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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

8

सोमप्रकाश ज़रा अस्वस्ति का अनुभव करने लगे। बात लड़कों के कानों तक पहुँचेगी तो वे मन्तव्य करेंगे। करते भी हैं। कहते हैं-'इसी को कहते हैं ननिहाल का लाड़। उधर बाप के पैसों में कीड़े लग रहे हैं। फफूंदी पड़ रही है।' पर इस समय उनकी बातों का कोई साक्षी नहीं रहेगा। इसीलिए बोले- 'क्या? फिर दोस्तों के साथ कहीं घूमने जाना है क्या?'

उदयभानु अँगड़ाई लेते हुए बोला-'नः। इस बार किसी के साथ नहीं-अकेले। और घूमने भी नहीं-माथा ठोंकने।'

सुकुमारी पूछ बैठीं-'माथा ठोंकने के क्या मतलब हुए?'

'वह तुम नहीं समझोगी। मामदू ठीक समझ जाएँगे। इसका मतलब है भाग्य आजमाने। एक हेवी-चान्स मिल रहा है, समझे मामदू। एक बार बम्बई पहुँच भर जाऊँ...मात्र हजार दस रुपया हो तो...'

चौंक उठे सोमप्रकाश-'हजार दस?'

'अरे! आश्चर्य है। यह इतना क्या ज्यादा है? क्या तुम जानते हो बम्बई जाना कितनी खर्चीला है? जाकर कम-से-कम पाँच-सात दिन हो अपने खर्चे पर रहना होगा। इसके बाद लग गया तो फिर कोई खर्च नहीं। तो इन पाँच-सात दिनों के लिए, दस हजार तो कुछ भी नहीं है मामदू। सच कहूँ तो भिखारियों की तरह रहना पड़ेगा।'

धीरे से सोमप्रकाश बोले-'अभी भी हायर सेकेन्डरी तो पास नहीं किया है...कौन-सी नौकरी की उम्मीद से जाना चाह रहा है? सिनेमा में काम करना चाहता है क्या?'

'ठीक समझा है। अक्ल है न इसीलिए। पर मुझे 'काम करना' शब्द से आपत्ति है। कहो फिल्मों में 'उदय' होना चाहते हो। नए आकाश पर नए तारे के रूप में उदय होने जा रहा हूँ। पाने की पूरी आशा है। 'उदयभानु' नाम बदलकर 'कुमारभानु' रखूँगा।'

'पढ़ना-लिखना त्याग कर तू सिनेमा में काम करने जायेगा ताक्डुमाडुम?' सुकुमार बिगड़कर बोलीं। अपने इस नाती को बचपन से वह इसी ताक्डुमाडुम के नाम से पुकारती हैं अभिनव भले ही हो, चालू हो गया है।

ताक्डुमाडुम अपने स्टाइल से कंधे नचाते हुए बोला-'देखो दिद्मा, अपने आपको स्टडी करके मैंने समझ लिया है कि पढ़ना-लिखना मेरे वश का नहीं है। तब फिर बेकार में इसके लिए व्यर्थ ही जीवन के कुछ अमूल्य वर्षों को नष्ट करने से फायदा?...जिसे जीवन का लक्ष्य मान लिया है उसी रास्ते पर बढ़ना ठीक है न?'  

'हाय रें मेरा भाग्य! सिनेमा करना ही तेरे जीवन का लक्ष्य है? वह भी हिन्दी सिनेमा?'

'गंवारों जैसी बातें मत करो दिली! पर मैं पूछता हूँ इसमें अवाक होने जैसी कौन सी बात है? लक्ष्य सिनेमा करना नहीं, सिनेमा में हीरो बनना है। स्टार बनना है। यह क्या ऐसी वैसी बात है? बंगाली लड़के तो हर मामले में पिछड़े हुए हैं। एक आध लोग ही ज़रा बहुत बढ़ सके है। ये जो बंगालियों का लड़का 'मिठुन' है? आज उसे लोग जानते हैं, पहचानते हैं, उसे सम्मान श्रद्धा और पैसा मिला है कभी इस बात को सोचकर देखा है क्या? करोड़-करोड़पति है। मन्त्री तक उसके दरवाजे पर डटे रहते हैं। खबर रखती हो कुछ? बम्बई न गया होता तो देख पाता यह दिन?'

फिर ज़रा ठहर कर बोला-'और सिनेमा देखने के लिए तो सब पागल हैं बाबा। और जो लोग इस आर्ट को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हीं आर्टिस्टों को न जाने क्यों तुम लोग अछूत समझती हो...मेरे फादर ने तो सुनते ही इस इकलौते बेटे को त्याग देने की घोषणा कर दी है। दीजिए, दीजिए, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। मैं पूछता हूँ दिद्माँ, तुम्हारे इस विशुद्ध वंश में, सिर्फ कलम घिसकर कितने लड़के कलकत्ता शहर का शेरिफ बन सके हैं? समझोगी नहीं...वह सब तुम न समझोगी। इस बूढ़े भले आदमी को समझाया जा सकता है इसीलिए इनके पास अर्जी पेश की है। ओ मामदू, झटपट रुपया छोड़ो...ज्यादा वक्त नहीं है।'

'क्यों रे ताक्डुमाडुम, दस हजार रुपए इस कुरते की जेब में भरकर लेटा हूँ-यह सोच रहा है तू?'

