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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

26

मन-ही-मन अपना रक्षामंत्र उच्चारण करने के बाद मंजरी ने शांत संयत स्वरों में कहा, ''ये स्टूडियो नहीं है निशीथ बाबू।''

''सारी दुनिया ही स्टूडियो है मंजरीदेवी।''

''यह कोई नई बात नहीं है। आशा करती हूं कि आपका वक्तव्य समाप्त हो गया है।''

''आप बड़ी निष्ठुर हैं मंजरीदेवी,'' चेहरे पर और अधिक उदासी विपन्नता, करुण भाव लाते हुए निशीथ ने कहा, ''आप अपने प्रति भी निष्ठुरता कर रहीं हैं और दूसरे के प्रति भी... ''

''क्या किया जा सकता है, सभी में बराबर की दया नहीं रहती है।''

''लेकिन यह तो आपका आत्मपीड़न है मंजरीदेवी।''

विचलित नहीं होऊंगी यह सोचना आसान है लेकिन काम में लाना बड़ा मुश्किल। मुश्किल से अपने को संयत करके मंजरी ने जवाब दिया, ''मेरे मामले में अगर आप कम चिंता करें तो सुखी होवूंगी निशीथ बाबू।''

''इसके सिवा उपाय भी तो नहीं है मंजरीदेवी। हर समय केवल आपकी चिंता करते-करते मैं जख्मी हो गया हूं। आप क्यों अपने को उपवासी रखकर वंचित कर रही हैं? समाज ने आपको दिया क्या है? अकारण ही अन्याय और अपमान के अलावा और तो कुछ नहीं न? कहिए मंजरीदेवी, किसी ने आपके लिए सहानुभूति जताई है? आपकी हिस्ट्री में जानता हूं। आप तेज हैं, झूठा अपवाद, लांछना सहन न कर सकने के कारण घर छोड़कर निकल आई हैं। लेकिन क्या आपका समाज इसके लिए अनुतप्त हुआ? आपको वापस लौटा ले गया? तब फिर? उस समाज की आप परवाह क्यों करेंगी? बताइए? जवाब दीजिए मुझे।''

क्रुद्धा सर्पिणी को जैसे औषधिलता का धुंआ देने पर वह शिथिल हो जाती है उसी तरह दृढ़ता चली जा रही थी मंजरी के भीतर से। जिस दृढ़ता से उसने कहा था, ''सुधीर, बाबू को गाड़ी तक पहुंचा दो'' वह दृढ़ता कहां गयी? चेहरा फीका पड़ता जा रहा था, दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, सिर के भीतर जाने कुछ शब्द झनझना रहे थे। शब्द नहीं, कुछ वाक्यांश।

''समाज ने आपको क्या दिया है? अकारण अपमान और अन्याय-यही न? आपको समाज ने अनुतप्त होकर क्या आपको लौटा लिया है?

पक्के और मंझे हुए खिलाड़ी जिस तरह जानते हैं कि खेल में कहां कूद पड़ना चाहिए, कहां उदासीनता दर्शाना चाहिए, उसी तरह से परिस्थिति की गंभीरता को देखकर निशीथ राय और भी ज्यादा दुःखी उदास होकर करुण स्वरों में बोला, ''आप मुझे चौकीदार से निकलवा सकती हैं मंजरीदेवी, मैं सिर झुकाकर चला जाऊंगा। लेकिन याद रखिएगा, नितांत ही बुरे लोग भी कभी-कभी सच्चा प्यार कर बैठते हैं। उसके सारी विगत जीवन के इतिहास को सामने रखकर फैसला करना तो उसके प्रति अन्याय करना हुआ न?''

