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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

25

सुकुमारी का वक्तव्य था, 'इस घर से चले जाने से पहले एक बार पुराने दिनों की तरह सबको 'इकट्ठा' करके सारे दिन खाना-पीना, हो-हल्ला हो। सब...को। सुन रहे हो न ठीक से? बहूमाँ लोग, लड़के, बाबूसोना, लड़की दामाद, नाती नतनियाँ, दामाद के घर वाले...'

सोमप्रकाश बीच में बात काटकर बोले-'नाती कहाँ मिलेगा वह तो 'दूर गगन का तारा'।'

'वही तो', सुकुमारी बोली-'सिर्फ चाहने वाले, नितान्त ही अपने लोग, सगे सम्बन्धी। 'केष्टो बिश्टू इकट्ठा हो गए तो मजा नहीं आयेगा। सब कोई हाथ से फिसल जायेंगे।'

सोमप्रकाश बोले-'चुप चुप! मेरे सामने कह दिया तो कह दिया, औरों के सामने मत कहना। सुनेंगे तो तुम पर धूल छींटेंगे।'

'लोगों से कहाँ कहने गई हूँ-तुम्हीं से कह रही हूँ।'

'ओ! तो मुझे तुम 'लोग में गिनती ही नहीं हो। क्यों?'

सुकुमारी बोलीं-'मुझे लेकर मजाक उड़ाना तो तुम्हारी पुरानी आदत है। खैर-,सुनो मेरा प्रोग्राम। बहूमाँओं के मायके के सभी लोगों को भी बुला लें, अच्छा रहेगा। अच्छा खासा पिकनिक जैसा माहौल होगा। माने चाय-वाय पीएँगे खुली जगह-छत या बरामदे में...'

'अचानक कवित्व क्यों जाग उठा है?'

'देखो, इस घर में आखिरी जमकर उत्सव मनाने की बात सोचती हूँ तो याद आता है बाबूसोना चाँद के टुकड़े का खीर चटाई का मौक़ा उस दिन इसी तरह से सब कोई इकट्ठा हुए थे और खूब हो-हल्ला मचा था। बहुत लोगों ने खाया था। लेकिन दिन के वक्त...सारे दिन...'

सुकुमारी अतीत के उस उत्सव वाले दिन को लौट गईं-'तुम्हें याद है, शाम के वक्त ताक्डुमाडुम न जाने कहीं से एक शौक़िया जादूगर लेकर आ पहुँचा। कम उम्र का एक लड़का फिर भी क्या हाथों की सफाई थी। तालियों की गड़गड़ाहट से लग रहा था घर की छत गिर जायेगी-याद है न? अच्छा...क्यों जी...वैसे ही किसी को लाया नहीं जा सकता है? मौक़े पर बहार आ जायेगी। और उस समय बाबूसोना ने कहीं देखा था? तौलिए में लिपटा सो रहा था। अब देखेगा तो...'

अपने आपमें सुकुमारी अपनी स्मृतिसुधा से भरे उस दिन की तरह का एक और दिन उपहार स्वरूप पाने की आशा कर रही थीं सोमप्रकाश से। उसी तरह की एक स्मृति बटोर कर ले जाना चाहती हैं घर छोड़कर जाते वक्त।

परन्तु उनकी बातें सुनते-सुनते सोमप्रकाश एक और ही परिकल्पना करने लगे थे। वैसे बुरा न होगा अगर एक 'खास दिन' की रचना करके सोमप्रकाश अपना देय धन, प्राप्तकर्त्ताओं के हाथों में सौंप दें। आजकल रुपया माने ही चेक किसी एक संख्या के पीछे कुछ शून्य जुड़े होते हैं।

सच, कैसी अदभुत चीज़ है। केवल शून्य जोड़ते हुए 'प्राप्ति' को या 'दान' को बढ़ाया जा सकता है। मानो एक नए तथ्य का का आविष्कार कर डाला हो सोमप्रकाश ने। शायद इसीलिए आजकल पाँच लोग कहने लगे हैं कि सोमप्रकाश का दिमाग गड़बड़ होने लगा है। वरना, अत्यन्त बाल्यकाल से जो कुछ सीखते आ रहे हैं और आज तक जो देखते आ रहे हैं आज उस बात पर उन्हें विस्मय क्यों हो रहा है? बहुत छोटेपन से ही सीखा है कि एक के पीछे शून्य जोड़ो तो दस और दस के पीछे शून्य जोड़ों तो सौ, इसी क्रम में जोड़ते चले जाओ तो हज़ार, लाख, करोड़ होता जायेगा। फिर इसमें आविष्कार करने जैसी कौन सी बात हो गई?

सोचते-सोचते अचानक याद आया कि कुलदीप मिसिर के मामले में कुछ असुविधा है। वह 'रुपये' का अर्थ समझता है-चेक नहीं। याद आते ही बुलाया-'अवनी'।

अवनी तो हर समय एक पाँव पर खड़ा रहता है इसीलिए एक बार बुलाते ही आ पहुँचा।

'जी।'  

'मैं पूछ रहा था कि मिसिर जी क्या 'चेक' का मतलब समझ सकेगा?'

अवनी ने इस तरह से सिर हिलाया जिसका मतलब न भी हो सकता था और हाँ भी।

'उसका एक अंग्रेजी जानने वाला भतीजा है न? राइटर्स में पिउन-विडन का काम करता है।'

'है। महादेव मिसिर।'

'तो कुलदीप से कहो उसे एक बार आने के लिए कह दे। उसे माने जो रुपया तुम लोगों को दूँगा, उसे तो चेक में ही दूँगा न? बीस हजार रुपया तो ऐसे दिया नहीं जा सकता है न।'

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