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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

21

फिलहाल वह पूर्णिमा के जाल में फंस गया है। लोकलाज से बचने के लिए भाग आईं थीं पूर्णिमा। जिसकी बहू दिनदहाड़े कुल त्यागकर चली जाए, उसके पास मुंह छिपाने की जगह कहां है?-काशी वृंदावन हरिद्वार ऋषिकेश नहीं जाएंगी तो जायेंगी कहां? कहा है यहां से वह बद्रीनाथ, केदारनाथ भी जायेंगी।

पूर्णिमा चक्कर काटा करती हैं मंदिरों के, घाटों के, साधू-संतों के आश्रमों के और अभिमन्यु भागता फिरता है एकांत की तलाश में, परितक्त मंदिरों के आसपास।

इन्हीं मूर्तियों के बीच ही क्या छिपी है सांत्वना?

"मावल्स।"

दो तीन दिन से आ रहा था, किसी प्राणी से भेंट नहीं हुई है। आज सहसा एक बंगाली युवक का आविर्भाव हुआ और वह भी हाथों में कमंडल नहीं, सिगरेट का टिन लिए हुए।

पोशाक-धोती कुर्ता नहीं, सूट।

"मार्वल्स।"

अनजाने में उच्छावसित यह मंतव्य मुंह से निकलते ही युवक की नजर अभिमन्यु पर पड़ गयी। जल्दी से अपने को संभालते हुए नमस्कार करने जैसी मुद्रा बनाते हुए बोला, "माफ कीजिएगा, आपको देखा नहीं था। आपकी शांति में विघ्न डालने के लिए लज्जित हूं।"

अभिमन्यु भी चौंक उठा था। उठकर खड़े होते हुए हाथ जोड़कर बोला,  "अरे आप इस तरह से क्यों कह रहे हैं? मैं तो टहलते हुए यहां आ गया था।"  

"मैं भी। लेकिन यहां आकर अच्छा लग रहा है। यह जगह बड़ी अच्छी है।"

लड़के के चेहरे पर, आंखों में खुशियों से भरा, कौतुकपूर्ण उच्छलता थी।

उसके कंधे से लटके कैमरे पर अभिमन्यु की नजर पड़ी। ओ: तो इसीलिए इस परितक्त भूमि पर इनका आविर्भाव हुआ है।

कंधे से कैमरा उतारते हुए युवक बोला, "आप अच्छे भले बैठे थे, आप की फिगर भी जबर्दस्त है। बात करके सब मिट्टी कर बैठा। चुपचाप एक तस्वीर खींच लेता और एलबम में लगाकर नीचे लिखता "भूला नहीं भूला नहीं हूं प्रिया।"  

"मतलब?'' चौंककर तीखा प्रश्न पूछा अभिमन्यु ने, "आपने ऐसा क्यों कहा?''

लड़का शायद इस तरह के प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। जरा अप्रस्तुत सा होकर बोला, "मैंने कोई गंभीरता से सोचकर यह बात नहीं कही थी। यूं ही... आपके बैठने का ढंग कुछ विरही-विरही सा लगा इसीलिए कह दिया। अपराध हो गया हो तो क्षमा कर दीजिए।" युवक को संदेह हुआ, शायद महाशय का हाल ही में पत्नी वियोग हुआ है।

अब लज्जित होने की बारी थी अभिमन्यु की।

पलटकर क्षमाप्रार्थना उसने भी की और दो-चार बातों के बीच दोनों मित्रता के बंधन में बंध गए।

युवक अविवाहित था। अभिमन्यु से उम्र में काफी छोटा था। नाम सुरेश्वर।

पेशे से वाणिज्य करता था। उसके अपने शब्दों में, ''यह काम गौण है। बाप दादाओं की चालू की गयी गाड़ी, उसी पर बैठकर उसे लुढ़काता चल रहा हूं। प्रधान पेशा है फोटोग्राफी। बाप का पैसा हो तो इंसान में कितनी बुरी लते पड़ जाती हैं। ये तो अच्छी आदत है। आपका क्या कहना है?''

