नई पुस्तकें >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
18
अस्त-व्यस्त सुनीति चेहरा उठाकर मंजू को देखते ही हाहाकार कर उठीं, "अब क्या देखने आई रे? तेरे जीजाजी अब नहीं हैं रे। तुझे लाने की जगह खुद ही सबको छोड़कर चले गए।"
पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रही मंजू। न उसने दीदी को सांत्वना दी, न खुद रोई। सुनीति की तीन बेटियां हैं। छोटी मौसी के निमायिक भाव देखकर वे सब करवट बदलकर लेटी। ये लोग तीन दिन से न उठीं थीं न पानी पीया था।
सुनीति ही बोलती रहीं, "तू आकर यहां रहेगी इसलिए तेरे जीजाजी कितनी प्लानिंग कर रहे थे। तू बीमार है, कहीं तुझे कोई असुविधा न हो इसलिए सारी तैयारी कर रहे थे। और खुद किसी तरफ देखा नहीं सबको छोड़कर चले गए।"
उस समय निश्चल बैठी मंजरी सोच रही थी मनुष्य के भाग्य का निश्चय करने वाला कैसा होता है? दीदी चुप हो जाएं तो सोच रही थी, कहेगी, "मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। यहां रहने के लिए ही आई हूं।"
लेकिन बोल न सकी। सुनीति की बातों से स्पष्ट हो गया कि वह इस घर में अब पलभर नहीं रुक सकेगी। श्राद्ध का काम निपटते ही वह बड़ी ननद के पास हजारीबाग चली जाएगी। वह सुनीति को अपनी बेटी मानती हैं।
अतएव सारे संकल्प पर धूल फिर गयी।
उसने संकल्प किया था अपनी कमाई से अपना व्यय भार वहन करेगी दीदी के यहां रहकर। संकल्प था उपार्जन करके अभिमन्यु का ऋण चुका देगी। नहीं, इन कुछ वर्षों के दांपत्य जीवन के अन्न वस्त्र का ऋण नहीं, बल्कि जिस क्षण अभिमन्यु ने उस भंयकर बात का उच्चारण किया था, उस क्षण उनका विवाह विच्छेद हो गया था। उसके बार से गैर-रिश्तेदार अभिमन्यु ने जो भी खर्च किया था मंजरी पर, वही ऋण उतार देगी मंजरी। कानून की मदद से विवाह विच्छेद? वह तो बाद की बात है। सचमुच का विच्छेद तो पहले ही हो जाता है।
मंजरी की बीमारी पर अभिमन्यु ने बहुत खर्च किया था, जिसे वह मानता है कि मंजरी ने खुद बुलाया है। इस ऋण को न उतारा तो मंजरी को चैन नहीं।
लेकिन फिलहाल ये सारे संकल्प ठहर न पाये।
इतनी बड़ी दुनिया में मंजरी के लिए कोई आश्रय नहीं। भाइयों का घर? वह तो और भी कड़ुआहट भरा।
जहां जितने रिश्तेदार हैं मंजरी के, आज तक जिन्हें मंजरी जानती है, सब को याद करने की कोशिश की लेकिन कहीं रौशन की किरण नजर न आई। उसे लगा सभी उसके मुंह पर दरवाजा बंद करके ऊपर खड़े होकर व्यंग भरी हंसी हंस रहे हैं।
अतएव वही विडन स्ट्रीट का पुरान तिमंजिला।
जहां केवल पूर्णिमा की क्रूर सर्पिल दृष्टि और अभिमन्यु का लाल गंभीर चेहरा।
उसी चेहरे के साथ अभिमन्यु मंजरी के सामने लाकर रखता दवा का गिलास, लाकर रखता अंगूर, अनार, छेना और संदेश की प्लेट।
देखकर रग-रग में धिक्कार की ग्लानि दौड़ जाती।
रग-रग विद्रोह कर उठता।
तब क्या मंजरी का अंतिम परिणाम होगा-आत्महत्या?
सहेली रमला अवाक् होकर बोली, "तेरा दिमाग फिर गया है क्या? दुनिया में अभिमन्यु बाबू जैसे भले आदमी कहां मिलेंगे? उनके साथ तेरी नहीं पट रही है?"
