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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

22

चिढ़कर नाक भौंह सिकाड़कर फिर से चलना शुरू किया पूर्णिमादेवी ने। बहू किसी तरह से कंधे से उतरी तो ये दोस्त चढ़ बैठा। शनि है, शनि है। नीचे भली चंगी पहुंच जाऊं तो समझूं। ओ: केदार में कभी इंसान आता है?

आता क्यों नहीं है?

हजारों सालों से लोग केदार आ रहे हैं। दुर्गम रास्तों के प्रति इंसानों का आकर्षण ही तो उनकी मूल प्रकृति है। हजारों सालों से करोड़ों लोग यहां आते हैं। जिस समय रास्ता बीहड़ और दुर्गम था, सभ्यता यहां तक पहुंची नहीं थी, लोगों को यहां से वापस लौटने की उम्मीद बहुत कम थी तब भी वे आते थे। अब तो आसान और सुरक्षित रास्ता है, लोग स्वच्छंदता से आते जाते हैं।

अभिमन्यु भी वापस लौटा।

और लौटकर ट्रेन से उतरते ही देखा सारा कलकत्ता उसकी तरफ देखकर तीव्र व्यंगात्मक दृष्टि से देखते हुए हंस रहा है।

कैसा कुत्सित।

कितना घृणित।

यह कैसा शक्तिवाण है? अभिमन्यु क्यों लौट आया।

मंजरी लाहिड़ी। मंजरी लाहिड़ी।

सारा कलकत्ता मंजरी लाहिड़ी की नामावली शरीर से लपेटे बैठा है। पूरे शहर के हर रास्ते में मुस्कराहट बिखरती मंजरी लाहिड़ी हजारों-हजारों पथिकों की ओर कटाक्षपात करती मोहनी हंसी हंस रही थी।

अभी कुछ दिन पहले तक मंजरी लाहिड़ी थी प्रोफेसर अभिमन्यु लाहिड़ी की पत्नी।

विशाल पोस्टर लगा था हावड़ा स्टेशन के टैक्सी स्टैंड के पास। कुली को पैसा देते-देते कुछ लोगों की टिप्पणी सुनने को मिली।

"क्या मनलुभावन हंसी हंस रही है बेटा, देख रहा है न? सा... ले का खोपड़ा घूमा जा रहा है। देख लेना, यही लौंडिया 'शोभारानी' 'श्यामली सेन' की दुश्मन बनने जा रही है। उनका दाना पानी बंद होने ही वाला है।"

तीव्र दुर्गंध युक्त बीड़ी फूंकते हुए दो लौंडे वहां से चले गये।

लेकिन हाथ में रिवाल्वर रहने पर क्या अभिमन्यु उनका हृदय गोलियों से छलनी कर सकता? लाठी रहती तो क्या उनके सिर पर मार सकता?

नहीं-ऐसा वह नहीं कर सकता।

अभिमन्यु शरीफ आदमी है, जिन्हें बदनामी का बहुत ज्यादा डर होता है। समाज की पिछली अंधेरी गलियों में विचरण करने वालों का भी यही कहना है। स्टूडियो के मेकअपरूम में बैठी उन्मुक्तदृष्टि लाल चेहरे वाली मंजरी को एक हितैषी ने फुसफसाकर कान में कहा, "चुप मार जाइए मिसेज लाहिड़ी, दबा जाइए। इस बात को लेकर शोर मत करिए। करेंगी तो कुछ फायदा भी नहीं होगा। सिर्फ यही होगा कि लोग सुनेंगे और पीठ पीछे हंसेंगे। आप शोर मचायेंगी तो ज्यादा से ज्यादा डाइरेक्टर ममजुमदार दिखावटी धमकी लगाएंगे आनदकुमार को। इससे आपकी इज्जत बढ़ थोड़े ही जाएगी। इन जगहों में इस तरह-की छोटी मोटी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता है। जब इस लाइन में आई हैं तब धीरे-धीरे और भी बहुत कुछ देखेंगी।

अतएव हो हल्ला करना व्यर्थ है।

इससे सिर्फ बदनामी होगी।

इस लाइन में जब आई हो तो यहां का दस्तूर भी सीखो। सीखो थप्पड़ खाकर हजम करना... वरना लोगों की हंसी का सामना करो। हाथ में छुरी होती तो क्या मंजरी अपने कोमल भरे-भरे गाल का मांस काटकर फेंक देती? अंगारा पास होता तो क्या धधक रहे गाल के उस भाग पर रख देती? इस तरह से क्या जहर उतार सकती?

