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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

30

इसके बाद सुकुमारी रुकी नहीं। दौड़ते हुए दुमंजिले में आकर अवनी के हाथ में पकड़े अखबार पर झपट पड़ीं। छीनकर अपने कमरे में लेकर चली गई थीं।

और इसके बाद ही एक फटी-चिरे गले की तीव्र आवाज़ सुनी सबने-'ना, ना, ना, यह हो नहीं सकता है।'

थोड़ी देर बाद ही सम्पूर्ण संज्ञाहीन सुकुमारी को अस्पताल ले जाया गया था। उसी एस. आर. दास अस्पताल में। जहाँ पिछली रात से उनके बेटे, बहुएँ बैठे हैं। बैठे हैं। पर सुकुमारी की प्रतीक्षा में थोड़े ही। वे तो उन्हें देखकर आश्चर्य चकित हुए।

तो फिर सुकुमारी को लाया कौन?

सोमप्रकाश को क्या इतनी क्षमता है?

सो मुसीबत के वक्त असहाय का सहाय कोई तो होता ही है। स्वयं डाक्टर बाबू ने ही सारी व्यवस्था कर दी, एम्बुलेंस बुलवा लिया। और पड़ोसी-वे तो आगे आए ही।

अपने अपने काम-काज में व्यस्त अचानक मोहल्ले में एम्बुलेंस आया देख सभी को कौतूहल हुआ। किसके घर? एवं सान्याल के दरवाज़े पर रुकते देख सबके मन में सवाल उठ खड़ा हुआ-'तो भले आदमी चल दिए? शायद 'अब तब' हालत हो गई है। या...गिरकर हड्डी-वड्डी तोड़कर अस्पताल जा रहे हैं?'

कुछ लोग मन में इन प्रश्नों को लेकर आगे बढ़ गए, अपने-अपने धंधे में चले गए और कुछ लोग अत्यन्त कौतूहल लिए आगे आकर अवाक हुए-'अरे, ये तो महाशय नहीं, महिला। सज्जन तो गाड़ी के पास खड़े हैं।'

महिला को क्या हुआ? वही तोड़-फोड़ का मामला है क्या?

मेहनत का फल तो मिलेगा ही। अन्त में पूछपाछ कर उन कौतूहलियों ने पता कर ही लिया कि ही तोड़फोड़ हुआ है। पर वह बाहरी नहीं-भीतर। कौन जाने हृदय यन्त्र या मस्तिष्क...बड़े डाक्टर ही समझ सकेंगे। यहाँ के चरिपरिचित मोहल्ले के डाक्टर बाबू के निर्देश पर 'अभी अस्पताल ले जाना है', उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा है।

देखा जाए तो 'कुछ भी नहीं हुआ है।' हर दिन की तरह सुबह उठी थीं। नहा-धोकर पूजागृह में ऊपर चली गई थीं औंर वहाँ दो-ढाई घंटे बिताकर नीचे आईं थीं। आँगन के तुलसीमंच में पानी डाल रही थीं जब कोई पड़ोस की महिला आ गई थीं। उनसे बातचीत की थी। और इसके बाद ही दुमंजिले पर जाकर अखबार पढ़ने बैठ गई थीं।

रसोइया उनके लिए चाय बना रहा था।

इसके बाद?

इसके बाद पता नहीं क्या हुआ-किसी को कुछ पता नहीं। अचानक जैसे साँप के डसने जैसे की तरह कुछ कहकर चिल्ला उठीं। घर में उपस्थित लोग दौड़कर गए तो देखा, अखबार फर्श पर पड़ा फड़फड़ा रहा है और मालकिन फर्श पर निथर निश्चल पड़ी हैं।

पूरी खबर संग्रह करने में-संवाददाता पाँच-छह मौजूद थे। रसोइया, मोहिनी की माँ, उसके साथ आई दस की नातिन और संवाद देने से अति अनिच्छुक अवनी। 'अति अनिच्छुक' जान कर क्या कौतुहलीगण छोड़ देंगे? अतएव कारण ढूँढ़ते-ढूँढ़ते अचानक नोनीबाला के आविर्भाव का भेद खुला।