दिन बीता, महीना फिर साल।

वृद्धा पृथ्वी और वृद्धा हुई। इंसान के जीवन की जटिलता और बढ़ी। समाज राष्ट्र, नैतिक, आर्थिक और व्यक्तिगत जीवन की जटिलता भी बढ़ती ही जा रही थी। बढ़ रहा था सभ्यता का मान, शिक्षा का उत्कर्ष, बढ़ता जा रहा था जीवनयात्रा का उपकरण और उसके साथ-साथ असहायपन। कब, किस युग में इंसान आज जैसा असहाय था?

आज इंसान पकड़ सके ऐसा कोई खूंटा नहीं है। विज्ञान और सभ्यता का आकर्षण उसे भगाए लिए जा रहा था। किधर? स्वर्ग की ओर या रसातल में?

यही तर्क छिड़ा था अभिमन्यु और सुरेश्वर के बीच केदार बद्रीनाथ जाते जाते।

सिर्फ मां के साथ तीर्थों में घूमते-घूमते अभिमन्यु का दिल भारी हो गया था, तिल-तिलकर उसका मन मृत्यु की चपेट में आता जा रहा था, सुरेश्वर ने आकर अभिमत्यु को इन सबके हाथों से छुटकारा दिला दिया। अभिमन्यु ने जीवन को नई दृष्टि से देखा। नीरस लंबा रास्ता सरस हो उठा दो असम-उम्र के मित्रों की बातों से, हंसी से तर्क और कौतुक से।

अभिमन्यु भूलने लगा वह कितना अभागा है, समाज में उसके लिए जगह कहां है? भूल गया कि उसे फिर कलकत्ता लौटना होगा, परिचित समाज को मुंह दिखाना पड़ेगा। कर्मस्थल में?

सुरेश्वर का कहना है-वह मानस कैलाश तक जाएगा कैमरा कंधे से लटका कर। अजीब शौक है। शौक के लिए कितना कष्ट उठा रहा है, मुसीबतें झेलने को तैयार है।

सुरेश्वर हंसकर कहता, "घर में इसके लिए क्या कम डांट खाया हूं? आने से पहले सात दिन तक मां ने मेरा मुंह नहीं देखा था, बात नहीं की थी।'

"फिर भी तुम''

"तो क्या करूं बताइए। कहते हैं न 'यह रोष चिरकाल नहीं रहेगा।' शौक बड़ी बुरी चीज है अभिमन्यु। भूत की तरह गर्दन पर सवार होकर घूमा करती है। पर किया क्या जाए? आप जैसे देवता-मानव कितने होते हैं बताइए?''

"अचानक मुझे ये अपवाद क्यों?"

"क्यों नहीं? इतने दिनों से आपको देख रहा हूं लेकिन आज तक आप में मनुषोचित कोई गुण तो नजर नहीं आया। न शौक है, न नशा है। पत्नी वियोग हुआ है, उदास होकर मां के पदानुसरण करते हुए तीर्थयात्रा करते फिर रहे हैं। हुं:, और मैं होता तो तुरंत एक और पत्नी संग्रह कर हनीमून के लिए निकल पड़ता। भोज खाता, सिगरेट पीता, तस्वीरें खींचता। वह सब कुछ नहीं-धत्।"

पत्नी वियोग वाली बात पूर्णिमादेवी की परिकल्पना है। सुनकर पहले तो अभिमन्यु सिहर उठा था, उसके बाद चुपचाप मान लिया था।

अभिमन्यु मुस्कराकर बोला, "एक तो अभी तक जुटा न सके तो दूसरी।"

"मन के माफिक मिल नहीं रही है अभिमन्यु दा। अट्ठाईस साल से पृथ्वी पर चरता फिर रहा हूं आज तक ऐसी एक लड़की नजर नहीं आई जिसे देखते ही दिल कह उठे, "वाह, यही तो है मेरी वनलता सेन। जिसे कई जन्मों से पाता-खोता आ रहा हूं।"

"तुम बहुत वाचाल हो।"

"आपने जान लिया है न?" सुरेश्वर निर्मल हंसी हंसा। उसकी हंसी ने निर्जन पर्वत को चौंका दिया।

काफी पीछे रह गयी पूर्णिमादेवी माला जपते-जपते और हांफते हुए पास आते-आते चिल्लाई, "तुम लोग क्या मुझे छोड़कर आगे निकल जाओगे? इतने उछलते कूदते हुए क्यों चल रहे हो?''

