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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

32

क्या एक बार इनके बगल में लेटने पर, वह क्या कह रही हैं, सुना जा सकता है?

या वह सारी बातें केवल सुकुमारी के अवचेतन में डूब गये मन में ही ध्वनित हो रही हैं? यह होंठ उसी कारण स्पन्दित हो रहे हैं? अनुच्चारित उन बातों को समझने के लिए काश कोई यन्त्र होता।

अगर ऐसा कोई यन्त्र होता और उसमें से अनुच्चारित बातें क़ैद की जा सकतीं तो अधूरे कुछ वाक्य ऐसे सुनाई पड़ते-'तुम लोग मुझे फाँसी पर चढ़ा दो। खून करने के लिए फाँसी...भगवान...तुम इतने निष्ठुर हो? बड़े दुःख, बड़े अपमान के साथ मैंने सिर्फ...एक बार...पर क्या यह चाहा था? ओ भगवान! मैंने उस दिन तुमको क्यों 'दर्पहारी' कहकर पुकारा था? दया करो...दया करो।'

न:, पकड़ में नहीं आईं उनकी बातें। धीरे-धीरे थमती चली गईं। होंठ हिलने का अभ्यास भर रह-रहकर...

सोमप्रकाश बिल्कुल पास चले आये, झुक कर खड़े हुए। और जीवन में पहली बार लड़के, बहू सबके सामने उन्होंने पुकारा-'सुकुमारी।' मुँह अचानक उज्जवल हो उठ। और आश्चर्य की बात ये थी कि एक शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ा-'आयेगा?'

सोमप्रकाश बोले-'हाँ-हाँ आयेगा। सब कोई आयेंगे। तुम भी जाओगी। सबको साथ लेकर खुशियाँ मनाओगी।'

आँखों की पलकें धीरे-धीरे बन्द हो गईं। पूरी। नर्स ने आकर ऑक्सीजन की नली निकाल दी।

खाट का किनारा, कसकर पकड़े खड़े रहे सोमप्रकाश। उनके भीतर भी असंख्य निरुच्चारित बातें भीड़ लगाये खड़ी थीं-'सुकुमारी! तुमने तो खूब ठगा। मैजिक दिखाने के लिए मैजिशियन बुलवाने कहकर खुद ही दिखा बैठीं। मैं कितने ज़माने से अपने 'डैमेज हार्ट' का बहाना बनाये मूर्ति-सा बैठा रह गया...क्या पता शायद बहुत दिनों तक बैठ रहूँ। और तुम? तुम अपने स्टील के हार्ट की तारीफ करती हुई सबको मूर्ख बनाकर अचानक 'भौ कट्टा' करकें चली गईं। सुकुमारी हमेशा ही मैंने तुम्हें अण्डर एस्टीमेट किया-सोचता था तुम्हारे पास अक्ल कम है। अब समझ रहा हूँ तुम्हारे पास केवल 'शुद्ध बुद्धि' थी। अपने भीतर के असीमित प्रेम से तुम सदैव दुनिया जीतने की कोशिश करती रहीं। सुकुमारी, मैं अपनी बुद्धि के अहंकार के कारण तुमको करुणा भरी दृष्टि से देखता रहा। अब, अचानक अनुभव कर रहा हूँ कि तुम ही मुझ में अहंकार देखकर करुणा करती थीं मुझ पर। और तभी मेरे साथ लड़ने जैसी बचकानी हरकत नहीं की तुमने। सुकुमारी...इस दुनिया में तुम नहीं हो यह बात सोचने की इच्छा नहीं हो रही है-विश्वास करने की इच्छा नहीं हो रही है...'

'पिताजी', बड़ा बेटा बड़ी बहू पास आकर बोले-'चलिए, बाहर बरामदे में चल कर बैठिए-'

सोमप्रकाश कुछ कुद्र होकर बोले-'क्यों? मेरे यहाँ रहने से तुम लोगों को असुविधा हो रही है?'

'ये लोग यहाँ से बाहर जाने के लिए कह रहे हैं।'

'ओ! ये लोग।' मानों इस दुनिया में वापस लौट आये सोमप्रकाश। धीरे-धीरे उनलोगों के साथ बाहर आकर बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गये।

इसके थोड़ी देर बाद बहुत ही सहजभाव से बोले-'विमल, डेडबॉडी क्या एक बार घर ले जाना सम्भव होगा?'

विमल चौंक उठा।

पिताजी इतनी आसानी से डेडबॉडी कह सके?

*                             *                    *

अमल ने एक बार अपनी पत्नी से पूछा था-'किंग को तो काल छोड़ देंगे कह रहे हैं। आज उसे कमरे से निकाला जा सकता है। उसे क्या उस ब्लाक में नहीं ले जाया जा सकता है? यहाँ से माँ को ले जाने से पहले एक बार...'

सुनकर रूबी सिहर उठी।

'क्या कह रहे हो? पागल हो गये हो क्या? उसे उसकी इस हालत में उस भयंकर दृश्य के सामने खड़ा करना चाहते हो?'

अमल अप्रतिभ भाव से बोला-'सोच रहा था, बाद में जब पूछेगा कि अम्मा कहाँ गई तब क्या जवाब देंगे?'

'वह तब की तब देखी जायेगी। लेकिन अभी इस हालत में कभी नहीं। तुम भी ऐसी एब्सर्ड बातें करते हो। कहेंगे कि तुम्हारा अम्मा तस्वीर बन गईं हैं। टी.वी. में देखा करता है कि जीता जागता आदमी अचानक तस्वीर बनकर दीवार पर लटक रहा है।-वो क्या हुआ है जरूर समझ जायेगा।'

अमल इस तर्क को मान लेता है।

उसके सिर पर तो बोझ ही बोझ है। भइया बड़ा बेटा होने की वजह से मुखाग्नि करेगा। भले ही इस दायित्व से मुक्त हो गया हो, और भी अनेकों दायित्व तो हैं-उनमें से कुछ का भार तो वहन करना ही होगा। इधर कल लड़के को घर भी ले जाने का झमेला है। उधर सोमप्रकाश हैं।

अवनी और रसोइया तो हैं लेकिन सिर्फ उनके हिफ़ाजत में तो एक वयस्क हार्ट के मरीज को, जो शोक से कातर भी है, छोड़कर निश्चिन्त नहीं रहा जा सकता है।

डेडबॉडी अस्पताल से निकाल ले जाना इतना आसान काम नहीं। बहुत कहने-सुनने, बहुत दौड़धूप करने और हाथ-पाँव जोड़ने की जरूरत पड़ती है।

कई लोगों से कहना पड़ता है।

जबकि हर रोज़ कितने लोग अस्पताल में मर रहे हैं। सिर्फ इसी एक अस्पताल में नहीं, अनगिनत अस्पतालों में। इस ज़माने में कितने आदमी हैं जो अपने घर में बिस्तर पर लेटकर मर रहे हैं?

पैदा होने के लिए भी अस्पताल आते हैं और मरने के लिए भी अस्पताल आते हैं।

सोचने लगो तो आश्चर्य होता है।

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