न:! यह सब कुछ रहता तो भी कुछ न कर सकती मंजरी। क्योंकि अभी दस मिनट बाद उसे दूसरे एक स्टूडियो में पहुंचना है। एक डाइरेक्टर के साथ उसने चार फिल्मों का काट्रैक्ट किया है।

गड़बड़ी करके सब कुछ बिगाडने का साहस उसमें नहीं है।

साहस तो हर तरह का खो चुकी है वह।

घर छोड़कर चली आई लड़की का महिमा प्रदर्शन हास्यकर नहीं तो और क्या है? और दिखाएगी भी किसे? जो लोग इसे यानी इस घटना को कुछ समझते ही नहीं है-उसे?

अतएव छोड़ो इतना सा छूआछूत।

बचपन में जिस 'स्लिप' पर चढ़कर फिसलते थे, उसी तरह से हाथ पांव ढीला छोड़कर नीचे फिसलते चले जाओ।

हालांकि उतरने के साथ-साथ चढ़ने का भी एक हिसाब रहता है। दुनिया में हर मामले में तराजू के दो पल्लों का हिसाब रहता ही है। एक तरफ उतरा तो दूसरी तरफ चढ़ा।

पल्ले का दूसरी तरफ चढ़ रहा था।

हर जगह तस्वीर और नाम। पत्र-पत्रिकाओं में परिचय और इंटरव्यू छप रहे हैं। तरुण तरुणियों के ऑटोग्राफ बुकों में उसके हस्ताक्षर। तेज बुखार वाले रोगी के मुंह में थर्मामीटर लगाते ही तप्त पारे की तरह बैंक बैलेंस बढ़ता जा रहा था। इतना उठते रहने के दबाव में आकर थोड़ा बहुत उतरने की ग्लानि फीकी तो पड़ ही जाएगी।

अब वनलता के फ्लैट में' रहना शोभा नहीं देता है, अपने आपको समेटकर रखा भी नहीं जा सकता है-मंजरी को एक अलग फ्लैट लेना पड़ा है। वनलता के फ्लैट से मंहगा और बड़ा।

मंजरी की सुरुचि और सौंदर्यबोध का परिचय वहन कर रहा था उसका फ्लैट, उसकी साजसज्जा। रुपया ही शक्ति है, रुपया ही साहस, रुपया ही उपाय, रुपया ही अविभावक। वनलता की नौकरानी मालती कभी-कभी टहलने आती है। वह वापस जाकर मुंह बिगाड़कर बताती, "अंगुली फूलकर केले का तना हो गयी है।"

कभी-कभी वनलता भी आती है और कभी-कभी मंजरी को निमंत्रण भेजकर अपने यहां बुलाती है। वह मुंह तिरछा नहीं करती है, सिर्फ मंद-मंद मुस्कराती हंसती है मंजरी के सुर्ख लाल होंठों को देखकर, हंसती है मंजरी के रंगीन नुकीले नाखूनों को देखकर, हंसती है मंजरी के जूड़े को देखकर जिसमें सोने की कंघी लगी रहती है और हंसती है मंजरी की शालीनताहीन उग्र आधुनिक पोशाकों को देखकर। इन्हीं सब चीजों से मंजरी को भयंकर घृणा थी।

फिर भी वनलता उसे चाहती है।

कभी-कभी उपदेश देती, "एक साथ इतनी सारी फिल्मों का कंट्राक्ट क्यों करती है? बहुत जल्दी भाव गिर जायेगा।" मंजरी मन-ही-मन हंसकर सोचती, "हाय, द्राक्षाफल अतिशय अप्त है।"

मुंह से मीठी हंसी हंसकर कहती, "क्या करूं लता दी, देशभर के डाइरेक्टर प्रतिज्ञा किए बैठे हैं कि मेरे बिना फिल्म ही नहीं बनायेंगे। किस कदर छीना झपटी हो रही है, तुम अगर देखो।"

