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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

23

"झूठी नहीं, बदनामी सच थी।"

"हूं! तो सारे कलंक रुपयों के नीचे दब जाते हैं?"

"क्या सचमुच दबते हैं? नहीं? नहीं दबते हैं। लेकिन अभाव चीज बड़ी बुरी होती है। सबसे बड़ी और पहली चीज है पेट। उसके बाद ही मर्यादा का सवाल उठता है।"

"हुं! लेकिन जो लोग हाथ फैलाकर तुम्हारे रुपये से पेट भर रहे हैं अभी भी तो वे तुम्हें अपने घर में घुसने नहीं देते हैं।"

वनलता के होंठों पर तीखी हंसी दिखाई दी, "देते हैं।"

"क्या? तुम वहां जाती हो?" मंजरी की आंखों में अविश्वास झलक उठा।  

"कभी-कभी। अचानक ही। अगर किसी दिन ज्यादा वक्त मिल जाता है।... बहुत दूर तो है नहीं। ज्यादा से ज्यादा तीस मील।"

वे लोग तुम्हारा मुंह देखते हैं? तुमसे बात करते हैं?"

उसी तरह हंसकर वनलता बोली, "सिर्फ बात? कहां बैठायेंगे, कैसे इज्जत करेंगे सोच-सोचकर परेशान हो जाते हैं।"

"ताज्जुब है! तो फिर रुपया ऐसी ही चीज है।"

"नहीं, ठीक रुपया नहीं... प्रतिष्ठा है असली चीज। वे लोग गरीब हैं इसलिए सोच रही हो रुपये के लिए... लेकिन ऐसा नहीं है। पैसे वाले भी यही करते। किसी भी बात के लिए, अगर प्रतिष्ठा अर्जन कर सको तो, कभी जिन लोगों से घृणा से मुंह फेर लिया था, वे ही बात करने पर अपने को धन्य समझने लगते हैं। मेरी बचपन की सहेली जिसने मेरा इरादा सुनकर कहा था, "मैं मर जाऊंगी तो वह 'हरीलूट' देगी, अब वही मुझसे 'पास' लेकर बाक्स में बैठकर थियेटर देखती है, अपने सारे परिवार को बुलाकर दिखाती है।"

"और तुम धन्य होकर पास-वास दिया करती हो?''

उसका गुस्सा देख वनलता हंसी, "इंसान कहीं तो दुर्बल होता ही है।"

पल भर के लिए चुप रहने के बाद मंजरी बोली, "बंबई मुझे जाना ही पड़ेगा।"  

"अचानक सिद्धांत स्थिर हो गया क्या?"

"हां, ऐसी ही बात है। मुझे यश चाहिए प्रतिष्ठा चाहिए और रुपया भी चाहिए। बहुत सारा, असंख्य अनगिनत रुपया... ''

मुस्कराकर वनलता ने पूछा, "क्यों? त्यागकर आए पति को क्या रुपयों से खरीदेगी?"

"वही कोशिश करूंगी।"

"हाय राम! शर्म भी नहीं आती है।" बड़ी और मझली जिठानिया एक साथ शर्म से मरकर बोलीं, "अब बंबई भी? इसके बाद बाकी क्या रहा? फिर भी अभी तक सोचती थी, जिद करके एक बच्चों जैसी हरकत कर बैठी है, हो सकता है बाद में अपनी गलती समझ जाएगी। और हमारे पिघलने वाले देवर शायद उसे घर में रख लेगा। लेकिन उस उम्मीद पर भी पानी फिर गया।''

उनकी बातों से यह स्पष्ट नहीं हुआ कि वह क्या चाहती थीं।

"ओफ! इसी को कहते हैं हिम्मत!'' उन्हें जैसे ओर छोर नजर नहीं आ रहा था, "कैसी शांत सभ्य सी रहती थी, कौन जानता था उसके दिल में इतनी हिम्मत है।"

"चलो फिर भी शहर में थी... इसके बाद? छि:-छि:, बिना अविभावक के बंबई चली गयी तो बचेगा क्या?"