मन-ही-मन दांत घिसते हुए बोलीं, "अच्छे खासे मां बेटे थे, न जाने कहां से ये शनि आ धमका? सब मेरा भाग्य है।"

उधर अभिमन्यु मन-ही-मन सोच रहा था, "आ: अगर मां साथ न होतीं तो मैं भी अनायास ही मानस कल्याण चला जाता। मां बाधा बन गयी है।"

सुरेश्वर की चिंता कुछ और थी। फिल्म रोल वह काफी ले आया था लेकिन उसे फिक्र थी, पूरी पड़ेगी या नहीं, इस बात की। यहां कहीं मिलने की संभावना है या नहीं? सुना है बदरीनारायण के मंदिर के पास बहुत सारी दुकानें हैं-शायद वहां यह चीज मिल जाये।

"अच्छा अभिमन्यु दा, आप लेखक-वेखक तो नहीं हैं?''

"क्यों भला?"

"यूं ही पूछ लिया, बेफिक्र होकर अपने विचार प्रकट कर सकूंगा। आपने देखा होगा लेखक कितने झूठे होते हैं।"

"अर्थात्?''

"यही देखिए न, जा रहा हूं महाप्रस्थान के पथ पर लेकिन ऐसी एक भी विदुषी सुंदरी तरुणी आपकी नजर में पड़ी क्या जिसे उपन्यास की नायिका बनने के उपयुक्त कहा जाए? जरा भी नहीं। यहां तक कि कोई अलौकिक शक्तिधारी साधु ने भी अक्समात दर्शन नहीं दिये। यह सब होता-वोता नहीं है। सारी फालतू बकवास वाली बातें हैं।"

अभिमन्यु हंसकर बोला, "साहित्य तो बकवास और मनगढंत बातों का ही खजाना है।''

"वहीं गलती है। कहानी गढ़ ली जाए, चलिए ठीक है। लेकिन घटनाचक्र भी तो स्वाभाविक होना चाहिए न।"

"घटनाचक्र? इंसान के जीवन में कितने अस्वाभाविक घटनाचक्र घटते हैं तुम जानते नहीं हो।"

"इसके मतलब हुए आप जानते हैं।"

"क्यों भाई, इस बात का आविष्कार करके ही दम लोगे क्या?"

"हां, सोच तो रहा हूं कि आपका आविष्कार करके ही दम लूंगा। जरूर आप किसी घटनाचक्र में पड़कर ही... ''

पूर्णिमादेवी पास आ गईं।

थका चेहरा। लंबी-लंबी सांस लेने की वजह से सीना उठ बैठ रहा था। रोषाक्त दृष्टि।

"तू मेरे साथ ऐसा करेगा पता होता तो मैं तेरे साथ यहां न आती अभी। हवा की तरह भागता हुआ बढ़ रहा है, होश तक नहीं है कि बूढ़ी मां पीछे छूट गयी है। ओफ: कितना कष्ट दे रहा है भगवान।" अभिमन्यु म्लान अप्रतिम भाव से मां को सहारा देता है।

लेकिन वेपरवाह सुरेश्वर हंसकर बोल बैठा, "लेकिन मौसीजी आप डांडी नहीं चढ़ेंगी, कांडी पर नहीं बैठेंगी तो अब तकलीफ हो रही है कहने पर काम कैसे चलेगा? आप ही लोग तो कहती हैं कि कष्ट किए वगैर भगवान नहीं मिलता है।"

"तुम चुप रहो बेटा।"

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