वनलता हल्की मुस्कराहट के साथ बोली, "देखने की जरूरत नहीं है, थोड़ी बहुत अभिज्ञता मुझे भी है। फिर भी, इसीलिए कहती हूं तेरा स्वास्थ्य कुछ खास अच्छा तो है नहीं, इतनी मेहनत करने से कहीं खराब न हो जाए।"

"खराब हो जायेगा तो मर जाऊंगी, "मंजरी उदासी से कहती, "इस दुनिया में इससे किसी का क्या बनेगा या बिगड़ जाएगा?"

"अरे सर्वनाश!" वनलता ने बड़ी-बड़ी आंखें दिखाकर कहा, "बंगाल के बच्चे बूढ़े जवान औरत मर्द सभी का बुरी तरह से नुकसान होगा। सभी सिर पकड़कर बैठ जायेंगे। तू क्या चीज है शायद तू खुद नहीं जानती है।"

मंजरी इस मजाक पर हंसती। कहती, "सारी दुनिया जताकर छोड़ रही है। देखो न, बंबई का एक ऑफर लेकर देवेश मल्लिक हाथ धोकर मेरे पीछे ही पड़ गया है। अभी तक मैं कुछ तय नहीं कर सकी हूं।"

"बंबई?" वनलता ने विरूप भाव से कहा, "वहां जाने से ऐसी कुछ ख्याति नहीं होती है।"

"ख्याति न सही, सुदर्शन-चक्र तो होता है?" मंजरी साटन के कुशन में कोहनी गाड़ते हुए हंसते-हंसते टूट पड़ी।

हां, आजकल मंजरी इस तरह की हंसी हंसना सीख गयी है।

"तुम्हें ज्यादा रुपयों की जरूरत क्या है?''

"रुपयों की क्या जरूरत है? तुमने तो हंसा दिया लता दी? यही सवाल

तो तुम खुद से ही पूछ सकती हो।"

वनलता गंभीर होकर बोली, "मुझमें और तुममें फर्क है मंजू। मुझे शराब पीना रहता है, मुझे दो चार जानवर पालने पड़ते हैं, गांव में रुपया भेजना पड़ता है।"  

"गांव में रुपया भेजना पड़ता है।"

पहली दोनों कैफियतों को घृणा भाव से सुना था पर तीसरी बात सुनकर मंजरी संभालकर बैठी।

"तुम्हारा गांव में घर है?"

"तू यह सवाल पूछ ही सकती है क्योंकि मुझे देखकर लगता होगा, धरती फटी होगी और में निकल आई होवूंगी। है न?"

"नहीं नहीं, मैं यह नहीं कह रही हूं। मैं पूछ रही हूं वहां घर में कोई है क्या?"

"और क्या है ही।"

"कौन है?"

"सभी। मां बाप, भाई भौजाई।"

स्तंभित मंजरी भौंचक देखती रह गयी, "वे लोग तुम्हारा रुपया लेते हैं?"  

"पहले नहीं लेते थे। लेने की बात सोच ही नहीं सकते थे। मैं ही छिपकर जाती थी गांव, भौजाई से मिलकर, हाथ पांव जोड़कर राजी करवाकर... ''

"क्यों?'' सहसा मंजरी तनकर बैठ गयी, "क्यों, हाथ पांव जोड़ने की जरूरत क्या थी?"

वनलता विपन्न भाव से फीकी हंसी हंसकर बोली, "पिताजी को पक्षाघात है, भाई पागल है।"

"ओह! इसके मतलब, नितांत निरूपाय होकर ही दया करके उन्होंने तुम्हारा रुपया लेकर तुम्हें कृतार्थ किया है यही न? वरना शायद बायें पैर की छोटी अंगुली से भी न छूते।"

"वह तो सच बात है।" वनलता और अधिक उदासी से बोली।

"फिर भी उनके दुःख से तुम्हें ममता होती है?"

"होती है।"

"उन्होंने शायद तुम्हें झूठा बदनाम करके भगा दिया था?"

मंजरी का गुस्सा देखकर वनलता हंस पड़ी।  

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