मंजरी हंसकर बोली, "मान ले मैं ही बुरी हूं। इसीलिए तकरार हो रही है। अभिमान करके चली आई हूं अब तो लौटकर जा नहीं सकती हूं। तू मुझे 'पेइंग गेस्ट' बनाकर रखती है तो बता।"
गला रुंध आया, प्राण होंठों तक आ गये, अपमान के कारण आंखें भर आईं फिर भी हंसी का पर्दा डाले रही मंजरी। पति के साथ झाड़कर सहेली के पास चली आई है। ताकि पति को शिक्षा मिले-इससे ज्यादा कुछ नहीं पति-पत्नी का कलह। जगत के समस्त विरोधों में सबसे हल्की चीज है जो।
लेकिन रमला ने बी.ए. पास किया है, इतने दिनों से घर संसार चला रही है। दो-तीन बच्चों की मां है, उस पर मंजरी की सहेली है। अतएव मूर्ख नहीं है। मूर्ख होती तो मंजरी तक पहुंच न पाती।
अतएव उसकी नजरों से मंजरी के रहस्य की सच्चाई ज्यादा देर तक छिपी न रह सकी। मन-ही-मन बोली, "हुं हुं, जब तुम फिल्मों में काम करने गयी थीं, तभी मुझे शक हो गया था, तुम्हारा सुखी संसार आग की चपेट में आ गया। समझ रही हूं मामला काफी पेचीदा हो गया है। लेकिन अपनी पूंछ में आग लगाकर मेरे घर में क्यों आई हो बाबा? मैं नहीं तुम्हारे जाल में फंसने वाली।"
लेकिन मुंह से शराफत और दोस्ती की ठाट बनाए रखना जरूरी था। इसीलिए बोल उठी, "क्या बोली? पेंइग गेस्ट? मेरे घर में तू दो दिन रहेगी पेंइग गेस्ट बनकर? जा जा, निकल यहां से। जिस मुंह से तूने यह पापकथा कही है, वह मुंह मैं देखना नहीं चाहती हूं। क्यों भई, मेरा क्या इतना ही बुरा हाल है कि तू दो दिन रहना चाहेगी तो मैं... ''
मंजरी ने अभिनय करते हुए हंसकर कहा, "दो दिन कहा? कहा तो हमेशा के लिए... ''
"ईश! उसके बाद अभिमन्यु बाबू आकर मेरे हाथों में हथकड़ी पहनवा दें और श्रीधर तक घसीट ले जाएं।"
"अहा, इतना आसान है क्या? मैं क्या नावालिग हूं?"
"अरे बाबा! औरत जात ही नावालिग होती है। नावालिग क्यों चिरबालिका। वरना बुढ़ापे में यह झमेला करती? आ, बैठ।... क्यों? क्या मोटर में बेडिंग सूटकेस है? तब तो अच्छा खासा एक उपन्यास है। तूने तो मुझे सोच में डाल दिया। इस घर में मेरा एक नावालिग पालतू प्राणी है... उसे लेकर मुझे एक पल शांति नहीं है। कहीं मौका पाकर, वह न परकीया रस का आस्वादन करने बैठ जाए।" हंसते हुए रमला वहां से चली गयी और मुंह बनाकर पति से जाकर बोली, "देखो तो जरा, बैठे बैठाये मुसीबत आ टपकी है।"
पति-पत्नी देर तक सलाह परामर्श करते रहे। क्या कहना उचित होगा और किस तरह कहना ठीक होगा इसका प्लॉन बनाकर रमला जब इस कमरे में वापस आई तब देखा न है मंजरी न उसकी टैक्सी। सिर्फ मेज पर एक कागज पर दो लाइनें लिखी थीं
"रमला, मजाक कर गयी, बुरा मत मानना। सचमुच मैं पागल थोड़े ही हो गयी हूं कि तेरे तुख के मोतियों में पिरोए घर के मोतियों को नोंच डालूं।
पति-पत्नी ने एक-दूसरे की तरफ देखा। रमला ने धीरे-धीरे एक सांस छोड़ी। स्वस्ति की नहीं शर्म की। अभी तक दोनों ने मंजरी के सोच की जो आलोचना की थी, वह सारी हास्यकर हो गयी। मंजरी से छुटकारा पाने के लिए इन्होंने जो सब बड़े-बड़े प्लॉन बनाए थे वह मच्छर मारने के लिए तोप दागने जैसी घटना हो गयी। थोड़ी देर बाद रमला ने कहा, "जानती थी ऐसा ही कुछ होगा। बड़ी झक्की लड़की है वह।"
