नई पुस्तकें >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
|
0 5 पाठक हैं |
आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
27
पहली बार संदेह करके सिहर उठीं कि शायद अभिमन्यु अपने हृदय के एकाकीपन के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराता है।
अवश्य ही ठहराता है।
अगर पूर्णिमादेवी ने बहू को ऐसे कठोर विचारक की दृष्टि से न देखा होता तो शायद वह इस तरह से चली न गयी होती। अभिमन्यु भी आज पतवार विहीन नाव की तरह भटकता न फिरता। और खुद पूर्णिमादेवी भी बिल्ली के बच्चे को इधर-उधर करने की तरह आज यहां कल वहां, ठौर ठिकाना बदलती न फिरतीं।
पुराने जमाने का जो नियम था-वृद्धावस्था में तीर्थवास, अच्छा नियम था। इससे जीवन के अंतिम दिनों में अपने आपको 'फालतू' न समझतीं।
''घूमता चक्र।''
अभिमन्यु ने ठीक ही कहा था।
प्राणचंचला अस्थिर चित्त सुरेश्वर अभिमन्यु को इतना घुमा देना चाहता है कि अभिमन्यु थक गया। एक वक्त चुपचाप बैठने देने को तैयार नहीं था वह।
उसका कहना था, ''मन लेकर विलास-यह बात उसे असहनीय लगती है। बाहर निकलने को जी नहीं कर रहा है यह क्या पुरुषेचित बात हुई अभिमन्यु दा? मन लगाइए। आप मन के इच्छाधीन हैं या मन आपके इच्छाधीन?
''तुम्हारी तरह ऐसे एक पंखों का बॉल होता है शायद यही होता। तुम्हारा मन भी तो वैसा ही है।''
''इच्छा हो तो मन को पंखों का बॉल बनाया जा सकता है अभिमन्यु दा वरना बाईस मन का बोझ। इंसान सारी उम्र दुनिया में जीने के लिए नहीं आता है। जिसका दिन खत्म होगा वह चला जाएगा। उस मृत्यु को हर दस और एक जना अपने मन में जिलाए बैठा रहे इसका कोई मतलब नहीं होता है।''
मृत्यु! किसकी मृत्यु? मंजरी की?
यही बात और एक बार सुरेश्वर ने कहा था न?
लेकिन इसमें अभिमन्यु के चौंकने की क्या बात है?
उसके जीवन से तो मंजरी की मृत्यु हो ही गयी है। फिर भी यह बात इतने स्पष्ट शब्दों में कहते सुनकर चौंक ही जाना पड़ता है।
और जब इस बात को सोचो तो मन को कितना कष्ट होता है? सिर के भीतर? मन में?
मंजरी की तस्वीरों से, शहर की दीवारें पटी पड़ी थीं। नहीं देखूंगा सोचने पर भी नजर उन पर चली ही जाती थी। लेकिन उन तस्वीरों को देखकर लगता ही नहीं था कि मंजरी है। सचमुच की मंजरी, रक्तमांस की देहधारी वही मंजरी, कैसी होगी? क्या उसे देखकर पहचाना न जा सकेगा?
''अरे क्या हुआ अभिमन्यु, नाराज हो गये क्या? बाप रे आप बड़े ही सेंटीमेंटल हैं। चलिए-चलिए, मंदिर दर्शन कर आते हैं। देख तो रहे हैं भारतवासियों के लिए पुण्य कमाने के अलावा और कोई चारा नहीं है। जहां प्राकृतिक सौंदर्य है, जहां स्थापत्य शिल्प, जहां ऐतिहासिक इमारतें वहीं काफी जगह तक फैलाकर बनाया गया है मंदिर। मूर्ति स्थापना की गयी है।''
''इसके अलावा और क्या होगा? देवता केंद्रित देश जो ठहरा।''
''लेकिन मुझे क्या लगता है जानते हैं अभिमन्यु दा? भक्ति-वक्ति कुछ नहीं, यह भी एक तरह की कूटनीति है। देवी देवताओं के नाम से धनसंपदा सुरक्षित रखने की व्यवस्था बना रखी थी। जनसाधारण सहज ही में लूटपाट नहीं करेंगे, उत्तराधिकारी लोग उड़ा न सकेंगे-यही सब बातें हैं और क्या?''
