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मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15409
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....

17

"ठीक है, ठीक है... वहीं समझियेगा। लेकिन यह काम आपने ठीक नहीं किया। कम-से-कम पांच मिनट के लिए मुझे मंजरीदेवी से मिल तो लेने देते। वह जब नाबालिग नहीं हैं तब... ''

"देखिए, ये मेरे काम का वक्त है। अब आप जा सकते हैं आपको जो कुछ कहना है कोर्ट में ही कहिएगा।"

"अच्छा नमस्कार।"

नलिनी बाबू गाली गलौज करते हुए कार पर जा बैठे। किसे? किसे नहीं। अभिमन्यु को, मंजरी को, गगन घोष को, फिल्म लाइन को और अपनी किस्मत को।

नलिनी बाबू के चले जाने के बाद, काफी देर तक अभिमन्यु गुमसुम बैठा रहा।

सोचने की कोशिश करने लगा कि मामला क्या हो गया? काफी बहस हुई, काफी बातचीत हुई उस आदमी के साथ। अंत में उस बदमाश ने कोर्ट तक जाने की धमकी तक दी। शुरू में अभिमन्यु काफी शराफत से पेश आता रहा, हाथ जोड़कर बोला भी कि मंजरी अस्वस्थ है डाक्टर के कहने के मुताबिक उसे लंबे अर्से तक रेस्ट करना है... लेकिन वह आदमी था कि पीछे ही पड़ गया। हाथ रगड़-रगड़कर कहता ही जाए, "वादा करता हूं उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होने दूंगा। आउटडोर का काम नहीं, स्टूडियो के भीतर ही। मोटर से जाएगी, मोटर से ही लौटेंगी। कहें तो मैं खुद पहुंचा दूंगा। वरना हम बेमौत मारे जाएंगे सर... बिल्कुल मारे जाएंगे।" इत्यादि इत्यादि। उस धूर्त सियार जैसे मुंह से कब तक विनय वचन सुना जा सकता है?

फिर भी हाथ जोड़कर कहा था अभिमन्यु ने, "माफ कीजिए महाशय-डाक्टर ने मना किया है।" इस पर उस बदमाश ने कहा, "आप हम अपना डाक्टर लाने देंगे सर? शहर के मशहूर डाक्टर को कंपनी के खर्चे पर ले आऊंगा।"

इसके बाद तो शराफत बनाए रखना असंभव ही हो गया। झगड़ा हो गया और तब अभिमन्यु ने प्रस्ताव रखा कि अनुबंध भंग करने के अपराध में जो भी क्षतिपूर्ति देनी पड़ेगी, वह देगा।

गुस्सा आ गया था। नलिनी बाबू के जाने के बाद अभिमन्यु सोचने लगा कि गुस्से में आकर कह तो दिया लेकिन इतनी बड़ी रकम वह लाएगा कहां से? उधार ले? रिश्तेदारों से, भाइयों से मांगे? कारण क्या बताएगा? इससे क्या सम्मान बचा सकेगा?

ओफ! मंजरी उसकी इतनी बड़ी दुश्मन थी?

मन में बातों की नदी तेज बहती रही, उसके साथ चिंता की धारा। सहसा अभिमन्यु चौंककर स्तब्ध रह गया। अपनी असतर्क चिंताधारा की गति पर वह अकेले कमरे में बैठे-बैठे लज्जा और ग्लानि से गड़ सा गया।

हां, अभी तक वह मरने की बात ही सोच रहा था। अपनी नहीं, मंजरी की। सोच रहा था, इससे अच्छा होगा मंजरी ठीक ही न हो, अगर मर जाए तो और भी अच्छा हो। सारी बदनामी के हाथ से छुटकारा पाकर निष्कलंक पवित्र शोक को गले लगाकर अभिमन्यु जिंदगी काटता। उसे अपनी चिंताधारा पर दुःख हुआ।

कल मंजरी को अस्पताल से घर लाने की बात है। अभी तक वह घर नहीं आई है और उसके काम पर जाने की तारीख तय करने फिल्म वाले आ धमके तो क्या गुस्सा नहीं आएगा? बार-बार सोचने की कोशिश की अभिमन्यु ने कि गुस्से में आकर वह ऐसी एक निष्करुण चिंता को प्रश्रय दे रहा था लेकिन उसे छापकर एक कष्ट पीड़ित, उदास चेहरा नहीं उभर रहा था?

