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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

26

चतुर अवनी हालाँकि पहले से ही अन्दाज लगाये बैठा है कि घर छोड़कर जाते समय बाबू उन्हें 'छोड़' देंगे। तथा क्षतिपूर्ति के तौर पर इतने दिनों से सेवा करने के पुरस्कार स्वरूप 'कुछ' रुपया भी देंगे। पर बीस हजार? ...आहा ...लोग ठीक ही कहते हैं, सचमुच बाबू का दिमाग खराब हो गया है।

फिर भी सावधानी से अपने को सम्भालकर बोला-'जी बाबू बीस हजार?'  

'अरे, आज के दिनों में यह ज्यादा कहाँ है? अब तू अपने को ही ले अगर गाँव जाकर तू कोई दुकान खोलना चाहे तो उसके लिए रुपया चाहिए कि नहीं? एक दुकान बनाने में ही तो...और मिसिर के दो भैंस खरीदने में ही...'

अवनी बोला-'तो क्या इस अट्टालिका को बेचने का आधा रुपया इन दो भूतों को दे देंगे?'

'कौन आदमी है और कौन भूत-तू जानता है क्या? छोड़ उस बात को। पहले उसकी बात ही कर लूँ। भतीजे को बुलाकर समझा दूँ कि किस तरह रुपया मिलेगा तो सारा इन्तजाम करके उसे भतीजे के साथ गाँव भेज दूँ...'

अवनी बोला-'बेयरर चेक होगा न बाबू?'

'हाँ रे हाँ। देख रहा हूँ तू सब जानता है लेकिन हमारे रसोइया...इसीलिए झट से एक दिन जाकर उसके भतीजे को कह तो आ'

'बाबू।'

'क्या है रे?'

'रसोइए को फिर गाँव तक पहुँचना नहीं पड़ेगा। भतीता धक्का मारकर ट्रेन के नीचे...'

'मतलब? तू कहना क्या चाहता है?'

'जी जो बात सच है वही कह रहा हूँ। बीस हजार रुपया और रिश्ते का चाचा-किसका मूल्य अधिक है?'

'अवनी, तू इतना नीच है, छोटे मन का है।'

'हजार बार मानता हूँ बाबू। नीच से भी ज्यादा नीच, बेहद छोटे मन का...लेकिन आँखों पर रंगीन चश्मा थोड़े ही चढ़ा रखा है? तगड़ी धूप साफ-साफ नजर आ रही है।'

'अरे तूने तो सोच में डाल दिया। अब उसका क्या होगा?'

'जी अगर आप कहें तो, ये अवनी अभागा-उन्हें माल सामान के साथ ले जाकर उनकी पत्नी तक पहुँचा आ सकता है।...तब तो इस अभागे के पास कोई काम-काज तो होगा नहीं...सब-कुछ खत्म हो जाएगा...' कहकर उसने मुँह फेर लिया और आँसू पोंछ डाले।

उसे देखते हुए सोमप्रकाश बोले-'तो तुझे कैसे विश्वास कर लूँ? अपने आपको क्या धर्मपुत्र युधिष्ठिर समझता है?'

'जी हाँ सोचता हूँ।'

अब क्या आँख पोंछने की बारी सोमप्रकाश की थी? आजकल उनकी आँखों से जब देखो तब पानी आता है। 

अपने आपको सम्भालकर बोले-'ठीक है तब यही तय रहा। उसको बता दूँ? एक बार बुला देगा?'

'बुला दूँगा लेकिन कोई खास फायदा नहीं होगा। वह तो रात-दिन रो रहा है अब यह सब सुन लेगा तो फूट-फूट कर रोना शुरु कर देगा। बल्कि वक्त आने पर ही बताइएगा। आप तो कह रहे हैं न कि दो-चार महीने का समय है।'

'हाँ-यही कोई महीने तीन साढ़े तीन है। अच्छा रहने दे।'

सोचा, एक समस्या तो मिटी-बेवकूफ सीधा-साधा कुलदीप मिसिर की समस्या...लेकिन समस्याओं का क्या कोई अन्त है?

सोमप्रकाश के लड़कों को अगर पता चल गया कि सोमप्रकाश की बेटी अपने हिस्से का रुपया पहले ही पा गई है? ले भी गई है तो?

नए सिरे से एक विस्फोट नहीं होगा क्या?

बेचारे सोमप्रकाश। अब सोच रहे हैं। क्यों यह मकान बनवाया था क्या किराए के मकान में रहकर जिन्दगी काटी नहीं जा सकती थी? तब, मरते वक्त ऐसे जटिल जाल में उलझ कर न मरते। बुलावा आते ही मुक्त-चित्त निकल पड़ते।

अचानक याद आया, बचपन में एक वैष्णवी, पहले जिस मोहल्ले में रहते थे, वहाँ भीख माँगते समय गाती थी-'ये कलेवर, यह तो दूसरे का घर है, किराया देकर रहते हो किराए के घर में। जब समय होगा, समन जारी होगा, उठ जाना होगा तुमको मन रे।'

याद आने पर मन ही मन हँसे-इस गाने की एक लाइन बदल डालनी है-इस युग में 'समन' 'नोटिस' किसी का भी जोरदार असर नहीं है। 'नोटिस' मिलते ही किराए का मकान छोड़कर जाना पड़ेगा, ऐसा कानून नहीं है। अतएव अगर उसी बुद्धि के अनुसार रहे होते सोमप्रकाश तो पुत्र-पौत्रादि सभी रह लेते।

आहा, कितना अच्छा होता तब। सोचने लगे सोमप्रकाश। तब फिर उनके दोनों लड़कों के चले जाने को लोग नीचता नहीं समझते न ही कोई सोमप्रकाश को करुणा जताने आते। वे लोग सोचते 'गृहस्थी बढ़ रही है, जगह छोटी पड़ रही है-चले तो जाना ही पड़ेगा। और फिर जब चले जाने लायक संस्थान है।'

और मकान न बनाया होता, किराए के मकान में पड़े रहते तो लड़की आकर इतनी निर्लज्जता से अपना लोभ प्रकट कर सकती क्या? उसके मन में लोभ का जन्म ही न होता क्योंकि प्रत्याशा ही न रहती। यह सब हुआ है मकान बनाने की वजह से।

अब और कितनी निर्लज्जता और नीचता देखना पड़ेगा सोमप्रकाश को कौन जाने।

ओफ! क्या भूल हो गई थी तब उनसे।

'एक निजी मकान 'सिर छिपाने का एक आश्रय' 'सपना' 'साधना' 'सार्थकता' कितने काव्यिक नाम लोग देते हैं? आज भी यही हो रहा है-लोग नाम दे रहे हैं ...जबकि ...बाद में सब 'जंजाल' लगने लगता है। 'बोझ' मालूम होता है। लोभ, नीचता, क्षुद्रता और निर्लज्जता का जनक जान पड़ता है।

कभी जो सोमप्रकाश इस मामूली से मकान को महल सोचकर खुश होते थे, देवता जानकर चाहते थे, पूजा करते थे, आज वही सोमप्रकाश...

सोचते हुए अचानक उठकर सुकुमारी के पास चले आए। बोल उठे-'अच्छा! अगर यह मकान न बनवाया होता तो इतने झंझट न होते-है न?'

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