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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

6

सुबह का समय बीत चुका था।

दोपहर का समय, चारों ओर खामोशी।

सुकुमारी अपने पान का डिब्बा लेकर अब इस कमरे में कर बोलीं-'क्यों? सो रहे हो क्या?'

सोमप्रकाश ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया लेकिन थोड़ा-सा किनारे खिसक कर उनके लिए जगह बना दी।

यही प्रश्न का उत्तर भी था और अभ्यर्थना की अभिव्यक्ति भी थी।

सुकुमारी की क़द-काठी छोटी थी। ऊँची पलंग पर चढ़कर बैठती तो पैर ज़मीन से काफी ऊपर लटका करते। देखने से छोटी लड़की लगती थीं। और बैठते ही पाँव नचाने लगती भी हैं छोटे बच्चों की तरह।

डिब्बे से एक पान निकाल कर बोलीं-खाओगे?'

'क्या खाऊँगा? कब का तो छोड़ चुका हूँ।'

'वह तो जानती हूँ-पर क्या भीष्म की प्रतिज्ञा है? इतना सिगरेट पीते थे वह भी बिल्कुल छोड़ दिया...'

'ठीक ही तो है। डाक्टर भी तो मना करते हैं।'

'जानती हूँ। डाक्टर लोग तो सभी को कितना कुछ मना करते हैं लेकिन सभी क्या तुम्हारी तरह ऐसे गुरु के आदेशतुल्य मानते हैं?...बीच-बीच में कभी-कभार नियम भंग कर लेना ठीक होता है। अब मुझे ही जो केंकड़ा झींगा खाने को मना किया था, मैं क्या उतनी सख़्ती से मानती हूँ? या माना जा सकता है?...और फिर मानने से फायदा? न मानने से मरूँगी यही न? तो एक न एक दिन तो मरना ही है-एक बार से ज़्यादा तो नहीं मरूँगी न?'

सोमप्रकाश हँस पड़े। बोले-'वाह! तुम्हारा जीवन-दर्शन बढ़िया है। ख़ैर...अब गृहस्थी के दायित्व से फुर्सत मिली है?'

सुकुमारी ने हाथ का पान अपने मुँह में भरकर, थोड़ी तिरछी होकर लेटते हुए बोलीं-'अब मेरी गृहस्थी कहाँ रही? जब थी तब थी।'

सोमप्रकाश को एक बार लगा, बात बढ़ाने की क्या जरूरत है...व्यर्थ की मेहनत होगी। फिर न जाने क्या सोचकर धीरे से बोले-'ऐसा क्यों कह रही हो? तुम्हारी गृहस्थी तो तुम्हारी ही है। उसे तो किसी ने नहीं छीना है। सुना ज़रूर है कि आजकल की लड़कियाँ पति के घर आते ही घर की मुख्य खूँटी को उखाड़ फेंकने के इरादे से युद्ध की घोषणा कर देती हैं। पुरानी खूँटी उखाड़ फेंकने के बाद अपना खूँटा बड़ी मजबूती से गाड़ती हैं। लेकिन तुम्हारे घर में तो ऐसी घटना नहीं घटी है।'

सुकुमारी उदास स्वरों में बोलीं-'ऐसा कुछ घटा जरूर नहीं है लेकिन कोई इसे 'अपना घर' सोच भी तो नहीं रहा है।...दोनों ही सोचती हैं जैसे मिलने आई कोई रिश्तेदार हैं। असली घर वही मायक़ा ही है।...ऐसी घर-गृहस्थी चलाने में भला क्या सुख है? अब हमारी बड़ी बहूमाँ को ही ले लो, छोटी के देखादेखी इस बुढ़ापे में सिलाई-बुनाई सिखाने वाले स्कूल में नौकरी ले बैठी है। इसके कोई माने है? ऐसा सुख आराम और घर-द्वार छोड़कर कड़कती धूप में दोपहर के वक्त भाग रही है नौकरी करने। क्यों भई, क्या इस के बगैर चूल्हा नहीं जल रहा था?'

