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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

7

लड़कों की शादी के बाद इस शालीन व्यवस्था की जिम्मेदार स्वयं सुकुमारी ही हैं। तब बोली थीं-'इसके बाद मुझे भी अपनी माँ-दादी की तरह पोते-पोतियों को साथ लेकर सोना होगा। आदत बना लेने में ही भलाई है।'

पर वह परिकल्पना तो धरी की धरी रह गई और आज सुकुमारी सोचती हैं कि चक्षु-लज्जावश अपनी जिन्दगी खुद ही बिगाड़कर रख दी।'

कुछ न सही-दो सुख-दुःख के बोल बोलने वाले और है ही कौन? अधीनस्थों की अवज्ञा अवहेलना से दुःखी होकर आँसू बहाएँ तो कहाँ बहाएँ? हालाँकि जब भी मन का बोझ हल्का करने के इरादे से आती हैं, तो कोई खास समर्थन मिलता हो ऐसी बात नहीं है। फिर भी...

ज़रा देर सोने की कोशिश करने के बाद ही सहसा सुकुमारी बोल उठीं-'अच्छा, इस घर में इतने सारे लोगों के होते हुए भी छुट्टी के दिन बच्चे को घसीटते हुए ननिहाल ले जाते, इन्हें शर्म नहीं आती है?'

यद्यपि सोमप्रकाश सोए नहीं थे परन्तु इस प्रश्न के लिए प्रस्तुत भी नहीं थे। लेकिन उन्होंने तुरन्त उत्तर दिया। बोले-'शर्म शब्द का स्पेलिंग नहीं जानते होंगे इसीलिए शायद शर्म आती नहीं है।'

'घर का पका-पकाया खाना छोड़कर लड़का चला जाता है। हमारे मन को ठेस पहुँच सकती है, यह भी नहीं सोचते हैं।'

सोमप्रकाश अपने से उम्र में बारह-तेरह साल छोटी पत्नी को वात्सल्य की दृष्टि से देखते हैं-इसके अलावा उनका स्वभाव भी बालिका जैसा है। सोमप्रकाश की मानसिकता के पहुँच के आसपास तक नहीं फिर भी आश्चर्य की बात है कि कितनी शान्ति और सन्तोष के साथ आराम से इतने साल बिता दिए। संघर्ष? कहाँ? याद तो नहीं आता है।

वटवृक्ष के साथ क्या बैंगन के पौधे का संघर्ष होता है? पर सहनिवास में कोई असुविधा नहीं। इसीलिए इस जीवन में सुकुमारी को भी किसी तरह की असुविधा नहीं हुई थी। बल्कि हर तरह से गौरव का ही अहसास होता रहा था। अन्यान्य रिश्ते की महिलायें कहा करतीं-'कुछ भी कहो भई, तुम्हारी गृहस्थी इस युग के लिए एक आदर्श है। दो बेटे, दो बहुएँ लेकर आज के ज़माने में रह रही हो। एक ही घर में देवरानी-जिठानी आजकल यह दृश्य देखने को मिलता कहाँ है?'

अभी भी वही ढाँचा है ज़रूर फिर भी सुकुमारी को रह-रहकर लगता है कि 'दो बूँद आँसू बहा सकूँ ऐसी जगह है कहाँ?'

उत्तेजित होकर उठ बैठीं सुकुमारी। बोलीं-'अच्छा, माँ-बाप भी क्या सुशिक्षा नहीं दे सकते हैं? कह नहीं सकते हैं तेरा यह व्यवहार बड़ा ही दृष्टिकटु है? घर में दादा-दादी, ताई, आदिकालीन दो-दो पुराने काम के आदमी...इतने के रहते तू छुट्टी होते ही लड़के को ननिहाल लेकर आ जाती है।'

हमेशा ही सुकुमारी के उत्तेजना के क्षण में कही बात को सोमप्रकाश, 'अमृतं बालभाषितं' मानते आए हैं। उसी सोच के साथ बोले-'यह सुशिक्षा वे देने बैठेंगे अपनी बेटी को? उन्हें क्या अपने प्राणों का भय नहीं है?'

'प्राणों का भय? मतलब?'

'यह तो एक तरह से यही है न। ऐसी बात कहने से लड़की में चेतना जागेगी ऐसा विश्वास है तुम्हें? लड़की अगर कह बैठे 'ओ:, हाथ घुमाकर नाक पकड़वाया जा रहा है? सीधे-सीधे कह दिया होता तुमलोगों से अब रोज़-रोज़ इस जिम्मेदारी का बोझ नहीं उठाया जा रहा है।...इसके मतलब लड़की दामाद से ज़िन्दगी भर के लिए कट-ऑफ हो जाना। लड़की अपने लड़के के लिए 'क्रेश' की व्यवस्था करेगी। इस युग की लड़कियों में आत्ममर्यादाबोध कितना अधिक है, इस बात का ज्ञान है क्या तुम्हें?'