'अरे मैं क्या ऐसा कह रहा हूँ? पर अर्रेन्सी समझाने के लिए ही जल्दी मचा रहा हूँ। हाँ मैं प्रॉमिस करता हूँ कि अगर भविष्य में तुम माँगोगे तो दस गुना लौटा दूँगा तुमको।'

इस लड़के के बेमतलब के जिद्द ने सोमप्रकाश को दिन में तारे दिखा दिए। फिर भी स्नेहांध मन। उसकी कान्तिवान सुन्दर आकृति और वाक्यपटुता के मधुर आकर्षण ने उन्हें बन्दी बना रखा है।...और क्या है कोई जो सोमप्रकाश के पास आकर इस तरह से मन को मसा बनाने वाली बातें करता है और ऐसी जिद्द करता है? सभी के साथ तो दूरी बनी हुई है...अपने बेटे तो सबसे ज्यादा दूर चले गये हैं। जीवन से 'सरसता' शब्द ही समाप्त हो गया है। जबकि सोमप्रकाश की प्रकृति में ऐसा था।

हँसकर बोले-'वापस चाहिए ऐसा कौन कह रहा है? लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि तू अगर वहाँ से रिजेक्टेड माल होकर लौटा तो तेरा भविष्य क्या होगा?'

'आहा। ऐसे कैसे रिजेक्ट हो जाऊँगा? कहा न हेवी चान्सेज हैं? और फिर चेहरा 'मारकटारी' है यह तो मानते हो न? यही उनकी प्रमुख माँग है। एक धनी घर का रूपवान इकलौता लड़का...' सुकुमारी पूछ बैठीं-'तू तो कह रहा है हिन्दी में फिल्म बनेगी। तुझे हिन्दी आती है?'

'ये तो नहीं कहूँगा कि बहुत अच्छी आती है। यही हिन्दी फिल्में देख-देखकर जो ज्ञान अर्जित किया है।'

'तो फिर? उसी ज्ञान के भरोसे तू हीरो बनना चाहता है?'

'ओ हो हो दिद्मा। नो प्राबल्म। हीरो है गूँगा और बहरा।'

'ऐं?'

'चौंक क्यों रही हो?'

'गूँगा बहरा का पार्ट करेगा हीरो बनने के लिए? ए माँ! इससे अभिनय की कौन सी बहादुरी दिखा सकेगा?'

उदयभानु अब 'उदित भानु' बनकर बोल उठा-'दिखा सकूँगा, जरूर दिखा सकूँगा। बड़ा जबरदस्त रोल है। निर्वाक युग की यादें जगा देगा, ऐसा सुना है। केवल 'अभिव्यक्ति'। ओफ। कहा न जबरदस्त है। मामदू तब फिर बात पक्की? न? कब आऊँ? बताओ। कल? परसों? तरसों?... ओफ... मुझे इतनी खुशी हो रही है कि...'

सोमप्रकाश उस खुशी से चमचमा रहे चेहरे की तरफ देखते हुए हिसाब लगा रहे थे कि किस तरह, किस मद से यह रुपया निकालेंगे और इतना सारा रुपया देंगे। 'नहीं दे सकूँगा' यह बात कही नहीं जा सकती है। 'मैं तेरे जीवन के 'परम लक्ष्य' के प्रति श्रद्धाशील नहीं हूँ अतएव नहीं दूँगा', यह बात ही कैसे कहें? इस युग में जबकि समाज की यही पृष्ठभूमि है। देख तो रहे हैं चित्र तारकाओं का राजकीय सम्मान, उन्हीं का बोलबाला है। महान महान नेतागण आकर उनके दरवाजों पर खड़े रहते हैं। इसके मतलब चश्मा तो बदलना ही पड़ेगा।

इस घर का वह छोटा इन्सान भी ताक्डुमाडुम भाई की तरह बुलाता है-'मामदू। छोटे तो अनुकरणीय होते ही हैं। उसकी भी इच्छा होती है भाई की तरह हाथ-मुँह हिलाते हुए शरीर को मोड़ते हुए बातें करे। लेकिन उसकी ये इच्छा पूरी नहीं होती है। 'मालिक की इच्छा ही कर्म है' कि हिसाब से इस कमरे में उसकी भूमिका मुँह में चाभी बन्द खिलौने जैसी है। ज़रा सा मौक़ा मिला नहीं कि चोरों की तरह कमरे में चले आना, इशारे से बातें करना।

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