दीर्घ पलकों के बीच काली दोनों आंखों में अभिमान भरकर नहीं कहती रहीं, "तुम ऐसे हो?''

लेकिन अभिमन्यु भी क्या करे? वह भी तो हाडमांस से बना इंसान है।

कल मंजरी को ले आने की बात है।

यद्यपि मंजरी से वह पूर्णिमादेवी की शर्तें बता नहीं सका था, सिर्फ कहा था कि अब मां की मर्जी के मुताबिक चलना पड़ेगा। वरना पूर्णिमादेवी घर छोड़कर तीर्थवास करने लगेंगी। लेकिन इस बीच सुनीतिदेवी जिद किए बैठी हैं कि वह मंजरी को अपने पास ले जाकर रखेंगी। मंजरी भी यही ठाने हुए है।

ओफ! कैसे इस दुर्दिन से छुटकारा मिले? कब लौटेंगे अभिमन्यु के अच्छे दिन?

दूध के बाद कहानी की किताब। उसके बाद रात का खाना। उस वक्त तक मन-हीं-मन प्रतीक्षा कर रही थी। केबिन के नियम थोड़े ढीले हैं। वेवक्त आया जा सकता है। शाम को काम के कारण फंस गए तो ज्यादा रात होने पर भी आया जा सकता है।

लेकिन कितनी ज्यादा रात?

ग्यारह? बारह? इसके बाद क्या गेट खुला रहता है? खुला रहता है आने का रास्ता?

नर्स अचानक बोल उठी, "आज दीदी को नींद नहीं आ रही है?''  

"नहीं। अजीब सी गर्मी लग रही है।"

"गर्मी नहीं खुशी।" नर्स हंसने लगी, "सभी पेशेंटों को देखती हूं जाने के पहले दिन, रात को सोते नहीं हैं।"

खुशी!

मंजरी सोचने की कोशिश करती है कि अस्पताल से छूटने की बात सोचकर उसे खुशी हो रही है। लेकिन नहीं तो। बल्कि आतंक सा हो रहा है। हां आतंक। बल्कि यहां अच्छी थी। उत्तरदायित्वहीन, चिंतारहित हल्का जीवन। कल से फिर युद्ध।

कल दिन के दस बजे छुट्टी।

सुनीति से बात हो गयी है, विजय बाबू भी आएंगे दस बजे।

अस्पताल के कागजों पर हस्ताक्षर कर देगा तो अभिमन्यु अपने दायित्व से छुट्टी पा जाएगा।

विजयभूषण के साथ ही चली जाएगी मंजरी।

अपने घर?

मंजरी का अपना घर कहां है? जिस अभिमन्यु ने स्पष्ट रूप से संदेह किया है कि मंजरी ने अपने संतान की जान-बूझकर हत्या की है, उसी अभिमन्यु का घर न?

निर्लज्ज था वह संदेह-नग्न निरावरण था उसका उद्घाटन। उसी क्षण सब कुछ खत्म हो गया था। जांच हो गयी प्रेम और विश्वास की। निर्णय हो गया संबंधों का सच्चा रूप। फिर उसी घर में आश्रय लेने जाएगी मंजरी? फिर गर्भ में धारण करेगी अभिमन्यु की संतान?

छि:-छि:-छि:।

समस्त अंतरात्मा धिक्कार उठी। फिर भी न यातना न ईर्ष्या सारा मन एक गहरे सूनेपन से पीड़ित था। झिलमिलाते पत्तों की शाम, हताश प्रतीक्षा की शून्यता। अभिमन्यु नहीं आया आश्चर्य है-इंसान का मन भी कैसा है?