डरना बल्कि अच्छा होता है। कम-से-कम चिल्लाकर नौकरों को तो बुलाया जा सकता है लेकिन विपन्नता और भी भयानक है। यहां आदमी और ज्यादा असहाय है। मंजरी असहाय विपत्र भाव से देखती रही।

संपेरे की तीखी नजर से मंत्राहत विपन्नमुख को देखा निशीथ राय ने। फिर कहना शुरू किया, ''जानता हूं आप पवित्र हैं, आप बलिष्ठचित्त हैं और मैं दुर्बल। क्योंकि मैं हाड़ मांस का इंसान हूं। इसीलिए मैं अपनी दुर्बलता का अपराध है मानने को तैयार नहीं हूं मंजरीदेवी। स्वीकार करता हूं कि मैं देवचरित्र नहीं हूं लेकिन प्रेम क्या चीज है उसे पहले कभी इस तरह से अनुभव नहीं किया था।''

मंजरी चंचला होकर उठी-फीका सा चेहरा लिए बोली, ''मैं आपका कौन सा उपकार कर सकती हूं बताइए।''

''उपकार?'' उसी विपन्न हंसी को हंसकर निशीथ राय बोला, ''नहीं मंजरी देवी, आपके सामने इस बात का उत्तर दे सकूं वह साहस मुझमें नहीं है। मैं विदा लेता हूं। आपको व्यर्थ ही में परेशान किया-हो सके तो माफ कीजिएगा। आप बहुत दूर चली जा रही हैं... फिर भी शायद, कर्मक्षेत्र में कभी मुलाकात हो... जानता हूं अतिथियों वाला सम्मान फिर कभी नहीं पाऊंगा... अच्छा नमस्कार।''

विमूढ़ भाव से मंजरी ने हाथ जोड़कर कहा, ''लेकिन मैंने तो आपको आने के लिए मना नहीं किया है।''

''मना नहीं किया है यह आपकी महानता है लेकिन मैं तो जानता हूं कि वह अधिकार मैंने खो दिया है। फिर भी विदा लेते हुए कहता जा रहा हूं कि अपने आपसे एक बार पूछिएगा आप क्यों कष्ट उठा रही हैं? किस कीमत पर? इस पर क्या कोई विश्वास करेगा? आपके लाख सिर पीटने पर भी क्या कोई विश्वास करेगा?''

धीरे-धीरे चला गया निशीथ राय।

नीचे जाकर कार स्टार्ट करते-करते सीटी बजाने लगा।

उधर सोफे का सहारा लिए स्तब्ध खड़ी रह गयी मंजरी। कमरे में एक ही शब्द गूंज रहा था, ''कोई क्या विश्वास करेगा?''

लेकिन क्या दूसरों के विश्वास भाजन बने रहने के अलावा अपनी पवित्रता प्रमाणित करने का कोई और जरिया नहीं? सामाजिक अनुशासन के अलावा और कोई अनुशासन नहीं?

''द्वारिका जायेंगे अभिमन्यु दा?''

भड़भड़ाकर भीतर आते हुए हड़बड़ाकर पूछा सुरेश्वर ने बिना किसी भूमिका के, ''जायेंगे तो चलिये।''

अभिमन्यु अवाक् हुआ।

''अचानक तुम कहां से भाई? मानस कैलाश से कब वापस लौटे हो? मेरा घर कैसे पहचाना? अभी फिर द्वारिका जाने की बात-मतलब क्या है?

''धीरे-धीरे... एक-एक करके।... अचानक कहां से? सो अधम अपने बैरकपुर वाले निवास स्थान से आ रहा है। मानस कैलाश से कब वापस लौटा? लगभग पांच-छ: महीने पहले। कालश्रोत जलश्रोत की तरह हरदम प्रवाहमान है। अभिमन्यु दा। आपका घर कैसे पहचाना? पते के बल पर? यद्यपि आपके भृत्य महाप्रभू तो मुझे भगा ही दे रहे थे।''

''भगा रहे थे?''

''हां भई। कह रहा था, बाबूजी की तबीयत ठीक नहीं है। दुनिया भर के लोगों के साथ भेंट मुलाकात नहीं करते हैं।''

''हूं-काफी सरदारी करने लगा है।''

''खैर-चल रहे हैं न?''

''चल रहा हूं? कहां चल रहा हूं?''

''वाह! कहा न? द्वारिका पूना, नासिक बंबई... ''

''तुम क्या दो दिन कहीं आराम से बैठ नहीं सकते हो? तुम्हारे भीतर है क्या? घूमता चक्र?''