"बचा ही क्या है?" मझली जिठानी मुंह बिचकाकर बोली, "हमारे हिंदू घर की लड़की, घर के बाहर रात बिताने पर जिसकी जात जाती है, उसने दो-दो साल घर के बाहर ही गुजार दिया। वह भी किस लाइन में? सुना है अलग फ्लैट किराए पर लेकर नौकर-चाकर रखकर रामराज कर रही है। कार भी खरीद ली है शायद। और क्यों न खरीदे भला, दोनों हाथों से कमा भी तो रही है।"  

"ताज्जुब है! विश्वास करने को जी नहीं चाहता है। वही हमारी छोटी बहू।"

"इसमें अविश्वास करने की क्या बात है?" मझली जिठानी ने सिर को झटका देते हुये कहा, "ये जो लाखों करोड़ों बुरी औरतें हैं, सभी तो खराब होकर आसमान से नहीं टपकी हैं? वह भी कभी अपने मां बाप की संतानें थीं, पतियों की पलिया थीं, हो सकता है बच्चों की माये भी थीं।"

"ओफ, हमारे घर में ऐसा होगा, कब किसने सोचा था? यही हम लोग असुविधा की वजह से अलग होकर रह रहे हैं इसी पर हमारी कितनी बुराई हुई है-यही छोटे देवरजी ने कितना हमारा मजाक बनाया था और अब?''

"सबसे ज्यादा सजा मिली है जेठों को? ये तो कहते हैं परिचित लोग अगर रास्ते में मिल जाते हैं तो आंख मिलाकर बात नहीं कर सकता हूं-सिर झुकाकर चुपचाप निकल जाता हूं।"

"देखते ही देखते नाम भी कर लिया है बाबा। उतरते ही स्टार बन गयी। ऐसी कोई फिल्म नहीं जिसमें वह नहीं है।"

"क्या छलकला? बेहयापन... देखने लगो तो सिर कट जाता है। मैं तो नौ बजे के शो के अलावा जाती नहीं हूं। डरती हूं कहीं कोई देख न ले।"

"तू तो तब भी चली जाती है-मुझे तो तेरे जेठजी ने सख्ती से मना कर दिया है।"  

"अहा! क्या वह मनाही मुझे नहीं है? मैं सुनती नहीं हूं। क्या करूं कौतूहल के कारण जान जो जाती है।"

"अच्छा, तुझे क्या लगता है, छोटे देवरजी उसकी फिल्में देखते होंगे?"

"ईश्वर ही जाने। देखता क्या होगा? और कहीं देखा जा सकता है क्या? कुछ भी हो उसके हृदय की जलन और ही है। अपनी शादीशुदा बीवी पांच मर्दो के साथ प्रेम का पार्ट कर रही है यह चीज देखना और सहन करना आसान बात है क्या?''

छोटे ननदोई पत्नी को हंसकर चिढ़ाते, "कुछ भी कहो, तुम्हारे ब्रदर ने एक गलती कर डाली। पत्नी को उड़ने न दिया होता तो और घर ही में रहने दिया होता तो इस जीवन में मेहनत की कमाई न खानी पड़ती। अच्छा खासा पांव पर पांव चढ़ाए बैठा होता-तिमंजिला मकान, शेवर्ले कार, लोगों की कतार, नौकर चाकर, मान मर्यादा... ''

"मान मर्यादा?" सुनने वाली ने तीव्र प्रतिवाद किया।

"अरे अरे... क्यों नहीं भला? मंजरी लाहिड़ी को आज सब हाथों हाथ ले रहे हैं-छीना झपटी मची है। बंबई वाले खुशामद कर रहे हैं... "

छोटी ननद ने उदास गंभीर स्वरों में कहा, "कह लो, जो जी में आये कह लो। कहने का मौका मिला है तुम सबको।"

उधर बड़ी ननद के यहां की व्यवस्था इससे भिन्न थी। वह अलिखित आदेश के अनुसार छोटे से लेकर बड़े तक को मंजरी के बारे में कुछ भी कहना मना था। इस घर में कोई मंजरी का नाम नहीं लेता है। सिनेमा देखने जाने का श्रेष्ठ आनंद-उससे सभी वंचित हो गए थे।