आश्चर्य रहस्यमयी रात्रि की लीला।

सुबह का रूप अलग।

सूर्य स्पष्ट, रूढ़, सूर्य वास्तविक। सूर्य के प्रकाश के आगे मोहमयी दुर्बलता की कोई जगह नहीं। सुबह के प्रकाश में मंजरी ने अपने मन को दृढ़ कर लिया था।

सुबह अभिमन्यु आया।

दस बजने ही वाले थे।

क्लिष्ट अंधकार छाए चेहरे पर रात्री जागरण के चिन्ह।

नहीं, मंजरी उस चेहरे की तरफ नहीं देखेगी। उसका यह थका उदास चेहरा मंजरी को पराजित करना चाहता है। पुरुष इसी कारण जीतता है। यही उनका हथियार है, कौशल है। मंजरी ने हृदय को कठोर बनाया।

"चलो।"

"जीजाजी नहीं आए?"

"नहीं।"

"उन्होंने मुझे कहा था, वह ही आयेंगे।"

"देख ही तो रही हो, वचन निभा नहीं सके हैं।"

"मैं विडन स्ट्रीट वाले घर में नहीं जाऊंगी।"

"पागलपन मत करो। चारों तरफ लोग कौतूहल से सुनने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ठीक है। तब तुम मुझे दीदी के वहां पहुंचा दो।"

"वह नहीं होगा।"

"क्यों नहीं होगा? कह तो दिया कि तुम्हारे विडन स्ट्रीट वाले घर में मैं नहीं जाऊंगी।"

"मैं तुमसे विनती करता हूं मंजरी, यहां और अधिक बचपना मत करो।"

फिर वही कौशल? फिर उदास वेदनामय चेहरे का जाल।

उपाय भी तो नहीं है... यहां सीन क्रीएट करना भी तो ठीक नहीं।

जीजाजी पर बड़ा गुस्सा आया। अभिमानवश रोना आ गया। होंठों को दांतों से दबाकर मोटर पर जा बैठी।

घर पहुंचकर और कोई बात न कर, सीधे टेलीफोन की तरफ बढ़ गयी मंजरी। लेकिन अभिमन्यु ने क्या सोचा है? वह क्या उसे नजरबंद रखना चाहता है? मंजरी के रिसीवर पकड़े हाथ को पकड़कर बोला, "फोन मत करो।"

"क्यों?" व्यंग हंसी हंसकर तीखी आवाज में मंजरी बोली, "इतनी स्वाधीनता भी नहीं रही?''

"तुम्हारे भले के लिए ही मना कर रहा हूं मंजरी।''

"मेरा भला? ऐसा करने की क्षमता तो अब भगवान की भी नहीं रही। हाथ छोड़ो, मैं जीजाजी को बुलाती हूं अभी ले जाने के लिए।"

"वह नहीं आयेंगे।"

"नहीं आयेंगे? मेरे बुलाने पर भी नहीं आयेंगे? तब तो जरूर तुमने उनके साथ भयंकर कुछ किया है। वरना मैं बुलाऊं और वह न... ''

"तुम क्यों किसी और के बुलाने पर भी वह नहीं आयेंगे मंजरी। सहस्रबार बुलाने पर भी वह सुन न सकेंगे। कल शाम को अचानक गर्दन की नस फट जाने से उनकी मृत्यु हो गयी है।"

भगवान नाम का सचमुच कोई है क्या?

गलत-गलत, कोई नहीं है। मानव जीवन का नियंत्रणकर्ता अगर कोई है तो यही हिंसक शक्तिधर क्रूर एक आत्मा है। करोड़ों वर्षों से अत्याचारित मानव के अभिशाप से और भी हिंसक हो गयी है, उन्माद हो गयी है आत्मा।

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