तो सुकुमारी देवी का मरणास्त्र आज के अखबार में छिपा था। अचानक वही उन्हें चुभ गया।

जिन लोगों ने अभी तक खोद-खोदकर अखबार का पठन-पाठन नहीं किया था, जो खोद-खोदकर पढ़ते ही नहीं हैं और जो अखबार ही नहीं पढ़ते हैं-वह सभी घर जाकर पूछताछ करने लगे कि कौन सी वह खबर है जो सुकुमार सान्याल के मरणास्त्र का रूप धरकर आई।

तो हुआ आविष्कार।

केवलमात्र एक ही अखबार में नहीं, लगभग सभी अखबारों में ये खबर निकली थी। हाँ कुछ संवाददाताओं ने इसे मामूली मानकर दो लाइन में लिखा था और कुछ ने साधारण शब्दों में एक खबर की तरह से एक कोने में निकाल दिया था।

और बाक़ी दो एक ने इस युग के संवादिकता में जिसे 'कहानी लिखना' कहेंगे, उसी तरह से खूब ज़ोरदार, रोमांचक, और घुमावदार बनाकर घटना या दुर्घटना को कहानी की तरह परोसा था। और इसके लिए अखबार का एक बड़ा हिस्सा कवर किया था।

हेडिंग 'दिन दहाड़े दुःसाहसिक डकैती'! 'पूर्व दिगन्त हाउसिंग स्टेट के आठवें मंजिल के.. 'इतने' नम्बर के वाशिन्दे, राज्य सरकार के पर्यटन विभाग की ऑफिसर श्रीमती रूबी सान्याल, हर दिन की तरह दिनान्त कर्मक्लान्त देह और मन से अपने घर लौटीं, हमेशा की तरह स्वचालित लिफ्ट द्वारा आठवें मंजिल के अपने फ्लैट के बन्द दरवाजे को, पर्स में से चाभी निकाल कर खोलकर, निश्चिन्त मन से फ्लैट में घुसी थीं।

लेकिन इसके बाद?

इसके बाद उनकी भयंकर आत्मा हिला देने वाली चीख सुनकर आस-पास के पड़ोसी दौड़े आये थे। उन्होंने आकर देखा फ्लैट के भीतर के सारे दरवाज़े खुले और घर के भीतर का सारा सामान गायब।

गोदरेज की अलमारियों के पल्ले ही नहीं, उनके लॉकर के पल्ले भी खुले। घर के फर्श पर कुछ...फालतू कागज, बिजली का बिल, चश्मे का प्रेसकिप्श घरेलू सामानों की रसीदें, गैरेन्टीपत्र, ख़रीदने की तारीख, वगैरह फैले पड़े थे। और बीच वाले कमरे के फर्श पर हाथ-पाँव फैलाए चारों खाने चित्त पड़ी थीं श्रीमती सान्याल। फ्लैट की मालकिन। न, उनके शरीर पर किसी तरह का आघात का चिह्न मौजूद नहीं था। स्पष्ट जान पड़ रहा था फ्लैट में प्रवेश कर भीतर का दृश्य देखकर वे बेहोश हो गई थीं।

किसी तरह की हाथापाई या 'विध्वस्त' अवस्था का नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा था, टेलीफोन की लाइन के साथ भी कोई छेड़खानी नहीं हुई थी। यहाँ तक कि डाइनिंग टेबिल पर पानी का जग भी लगभग भरी हालत में मेज़ पर रखा हुआ था। जितना कम हुआ था वह व्यय किया था पड़ोस की गृहणी ने चेतना लौटाने के उद्देश्य से और सफल भी हुई थीं। और किसी समय बच्चे ने टिफिन खाया था उसके चिह्न भी मौजूद पाए गये। प्लेट के आसपास केक के चूरे छिटके फैले पड़े थे, प्लेट पर आधा खाया एक चॉप भी रखा था।

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