सुकुमारी भोंदुओ जैसे भाव से बोलीं-'अपनी माँ के साथ भी ऐसा करेंगी?' 'करेंगी नहीं? 'मैं ही सच हूँ' यह ही एकमात्र बात है।...लेकिन हर समय पराए घर की लड़की का दोष ही क्यों देखती हो? अपना लड़का भी तो इस व्यवस्था का सहकारी है।'

क्षोभभरी आवाज में सुकुमारी बोलीं-'यह बात क्या मैं नहीं सोचती हूँ? यही तो हुआ है आजकल-'तस्मिन तुष्टे जगत तुष्ट'। समाज संसार, सभ्यता, संस्कृति, कर्त्तव्य, चक्षुलज्जा जैसी बातें इनके लिए फालतू बातें हो गई हैं। बीवी खुश तो सब कुछ ठीक।...बिना रीढ़ की हड्डी वाले मर्द का जो हाल है।...तुम्हारे लड़के कैसे ऐसे हुए...'

सोमप्रकाश ज़रा हँसे। बोले-'अकेले मेरे नहीं, तुम्हारे भी हैं। असल में इस जमाने में कोई भी अब 'इस वंश का बेटा' या 'फलाँ माँ-बाप का बेटा' नहीं है। ये सब है 'इस काल के लड़के'। फिर हँसे-'पर हर समय बिना रीढ़ वाले नहीं हैं। गुरुजनों को 'समझा' देते वक्त काफी जोरदार और फुर्तीले होते हैं। खैर छोड़ो...क्या आलतू-फालतू बातों में समय नष्ट किया। ज़रा सो लिया होता? फिर तो काम का चक्का घूमने लग जाएगा...रात के दस-ग्यारह बजे तक घूमेगा।...टी.वी. के प्रोग्राम के निर्देश पर तो डिनर-खाने बैठेंगे।'

सुकुमारी भी इसी बात पर कुछ कहने जा रही थीं कि सीढ़ी के दरवाजे वाली घंटी बज उठी। हाय हाय। बहू आ गई क्या? जल्दी से उठ बैठी सुकुमारी। व्यस्तभाव से दरवाज़ा खोलने गईं। और खोलते ही हँस उठीं। हँसते हुए बोलीं-'ओं माँ! मेरे अहो भाग्य! तू! मामला क्या है? आज किसका मुँह देखकर जागी थी मैं।...अरे सुनते हो...देखो तो कौन आया है?'

हालाँकि 'सुनते हो' देखने के लिए उठकर नहीं आए। अभ्यागत ही हड़बड़ाकर उनके कमरे में चला आया। और सोमप्रकाश भी बोल उठे-'आई सी! फक्कड़ बहादुर! इसीलिए सोच रहा था ऐसा किसका आविर्भाव हुआ कि सुकुमारी देवी इतनी उल्लास प्रकट कर रही हैं। तो...क्या खबर है? घर के सब लोग ठीक-ठाक तो हैं?'

'घर में? सब! सब! तुम्हारे लड़की दामाद, उनकी कन्याएँ एवं इत्यादि प्रभृति...केवल यही अभागा ठीक नहीं है।'

'क्यों? तुझे अलग से क्या हुआ? अभी तो परीक्षा का रिजल्ट भी नहीं निकला है।'

'गोली मारो परीक्षा के रिजल्ट को। कहीं कोई पेपर के खो जाने से रिजल्ट निकलना अभी गहरे पानी में है। वह बात छोड़ो-मेरी प्राब्लम अलग है।'

सुकुमारी हँसते हुए बोलीं-'क्यों, अभी से तेरी अलग कैसी प्राब्लम है? किसी के साथ दोस्ती-वोस्ती तो नहीं कर बैठा है?'

'छोड़ो यह सब सड़ी बातें। तुम तो बस यही जानती हो। 'मामदू' के साथ मुझे एक 'बिजनेस टॉक' करनी है।'

'मामदू' है 'मामा के यहाँ के नाना' का सक्षिप्तसार।

सोमप्रकाश की लड़की का यह बेटा, जब से बोलने लगा है तभी से अपने दादाजी को 'दादू' बुलाता आ रहा है और सोमप्रकाश को कहता था 'मामा के यहाँ के दादू' जिसका अपभ्रंश 'मामदू'।

और उसी बाल्यकाल से 'मामदू' के साथ 'बिजनेस टॉक'। बाप है जबरदस्त कंजूस। उनकी मानसिकता है पैसा इकट्ठा करना। और आजकल एक और शौक़ चर्राया है-अपने बाप-दादाओं की तरह 'सम्पत्ति' बनाना। सोनारपुर में उन लोगों का बाग-तालाब समेत विराट मकान के रहते, उसने फिर जमीन, मछली पालन हेतु तालाब और न जाने क्या-क्या खरीदना शुरु किया है। सोमप्रकाश की बेटी भी उसी रंग में रंग गई है वरना इस ज़माने में पहला बेटा होने के बाद भी तीन-तीन बेटियाँ।

खैर जाने दो इसे, नाती उदयभानु अपने शौक़ और समस्त इच्छाएँ पूरी होने का भरोसा रखता था-यहाँ से। जैसे उस बार दोस्तों के साथ पुरी घूम आया, उससे भी पहले दीघा गया था। आते ही बोला था-'मामदू तुम्हारे साथ कुछ बिजनेस टॉक है।'

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