''शायद! सच अभिमन्यु छ: महीने कहीं न निकलो तो लगता है बीमार हो गया हूं।''

''समुद्र लांघने का मामला निपटा चुके हो क्या? हालांकि समुद्र लांघों या आकाश नापो... ''

''नहीं... वह बात ज्यादा बढ़ कहां पाई? सिर्फ जापान तक धावा कर पाया। मातृभूमि में ही चक्कर लग रहे हैं।''

''पागल नंबर वन।''

''जो चाहे सो कहिए। खैर... मौसीजी के क्या हालचाल हैं?''

''ठीक ही हैं।''

''कहां हैं? दुमंजिले में? चलिए न उन्हें एक बार द्वारिका का नाम सुना आऊं।''

''रक्षा करो सुरेश्वर... मां का उत्साह मत बढ़ाओ।''

''न बढ़ाऊंगा तो कहीं आपको खींचकर निकल सकूंगा?''

''मेरी बात बाद में सोची जायेगी।''

''मैं सोच विचार करने के पक्ष में नहीं, एकदम पक्की बात चाहता हूं। सच अभिमन्यु दा, पिछली बार से मैंने तय किया है कि अगले अभियान में मैं आपको पकड़ूंगा।'

सकौतुक अभिमन्यु बोला, ''ऐसा क्यों भला?''

''अरे वही तो बात है। कहावत है न जिससे जिसका दिल लग जाए-इसीलिए-और क्या? तो फिर बात पक्की?''

अभिमन्यु हंसकर बोला, ''कब जाना है, कहां जाना है, कुछ भी पता नहीं, पक्की बात ले लेना चाहते हो?''

''वह सब पता चल जायेगा। जाने के पहले दिन तक हर रोज एक बार आकर चढ़ाई करूंगा। कहां... एक बार मौसीजी से तो मिल लूं।''

''चलो, लेकिन यह सब जाने वाली बात का जिक्र मत करना अगर कहीं जाऊंगा तो अकेला ही जाऊंगा।''

''और मौसीजी? वह कहां रहेंगी?''

''उनके रहने का कोई अभाव नहीं है। यह अधम जीव उनका सबसे ज्यादा? नालायक बेटा है। और दो कर्मठ योग्य बेटे हैं उनके। उनकी सुरम्य अट्टालिका, सुदृश्य मोटरें बहुत कुछ हैं। कन्यायें ही है कुल मिलाकर चार... ''

''अच्छा!'' सुरेश्वर सकौतुक बोला, ''आपने पहले कभी तो बताया नहीं था? मैं तो सोच रहा था आप ही अकेले... ''

सहसा चुप हो गया अभिमन्यु। उसे तो पता है कि पूर्णिमादेवी ने क्यों परिचय जैसी चीज को अंधकार में रखा है। सुरेश्वर उसके चुप हो जाने के प्रति कटाक्षपात करते हुए बोला-

''आप बहुत ज्यादा रिजर्व किस्म के आदमी हैं अभिमन्यु दा। अपने बारे में आप एक शब्द उच्चारण करने को तैयार नहीं।'' अभिमन्यु फीकी हंसी हंसकर बोला, ''बुद्धिमानों के यही लक्षण हैं।''

''इसी बहाने अपनी तारीफ कर ही ली-है न?'' कहकर हा-हा करके हंसने लगा सुरेश्वर।''

आश्चर्यजनक है ये लड़का।

आश्चर्यजनक है इसकी क्षमता।

अभिमन्यु की सारी आपत्ति, बहाने को अनसुनी कर सचमुच ही उसे लेकर एक दिन द्वारिका की ओर चल दिया।

पूर्णिमादेवी ने अभिमान प्रकट न कर, बक्सा ठीक किया और मझले बेटे के पास चली गईं। इस पर भी अभिमन्यु को कोई दुःख नहीं हुआ। सुरेश्वर पर बुरी तरह से नाराज होते हुए भी पहली बार पूर्णिमादेवी को अहसास हुआ कि लड़के और उनके बीच बधूरूपी व्यवधान की दीवार दूर हट जाने से उनके बीच का व्यवधान और भी ज्यादा बढ़ गया है। यह व्यवधान अब कभी भी दूर नहीं होगा।

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