''सभी चीजों की सैकड़ों तरह की व्याख्या की जा सकती है सुरेश्वर? इंसान का ब्रेन हर समय काम करता है, यह उसी का प्रमाण है।''
सुरेश्वर चकित होकर बोले, ''किस बात का?''
''अरे यही सारी व्याख्यायें।''
''ओ! लेकिन जो भी कहें अभिमन्यु दा, आपको देखकर लगता है आपने मन और ब्रेन को सील कर रखा है... उन्हें हिलाने डुलाने तक को तैयार नहीं।''
अपने ढंग से हंसने लगा सुरेश्वर।
तरह-तरह के कपड़ों और उनकी रंगों की उज्ज्वलता आंखों को चौंधिया रही थी।
बिस्तर पर साड़ी का पहाड़, सोफे पर ब्लाउजों का ढेर, इधर-उधर और भी कितना कुछ। कमरे के फर्श पर तीन-चार बड़े-बड़े सूटकेश खुले पड़े थे। आल्मारी से निकालकर रखा यह सारा सामान उन बक्सों में ठीक से लगा लेना था।
नवनियुक्ता दासी प्रमदा सहायता करने की आशा से और मालकिन के निर्देश की आशा से बड़ी देर से इस कमरे में खड़ी थी-थोड़ी देर पहले ही मंजरी ने उसे भगा दिया था। कहा था, ''अभी भाग, बाद में बुलाऊंगी।''
ढाकाई बनारसी सिल्क, जार्जेट, क्रेप शिफॉन, अरी की रेशमी साड़ियों का ढेर लगा था। साड़ियों को देखकर विस्मय से स्तब्ध रह गयी मंजरी। पागलों की तरह यह क्या किया है उसने? इतनी साड़ियां, इतने ब्लाउज, प्रयोजनीय प्रसाधन सामग्री और अकारण विलास के उपकरण न जाने कब इकट्ठा हो गये थे? ज्वार के पानी में जिस तरह तटवर्ती खरपतवार, लतायें पत्ते, जले हुये बांस, टूटे फूटे जंजाल सब बह जाते हैं, पानी यह तक नहीं देखता है कि क्या संग्रह कर रहा है, उसी तरह से क्या हर दुकान का जंजाल आकर मंजरी के घर में इकट्ठा हुआ है? अप्रत्याशित रूप से बहुत ज्यादा उपार्जन करने के नए ज्वार में बहते-बहते शायद मंजरी ने होशोहवास खो दिए थे। मंजरी इतनी लोभी है? तुच्छ वस्तु के प्रति ऐसा दुर्दांत लोभ कहां छिपा था मंजरी में? क्या इसी लोभ ने मंजरी को केंद्रष्णुत किया था? रुंधी सांस रोके हुए मंजरी ने अपने आप से पूछा।
''किस सूटकेस में कौन सी चीज रखूं दीदीजी?'' प्रमदा के बार-बार इस तरह के ऊबाऊ प्रश्नों से खीजकर उसे बाहर निकालकर और कपड़ों को एक किनारे धकेलकर बिस्तर पर लेट गयी मंजरी।
बंद आखों के सामने बहुत पुरानी एक तस्वीर उभर आई।... अभिमन्यु और मंजरी कुछ दिनों के लिए रांची घूमने गये थे। कुछ दिनों के लिए जा रहे थे इसलिए अभिमन्यु ने कहा, ''दोनों के लिए एक ही सूटकेस काफी होगा।'' मंजरी ठूंस-ठूंसकर कपड़े भरते-भरते पीसना-पसीना हो गयी। हंसकर बोली, ''असाध्य साधन करवाया मुझसे तुमने। ओह:! इसी को कहते हैं झोले में हाथी भरना। उधर मैं अपनी साड़ी-वाड़ी तो ले ही नहीं सकी हूं। इसके बाद कहीं जाऊंगी तो याद रखना सिर्फ अपने लिए ही दस सूटकेस लूंगी।''
अभिमन्यु ने भी हंसकर पूछा था, ''उसमें रखोगी क्या? कंडे, कोयला?''
