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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

24

पड़ोसी सज्जन थोड़ा और पास चले आए। बिलावजह ही नीची आवाज में पूछ बैठे-'तो जायेंगे कहाँ? किसी लड़के के पास? या कि लड़की के पास? आजकल तो देख रहा हूँ लोग लड़कों से ज्यादा लड़कियों के पास रहना पसन्द करते हैं।'

हँसकर सोमप्रकाश बोले-'अरे भाई जो लोग पास रहकर खिसक गये और फिर उनके ही पास जाकर भीड़ बढ़ाऊँगा? क्यों? क्या अपने साथ नहीं रह सकता हूँ?'  

'अरे अरे...वह तो है ही...जिन्दगी भर तो लोग रहते ही है। पर, उम्र हो रही है न? उस पर तबियत भी ठीक नहीं रहती है, किसी एक के केयर में न रहना क्या उचित होगा? अब मुझे ही लीजिए न? अभी से सोच रहा हूँ पत्नी से कह दूँगा कि मर गया तो लड़कों के पास से चली जाना और सी...धे जाकर लड़की के घर...और अगर इसका उल्टा हुआ तो किसी मिशन-विशन में...'

'ए, ए...ओ हो, अरे तुम्हारी टोकरी में क्या है?' बात करते-करते एक फेरीवाले पर नजर गई तो शोर मचाकर उसे रोकते हैं फिर टोकरी उतारकर देखने लगते हैं क्या क्या है-'अमरूद, भुट्टा, पानीफल, नरम खीरे? कह तो रहा है नरम है लेकिन भीतर इसमें बीज भर होंगे।'

इसके बावजूद उसे रोककर मोल-भाव करते हैं और अन्त में घर बुलाकर ले जाते हैं, पैसे देने और माल उतारने के लिए। जेब में कितना माल आयेगा? और फिर आजकल की जेबें बड़ी ही कितनी होती हैं?

जाते जाते जल्दी से कहते गये-'अच्छा सोमबाबू नमस्कार। फिर मुलाकात होगी। अभी तो आप और कुछ दिन रहेंगे न?'

उनके चले जाने के बाद अवनी ने कुछ चिढ़कर कहा-'ऐसे लोगों से आप न जाने क्यों बात करते हैं।'

हाँ, अवनी साए की तरह साथ लगा रहता है। काया के पीछे साया की तरह। जैसे कह सकते हैं वी.आई.पी. के साथ बॉडीगार्ड की तरह।

सोमप्रकाश बोले-'बात कैसे न करूँ रे? भले आदमी ने खुद आगे बढ़कर बात की...'

'वह सब छलावा है। बातों के जाल से भीतर की बात खींच निकालने की कोशिश।'

सोमप्रकाश हँसने लगे। बोले-'भीतर की बात खींच निकाल पाना क्या इतना आसान है? अब अपने को ही ले ले, तू जो हर समय मेरे साथ रहता है, मेरे भीतर की बात जानता है?'

कन्धे पर रखे झाड़न से गेट की लोहे की रेलिंग झाड़ते हुए अवनी बोला-'मेरी बात छोड़े...मूरख आदमी ठहरा।'

'मूरख हो सकता पर बुद्धि सूक्ष्म है।' हँसते हुए सोमप्रकाश बोले-'सूक्ष्म बुद्धि के कारण दुनिया की बातें समझ लेता है।'

एक दिन इसी तरह नए फ्लैट की एक मझोले आकार की बड़े उम्र की महिला राह चलते-चलते इधर चली आई और बोलीं-'आप तो बाहर कभी दिखाई नहीं पड़ते हैं मौसा जी?'

सोमप्रकाश ज़रा हिचके। बोले-'मैं तो ठीक...आप...'