सुनीति हजारीबाग से लौट आईं थीं। काफी दिन हो गये थे। सिर की कसम के साथ अतिरिक्त घी, दूध और बढ़िया चावल खा-खाकर अजीब सी मोटी हो गयी थी। मंजरी क्यों, दुनिया की किसी चीज के प्रति उसका लगाव खत्म हो चुका था। मंजरी रहे या बर्बाद हो जाए, इससे उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। बड़ी बेटी कमला ने एक दिन संकोचपूर्वक कहा था, "उस दिन अगर हमने छोटी मौसी को यहां रख लिया होता मां, तो शायद छोटी मौसी इस तरह से... "

क्लांत भाव से सुनीति ने उत्तर दिया था, "जिसे नियति खींचे उसे कौन पकड़कर रख सकता है?"

छोटी बेटी कमला शुरू-शुरू में एक दो बार अखबार लेकर मां को दिखाने आई थी छोटी मौसी का नाम, उसकी तस्वीर। सुनीति ने थकी सी आवाज में कहा था, "तुम लोग उस कमरे में ले जाकर देखो।"

यह समझ में नहीं आता है कि मंजरी के लिए उनके दिल में जरा सी भी सहानुभूति है या नहीं। कौन जाने, शायद नहीं है। हो सकता है मंजरी अगर तकलीफें उठाती, भूखों मरती, अच्छा पहनने ओढ़ने को तरसती तब शायद सुनीति उसे अपने पास खींच लेतीं, सस्नेह गले से लगा लेतीं।

सुनीति उसके कलंक को क्षमा करती। लेकिन मंजरी तो कलंक की कीमत के तौर पर यश, ख्याति, अर्थ, प्रतिष्ठा और स्वच्छंदता प्राप्त कर रही है। अब क्या जरूरत है उसकी तरफ देखने की? उसके भीतर की स्नेह कंगालिनी को देखने की गरज अब है किसे? कौन उस कंगालिनी पर विश्वास करेगा?

जिसके पास रुपया है उसे किस चीज का प्रयोजन है? न:, उसके लिए किसी के हृदय का ममता का द्वार खुला नहीं रह सकता है। अब तो कोई चीज वहां मौजूद है तो वह है घृणा।

मंजरी सुनीति के मन से उतर चुकी है। मिट चुकी है।

कुछ तो मिटाया था उसके दुःसाहस ने, बाकी मिटा दिया उसकी सफलता ने।

केवल किशोरी-चंचला कभी-कभी आश्चर्य से सोचती है। छिपाकर चंचला ने एक संग्राहलय बनाया है।

अखबारों से, पत्र-पत्रिकाओं से, प्रोग्राम पुस्तिकाओं से, सिनेमा की पत्रिकाओं से जो भी मंजरी की तस्वीर देखती, सब काट-काटकर अपने गुप्त भंडार में इकट्ठा करती। नाना मूर्ति, नाना भाव भंगिमा, नाना रूप।

एकांत अवसर पर, दोपहर में उन्हें निकालकर, फर्श पर या बिस्तर पर बिछाकर देखती है चंचला। देखती और सोचती।

पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ पर जो चेहरे हैं, जिन चेहरों पर खतरनाक किस्म की चपल हंसी हैं, आखों का चुटीला कटाक्ष, अपूर्व भावभंगिमा, इस चेहरे को देखकर दिल कांप उठता है, सारा शरीर डर से थरथराता है-यह क्या सचमुच छोटी मौसी का चेहरा है? बचपन में जो उनके खेल का नेतृत्व संभालकर हो-हल्ला मचाया करती थीं, जो परम उदारभाव से अपने हिस्से की चॉकलेट लाजेंस या फिर अपने गले की पत्थर की माला बेझिझक दान कर देती थी, एक साथ खाती थी, सोती थी, बातें करती थी। सचमुच वही है? क्या सचमुच वही है? और ये जो अखबार के पन्ने पर-विषाद प्रतिमा एक विधवा नारी? जिसकी आंखों में असीम सूनापन, जिसके होंठों पर वेदना की व्यंजना ये भी क्या उनकी छोटी मौसी ही है?

कौन सी तस्वीर ठीक है?

कौन सा रूप यथार्थ है?

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