''मानें?''
''एक गरीब लेक्चरार की पत्नी, दस सूटकेसों में भरने लायक इससे कीमती माल और क्या मिलेगा?''
''मिलेगा कहां? ईश!'' मंजरी भौंहें नचाकर बोली थी, ''तुम्हीं लोग भिखारी भोलेनाथ की जात हो, हम है चिर अन्नपूर्णा चिरलक्ष्मी! समझे महाशय?''
''समझ गया।'' कहकर अभिमन्यु ने हाथ बढ़ाकर मंजरी के माथे का पसीना पोंछ दिया था।
क्या उस पसीने के साथ-साथ अभिमन्यु ने मंजरी के माथे पर लिखे सौभाग्य चिन्ह को भी मिटा दिया था? अभिमन्यु के साथ फिर कभी दस सूटकेस लेकर घूमने जाना नहीं हुआ।
आंखों के आंसू इतने अबाध्य क्यों होते हैं?
"मां, एक लड़का और दो लड़कियां आई हैं आपसे मिलने।"
नौकर की आवाज सुनकर मंजरी उठ बैठी।
एक लड़का और दो लड़कियां? कौन हैं ये?
उठकर बैठते हुए पूछा, "कितने बड़े लड़के लड़की?"
"यही स्कूली लड़के लड़की होंगे।"
अवाक् हुई मंजरी, "जा तो-बुला तो ला-देखूं।"
संवाददाता 'साक्षात्कार' लेने अक्सर आया करते हैं लेकिन ऐसे लड़के लड़की जैसे नहीं। उठकर कुर्सी पर जा बैठी।
दूसरे ही क्षण दो को बाहर बैठाकर एक को लेकर भीतर आया नौकर। जिसे ले आया था वह दरवाजे के पास ही ठिठककर खड़ी रह गयी। उसकी तरफ देखकर मंजरी स्तब्ध विस्मय से केवल इतना ही कह पाई, "चंचला?"
दौड़कर लिपटने को इच्छा हुई पर अपने को रोका उसने। यह अधिकार है क्या मंजरी को?
"मैं छिपकर भाग आई हूं छोटी मौसी।" चंचला ने ही इस बार मंजरी की झिझक तोड़ी और जाकर उससे चिपक गयी।
"तू? तूने कैसे मेरा घर ढूंढ़ निकाला रे चंचल? शैतान लड़की, सोना लड़की।"
अब चंचला स्थिर हुई। बोली, "मैंने नहीं ढूंढ निकाला है, मेरे स्कूल की एक लड़की के बड़े भाई... '' थूक गटककर चंचला बोली, "उसका बड़ा भाई तुम्हारे पास आएगा ऑटोग्राफ लेने, इसीलिए मैं... "
"क्यों आई? दीदी को पता चला तो तुझ पर बहुत नाराज होगी।" उदास होकर मंजरी बोली।
कुंठित भाव से चंचला बोली, "गुस्सा वह क्या करेंगी? मां अब यह सब नहीं होती हैं-जाने कैसी हो गयी हैं।"
"कैसी हो गयी हैं?" मंजरी आर्तनाद कर उठी।
"जाने कैसी अजीब सी। पहले जैसी नहीं रह गयी है। मुझे अब घर में अच्छा नहीं लगता है छोटी मौसी।"
अपनी पुरानी आदत के मुताबिक मजाक करके कहने जा रही थी, "इस घर में अच्छा नहीं लग रहा है तो ससुराल चली जा।" लेकिन कुछ सोचकर बात बदलकर बोली, "लेकिन वह लोग कहां हैं? तेरी सहेली और उसका भाई?"
"नीचे वाले कमरे में।"
"अरे वाह, बुला ले आ उन्हें।"
"बुलाती हूं। पहले अपनी बात कह लूं... ''
"तुझे क्या कहना है रे? कह न? चुप क्यों है?"
|