नई पुस्तकें >> चश्में बदल जाते हैं चश्में बदल जाते हैंआशापूर्णा देवी
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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।
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उदास स्वरों में सुनेत्रा बोलीं-'वही तो ठीक था रे, अचानक ये धुन क्यों सवार हुई?'
'धुन को क्या कोई बुलाकर लाता है सवार होने के लिए माँ? वह खुद ही सवार हो जाती है। खैर, तुम इस बात को लेकर परेशान मत हो। पर मैं सोच रहा हूँ उस बारह तारीख की बात को। सच माँ! बचपन का सबसे ज्यादा खुशी और आनन्द का स्थल उस ननिहाल में फिर कभी जाना न होगा सोचकर मन बेहद उदास हो गया है। और इसके लिए खुद को ही जिम्मेदार समझता हूँ।'
'लो सुनो लड़के की बात! इसमें तुम कहाँ से आते हो?'
'मेरे लिए ही तो तुमने मामदू पर दबाव डाला।'
'छोड़ उस बात को। तेरे मामा-मामियाँ क्या धुली तुलसी हैं? सभी मिलकर दबाव डाल रहे थे। और सच भी है, सिर्फ दो आदमी इस तरह से शाही ठाट-बाट से रहकर सारा पैसा फूँक कर चले जाएँ-यह इच्छा भी तो ठीक नहीं।'
'हजार बार ठीक है।' सहसा मानो सोया शेर जागकर गरज उठा-'सिर्फ दो आदमी क्यों कह रही हो? कहो दो राजा रानी, सम्राट सम्राज्ञी! ओह, चलूँ-देर हो रही है।'
'अभी चला जायेगा? तेरे बाप, ताई, ताऊ, दादी से मिले बगैर ही...'
'बारासत से शाम के बाद वापस लौटूँगा। पर वे लोग गए कहाँ हैं? दिखाई नहीं दे रहे हैं?'
'मेरा दुर्भाग्य। आज ही वे लोग गाँव का घर देखने गये हैं। अब तेरी तरक्की के फलस्वरूप बड़े ज़ोर-शोर से तेरे पिताजी गाँव का घर ठीक करवा रहे हें।'
मेज़ से अटैची उठाकर आगे बढ़ने को तैयार उदय हँसकर बोल उठा-'ये अच्छा है-कोई खो रहा है, कोई बना रहा है। यही दुनिया का खेल है।' इस नाटकीय टिप्पणी के बाद माथे पर हाथ छुलाकर नाटकीय भाव से कहा-'सलाम मदर! चलता हूँ रे बुड़बुड़ी बाक़ी दोनों शायद घर पर नहीं हैं-शाम को रहेंगी न?' तूफ़ान की तरह बाहर चला गया।
कार पर बैठकर सोचने लगा-'ईश! घर के लोगों की खबर लेना ही भूल गया। मामदू के यहाँ की भी नहीं जबकि वहाँ बराबर उनका ध्यान आता था...'
कभी जो चीज़ सबसे ज्यादा महत्त्व रखती थी वही बाद में गौण कैसे हो जाती है?
फिर सोचने लगा, अगर लटक गया तो विश्वासघातक दोस्त को माफ कर सकूँगा क्या? ओ:, कभी उसे एक सुनहले चश्मे के भीतर से देखा करता था। और मैं? मैं ही क्या कम नमकहराम हूँ? मामदू के पास से लाख तीन लाख रुपया झटक कर चला गया और उनसे मिलता तक नहीं हूँ? इस बार भी समय न निकाल सकूँगा।...देखता हूँ उस बारह तारीख़ को अगर...'
* * *
सुबह का अखबार आते ही उसे दुमंजिले पर बाबू को देने के लिए जाते जाते अवनी बंगला अखबार की हेड़ लाइनें पढ़ता चलता है। आज भी ऐसा ही कर रहा था जब अचानक ठोकर खाकर गिरते-गिरते बचा। नहीं, सीढ़ी पर नहीं-आँखों से।
इसीलिए अखबार का एक स्थान से दबाकर आया और बोला-'बाबू यह पता तो ज़रा देखें। क्या लिखा है?'
'क्या लिखा है?'
'देखिए न। जाना-पहचाना लग रहा है। ए.पी. सान्याल, फ्लैट नम्बर...' सोमप्रकाश ने जल्दी से हाथ बढ़ाया।
उन्हें भी ठोकर लगी क्या? उन्हें भी जाना-पहचाना पता भयंकर अनजाना लगा न?'
चश्मा उतारकर बार-बार धोती के कोने से पोंछने लगे। लेकिन अचानक आँखें ही अगर धुँधला जाए तो क्या करें?
बोले-'चश्मा अचानक, आँखें कुछ...देख नहीं पा रहा हूँ। अपनी माँ को ज़रा बुला लो। अरे, न न, बुलाना नहीं। अखबार छिपा दे।'
फीका पड़ गया चेहरा लिए अवनी बोला-'अभी ढूँढ़ेंगी। आजकल काम तो है नहीं। सुबह ही...उससे तो अच्छा होगा, ये पन्ना ही...'
लेकिन इन लोगों के छिपाने से क्या होगा? इतने दिनों का सुकुमारी का मोहल्ला, यहाँ क्या उनकी जान-पहचान वाली नहीं हैं? वे लोग आकर उन्हें खबर नहीं सुना जायेंगी? जैसे विशेष हितैषिणी नोनीवाला देवी? मोहल्ले के शरत दत्त की विधवा दीदी?
बालविधवा! आजीवन पितृगृहवासिनी। उनका काम ही है सुबह शाम दोनों वक्त मोहल्ले में चक्कर काटना और खबरों को इधर से उधर करना। पीठ पीछे 'गेजेट' के नाम से जानी जाती हैं। सो आज उनका यहाँ आना, एक बहुत ही स्वाभाविक घटना थी।
आते ही बोलीं-'तुम लोग तो 'आनन्द बाज़ार' लेती हो न?'
सुकुमारी ने सिर हिलाकर हामी भरते हुए पूछा-'क्यों, आपके यहाँ अभी दिया नहीं है क्या?'
'नही-नहीं-दे तो गया है बहुत तड़के-सुबेरे। मेरे भाई के बहू ने भी कब का पढ़ लिया है। टी.वी. में कब क्या है देखते समय...देखते-देखते सिहर उठी...'
'क्यों? फिर कोई नारी-उत्पीड़न का केस था क्या?'
'हाँ, वह भी एक था बता रही थी। पर बता रही थी तुम्हारे छोटे बेटे के फ्लैट की घटना को...'
'मेरे छोटे बेटे के फ्लैट की घटना? कौन सी घटना?'
'आ हा, इसके मतलब तुम अभी तक कुछ भी नहीं जान पाई हो मैंने तो अपने भाई-बहू से कहा, 'उन्हें क्या अखबार पढ़कर खबर जानने की इन्तज़ारी होगी? रात ही को लड़के जरूर...'
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