रमलापति मुस्कराकर बोली, "तभी न तुम्हारी सहेली, है।"
नहीं, कहीं जगह नहीं मिलेगी।
अब खुला है दूर फैला हुआ रास्ता।।
खुला रह गया सारा वाह्यजगत।
खुला रह गया आत्मध्वंस का द्वार।।
इस ध्वंस की मूर्ति को लोग देखेंगे। देखेगा समाज और सारी दुनिया। लोगों को और कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। अवज्ञा और उदासीनता, घृणा और अवहेलना, संदेह और सहानुभूतिहीनता के पाषाण भार से धकेलते हुए जो लोग एक जिंदगी को आत्मध्वंस की भयानक खाई के पास ले आए, जो उसे उस खाई में कूदते देखकर भी हाथ में हाथ धरे बैठे रहे, उनके नाम की महिमा गाई जाएगी उनका नाम महिमा अंक में चढ़ गया। वे सतर्क हैं, सावधानी बरतते हैं, उनके पांव नहीं फिसलते है।
जो लड़कियां रास्ते पर उतर आती हैं, उनके इस उतरने का इतिहास कब किसने जानने का प्रयास किया है? वे नीचे उतरती चली गई, समा गईं, ध्वस्त हो गईं और यही उनका परिचय बन गया।
गांथिनू फूलेर माला।
तांबूल साजिनू दीप जालाइनू
मोंदिर होइल आला।
आमी बंश लागिया... ''
अर्थात् मैं प्रिय के लिए सेज सजाकर, फूलों की माला पिरोए, पान लगाए, द्वीप जलाकर मंदिर जगमगाए बैठी हूं।
'चौधरी मैंसन' के तिमंजिले पर स्थित एक सुसज्जित कमरे में साटिन की कोमल गद्दीदार बिस्तर पर शरीर को ढीला छोड़, रेशमी कुशन से टेक लगाए वनलता ये पदावली गुनगुना रही थी।
वनलता ने दूध के फेने जैसी मुलायम रेशमी बिना किनारे की साड़ी पहन रखी थी। एक गहरे लाल रंग का साटन का ब्लाउज, हाथों में बिजली से झिलमिलाते दो मोटे कंगन, मांग के बीच एक छोटी सी टिकुली-बस और कहीं कोई गहना नहीं।
पोशाक में नयेपन का शौक है वनलता को। नित्य नये-नये फैशनों का आविष्कार करती है और बेझिझक जो जी में आया पहनकर निकल पड़ती है।
देहसज्जा चाहे जैसी करे, वनलता की गृहसज्जा त्रुटिहीन है। तीन कमरे और बालकनी वाले इस फ्लैट का हर कमरा सीलिंग से लेकर फर्श तक सर्वत्र ऐश्वर और विलासिता का चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
यद्यपि पुरुष मित्रों का अभाव नहीं है पर रहती यहां वह अकेली ही है। पालतू लोगों में एक नेपाली चौकीदार है जो सर्वदा सीढ़ी के पास बैठा रहता है और घर के भीतर देवनारायण चर्खी की तरह चक्कर काटा करता है। जरा सी भी कहीं धूल दिखाई दी या कुछ इधर से उधर हुआ तो देवनारायण की नौकरी जाने को होती है। और एक चीज है वनलता के पास-वह है सुहागी और शौकीन नौकरानी मालती। वनलता उसका परिचय नौकरानी कहकर करती है लेकिन मालती उसके पीठ पीछे कहती फिरती है कि वह वनलता की दूरदराज की बहन है। खैर पीठ पीछे कही गयी बात कोई बात ही नहीं। मालती का काम है सिर्फ मालकिन का काम करना और उनकी परितक्त कपड़ों को पहनकर इठलाते फिरना। देवनारायण उसे फूटी आंख नहीं पसंद करता था। नेपाली और मालती दोनों से उसे ईर्ष्या थी।
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