सोमप्रकाश शान्तभाव से बोले-'इस तरह से क्यों सोच रही हो? आजकल की सभी लड़कियाँ अपना का कर्मजीवन की इच्छा रखती हैं। सिर्फ घर-गृहस्थी में डूबे रहने में उन्हें सुख नहीं मिलता है।'

सुकुमारी होंठ उलटकर बोलीं-'लगता है तुम्हें भी इस ज़माने की हवा लगी है।...किसी बहुत बड़े ऑफिस के ऑफिसर की नौकरी तो है नहीं। जो मिलता है उससे ज़्यादा तो खर्च हो जाता है-रिक्शे के किराए और साज-सज्जा में। इसके अलावा रोज़ ही शाम को लौटती हैं 'सिर दर्द' ले कर। शाम को मेरा लड़का सारे दिन बाद घर वापस आकर देखता है, बहू सिर-दर्द की दवा खाकर कमरा अँधेरा किए लेटी हुई है। बेचारा चोर बना, उदास चेहरा लिए उसी अँधेरे कमरे में चुपचाप बैठा रहता है। और तुम अपने इस उम्र की बात सोचो...घर वापस आने पर तुम्हें साफ-सुथरा चमचमाता घर मिलना चाहिए, बच्चे साफ-सुथरे कपड़ों में झकाझक। और पत्नी भी...', कहते-कहते रुक गईं।

मौक़ा पाकर सोमप्रकाश ज़रा हँसकर बोले-'और क्या चाहता था? पत्नी बनारसी साड़ी पहन जूड़े में गजरा लपेटे छत ही चारदीवारी से टिकी राह देखती होतीं?'

सुकुमारी भी हँसती है। स्वभाव से शायद कुछ ज़्यादा हँसकर बोलीं-'आहा! उतना नहीं सही पर क्या यह नहीं चाहते थे कि काम-काज निपटाकर साफ-सूफ हो-सिर्फ तुम्हारे लिए चाय-नाश्ता लगाये बैठी मिलूँ?...नित्य नया जलपान हो तो क्या कहना।...कहो।'

गम्भीर भाव से हँसकर सोमप्रकाश बोले-'शायद ऐसा ही चाहता था। इसके मतलब नितान्त ही अत्याचारी पति था।'

'आहा! मैं क्या ऐसी बात कह रही हूँ? नखरे न करो।'

सुकुमारी ने अपना एक हाथ पति के शरीर पर धीरे से रखते हुए कहा-'क्या ही सुख के, आनन्द के दिन थे वह सब।...जब सोचती हूँ तो आँखों में खुशी के आँसू आ जाते हैं। 'सुख' किसे कहते हैं, 'आनन्द' क्या चीज़ है, ये बात हमने जैसे समझी थी, इस युग में क्या ये लोग समझते हैं? क्यों जी?'

सुकुमारी की कलाई में ढेर सारी चूड़ियाँ कड़े थे...सोमप्रकाश उनके भार से मुक्त होने के लिए, धीरे से हाथ को उठाकर पाँव तकिए पर रखकर कहते-'क्या मालूम? शायद समझते हैं। सुख का हिसाब तो हर युग में एक-सा नहीं होता है, न ही सभी समाज में।'

ज़रा ज़ोर डालते हुए सुकुमारी बोलीं-'कभी सुखी नहीं हो सकते हैं-मैं कह रही हूँ-सुख मिलता ही नहीं है। दोनों लड़कों का चेहरा देखा है? इस उम्र में उनके माथे पर बल पड़ गया है। चेहरे के भाव हर समय गम्भीर। हँसने की आवाज सुनाई पड़ती है जब दोस्त या साले-सालियाँ आई होंगी, या साढ़ू लोग आए होंगे। उनके चले जाते ही जो का सो।'

'तुम इतना ख्याल करती हो?'

'आँख, कान खुला रखने पर सब देखा जा सकता है।' सोमप्रकाश अपने ढंग से मृदुस्वरों में बोले-'अच्छा अब ज़रा आँखें तो मूँदों। कब भोर को उठी हो।

आजकल तो पूजा-पाठ भी खूब बढ़ा दिया है।'

'वाह! उम्र बढ़ रही है, ज़रा पूजा-पाठ में मन न लगाऊँ क्या? तुम्हारी तरह नास्तिक बन जाऊँ क्या?'

'वह भी एक बात है। लेकिन आस्तिक लोग भी वक्त पर खाते-सोते हैं।' 'तुम तो हर समय मजाक करते हो।' कहकर सुकुमारी और जरा पास खिसककर घनिष्ठ भाव से लेटीं। इस समय सीढ़ी वाला दरवाज़ा बन्द है। सुकुमारी उठकर जब तक खोलेंगी नहीं, झट से कोई घुस नहीं सकता है, अतएव पूर्ण निश्चिन्तता। बड़ी बहू तो लौटेगी वही शाम को पाँच बजे। बस यही एक निश्चिन्त अवसर है। रात को तो दूसरे कमरे में सोने की व्यवस्था है।

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