तलाश न करके और पांच जनों की तरह धिक्कारा था। तब फिर मंजरी क्यों उस पर दया करे? क्यों न बदला ले? मन को कठोर बनाते हुए मंजरी ने कहा, "अच्छा, मुझे दो एक दिन सोच लेने दे और तू भी ठीक से सोच समझ ले। अगर सचमुच मेरे साथ जाना चाहती है तो बुधवार शाम... हां बुधवार की शाम को फिर यहां आना।"

"जरूर आऊंगी देखना। एकदम सामान-वामान लेकर... "

"सामान लाने की तुझे जरूरत नहीं है... देखना कितना कुछ है... यह सब मैं तुझे दे दूंगी।"

"अहा !"

फिक से हंस दी चंचला। मौसी जरूर मजाक कर रही हैं।

"लेकिन मैं सोच रही हूं तू सचमुच आ भी सकेगी? दीदी को पता चल गया तो... ''

"किसी को पता नहीं चलेगा। वह जो लड़का है न, उसने कहा है कि मुझे सिनेमा की एक्ट्रेस बनने में हर तरह की मदद करने को तैयार है।"

लगातार चमत्कृत होती मंजरी ने विवेक को सांत्वना दी। अगर मंजरी प्रतिहिंसा को बढ़ावा न दे तो क्या इस मूर्ख लड़की की रक्षा कर सकेगी? सुनीति अपने वैधव्य और निर्लिप्त उदासीनता के कारण अपने ही बनाए दायरे में बंधी बैठी रहेगी और 'जाने कैसी होती चली जायेगी' और पुरुषहीन घर की दो तरुणियों का जीवन अव्यवस्थित कर डालेगी।

मंजरी ने पूछा, "क्यों री, तेरी मझली दीदी का क्या हाल है?''

"मझली दीदी? मंझली दीदी तो सिर्फ मां के पास बैठी रहती है और रोया करती है। मेरा ही दम घुटता है।"

"हूं। अच्छा जा उन्हें बुला ला।"

दुबला सीढ़ी का लंबा हाफशर्ट और पायजामा पहना एक लड़का और उसके पीछे उसी ढीलढौल की फ्राक पहनी एक लड़की। ऑटोग्राफ की कापी लेकर कमरे के भीतर आए दोनों।

लड़का विनय का अवतार और लड़की कुंठित, भीत, लज्जावनत। देखकर हंसी भी आई और आश्चर्य भी हुआ।

यह दीनहीन भाव और नितांत ही नाबालिग उम्र के लड़के में इतना साहस आया कहां से? इतना सा लड़का दो-दो लड़कियों को छिपाकर शहर की मशहूर अभिनेत्री के घर ले आया है?

आश्चर्य है।

लड़के को देखकर हंसी ही आ रही थी लेकिन चंचला जैसी भोलीभाली लड़कियों को मूर्ख, ऐसे लड़के ही बनाते हैं।

केवल हस्ताक्षर ही नहीं-दो चार शब्द भी चाहिए।

यथारीति शब्द वितरण कर मंजरी ने उन्हें परितुष्ट किया खिला-पिलाकर। फ्रिज खोलकर उन्हें ठंडे फल और ठंडी मलाई खिलाई। मौसी के गौरव से गौरवांविता चंचला फिर से आने का वादा करके पुलकित चित्त सवांधव विदा लेकर चली गयी।

कुछ मिनट तक मंजरी चिंता में खोई स्तब्ध बैठी रहने के बाद अचानक उठी और बड़े उत्साह के साथ एक सूटकेस में बिस्तर पर फैले कपड़े लेकर रखने लगी। वह चंचला को साथ लेकर भाग ही जायेगी। और क्यों न जाए?

किसने उसकी तरफ देखा था जो वह दूसरों की तरफ देखे? मंजरी ठीक करेगी समाज संसार का अनिष्ट करके। समाज ने अगर उसके लिए ता और विष इकट्ठा कर रखा है तो वह कहां से लाएगी अमृत? उसी विष भरे दांतों से वह समाज को डसेगी।'

कठिन-कठिन संकल्पमंत्र न जाने कैसे निक्षेज पड़ते गये। कौन-कौन सी साड़ियां चंचला पर अच्छी लगेंगी, कौन-कौन से जेवर वह चंचला को दे देगी, कितना छोटा कर लेने पर मंजरी के ब्लाउज चंचला पर ठीक होंगे-यही सब सोचना शुरू किया मंजरी ने।

अनेक द्वंद्व अनेक द्विविधा, विचार, विवेचना, वितर्क प्रचंड युद्ध से मन क्षत-विक्षत। शायद अपने को बर्बादी के रास्ते पर ले जाते वक्त भी मंजरी को इतनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ी थी। पाप पुण्य, न्याय अन्याय, सत्य असत्य जैसे शब्दों का ज्यादा विश्लेषण करने का तब अवकाश भी नहीं था। उस समय तो आत्महत्या का संकल्प लेकर आग में कूछ पड़ने कर संकल्प ही था।

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