'नहीं नहीं...मैं...मैं उधर चौथी मंजिल के एक फ्लैट में रहती हूँ। सुना कि मकान बेचकर चले जा रहे हैं। सुनकर मन उदास हो गया। आपके घर में अच्छा-खासा एक समाजसेवा का काम चल रहा था, 'साक्षरता अभियान'। देखकर अच्छा लगता था। सच मानिए, मेरी इच्छा होती थी कि यहाँ आकर किसी तरह का कोई काम करूँ...लेकिन गृहस्थी तो वैसी है नहीं।. घरवालों की सोच है कि समाजसेवा जैसा काम है-घर का खाओ और जंगल में भैंस चराओ।...ये सब काम बेकार और फालतू लोगों को ही शोभा देता है, या फिर पैसेवाले लोगों को।...अच्छा चलती हूँ. तैराकी क्लब से लड़की के लौटने का वक्त हो रहा है।'

चली जाती है द्रुतगति से।

उनके जाते हुए थोड़ी देर तक देखते रहे। फिर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरे आसपास, आँखों के सामने इतने सारे लोग और मैंने इन्हें ठीक से कभी देखा ही नहीं? यह क्या सिर्फ मेरा अनमनापन था, या कि आत्मकेन्द्रिकता? अपने दायरे के बाहर और किसी की तरफ आँख उठाकर देखने, पहचानने, समझने की इच्छा ही नहीं हुई थी। जबकि आज इस लड़की को देखकर, बात करके लग रहा है मेरी अपनी लड़की या मेरी बहुएँ, काश ऐसी होतीं। इन मामूली कुछ बातों और इस थोड़े से समय में मैं इसे जान कहीं सका? कितना थोड़ा सा मिल पाया इसकी बातों से फिर भी लग रहा है कुछ 'प्राप्ति' हुई। ऐसा कैसे होता है?

अब ढलती उम्र में सोमप्रकाश अपने आप पर 'छानबीन' कर रहे हैं। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। एक ही जीवन में क्या बार-बार जन्मान्तर होता है?

भीतर आए। दुमंजिले पर पहुँचते ही उद्विग्न होकर सुकुमारी पूछ बैठीं-'क्यों? जी, आजकल रोज-रोज सीढ़ी से ऊपर-नीचे क्यों कर रहे हो? फिर कब क्या हो गया...'

सोमप्रकाश बोले-'क्या हो जाएगा? बहुत होगा आखिरी घंटा बज जायेगा धाय से-इससे ज्यादा तो कुछ नहीं होगा न? सो उसके लिए मैं हर समय ही तैयार हूँ।'

सुकुमारी बहुत बिगड़ी। बोलीं-'घर में 'भरोसा' करने जैसा कोई नहीं है, अकेले रहती हूँ और ऐसी अशुभ बातें करने का जी करता है तुम्हारा? हमेशा सोचती थी कि तुम्हारे हृदय में अगाध माया ममता है-खाक है। निष्ठुरों के सरताज हो। अब जाकर ज़रा आराम तो करो। शाम वाली दवा भी नहीं खाई है। यहाँ रख रही हूँ दस मिनट बाद खा लेना।'

सोमप्रकाश बोले-'खाई नहीं है? भला अवनी बिना खिलाए छोड़ेगा?'

'अवनी ने ही कहा कि मौसा जी तब से जाकर बाहर सड़क पर खड़े हैं, वहाँ दवा लेकर गया तो डाँटा जाऊँगा।'

सोमप्रकाश हँसने लगे-'डाँट खाने से अवनी बाबू बेहद डरते हैं। ठीक है-त्रुटि संशोधन किए लेता हूँ। अच्छा तुम्हारी भी तो कुछ दवाएँ खाने की बात है-है न? पर तुम्हें तो...'

'मेरी बात छोड़ो। तुम लोगों का 'हाई प्रेशर' 'लो प्रेशर'

'मुझे काबू न कर सकेगा। वह बात छोड़ो-कई दिनों से एक बात कहने को सोच रही हूँ...'  

'कई दिनों से? सिर्फ सोच रही हो? तो बोल क्यों नहीं रही हो? कोई भयंकर बात है क्या?'

'आहा-भयंकर बात क्या होगी? माने कह रही थी कि...'

अन्त में पहले रुक-रुककर और बाद में उत्ताल होकर जो कुछ कहा उसका 'सार' सुकुमारी की बहुएँ पहले से सोचे बैठी हैं। हालाँकि दोनों पक्ष इससे अनजान हैं।...अब जाकर सोमप्रकाश को अनुभव हुआ 'यह महिला कितनी सुखी है-इसने जीवन को कितने सहजभाव से स्वीकार किया है।'

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