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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

23

इस समय दोनों भाई एक मत थे।

बार-बार फोन के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान कर रहे थे।

'तुम्हें क्या लगता है भइया? पिताजी अभी जिसका जो शेयर है दे देंगे?'  

'बता नहीं सकता हूँ। पिताजी क्या तय करते हैं या सोचते हैं यह समझ सकना मुश्किल है।'

'हाँ! हमेशा से ही गहरे पानी की मछली रहे हैं। पर मैं सोचता हूँ वही करना उचित होगा पिताजी के लिए। सब कुछ अपने नाम पर छोड़ जाएँगे तो अपना-अपना हिस्सा पाने में हमारी तो हड्डियाँ बज जायेंगी। आजकल कानून भी ऐसे कड़े हो गए हैं।'

'अच्छा ओमू माँ का भी तो एक शेयर होगा?'

'वह तो होगा ही।...बाद में वह भी हमारे तुम्हारे और दीदी में...ख़ैर अभी उन बातों को छोड़ो। पर एक दिन जाकर मिल आना होगा। वैसे सुना है तुम तो कभी-कभी चले जाते हो। मैं तो किसी तरह से भी वक्त ही नहीं निकाल पाता हूँ। दफ्तर में आजकल काम बहुत बढ़ गया है...'

देवरानी जिठानी में भी दूरभाष के जरिए वार्तालाप न होता हो ऐसा नहीं है। यूँ तो अक्सर होता है-'ए रूबी, तूने कहा था न कि मुझे एक दिन 'दक्षिणापन' ले जाएगी। सुना है उनके यहाँ दशहरे से पहले का जबरदस्त स्टॉक आया है। कब चल सकेगी?'

'आज ही शाम को चली आओ न।...मैं गड़ियाहाट के मोड़ पर 'वेट' करूँगी।'

या फिर-

'दीदी, उषा गांगुली की 'रूदाली' देखने की इच्छा है क्या? है तो बताओ। दो टिकट दादा और तुम्हारे लिए ले लूँ।'

'दादा के लिए? छोड़...वह भला इन बातों का मतलब समझते हैं? जायेंगे नहीं। तू एक ही टिकट लिए रखना। कितने का है रे?'

'उसकी बात तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं है। टिकट मैं अमल के दफ्तर के पिउन को भेजकर मँगवा लूँगी।'

'रूबी! कल टी.वी. पर बंगला फिल्म देखी? बहुत दिनों बाद एक...'

'ठीक कह रही हो वरना बंगला फिल्म माने ही तो पनिया सेन्टीमेन्टल पिनपिनापन। कल वाला तो खैर बैठकर देखा जा सका।'

हाँ-इसी तरह की बातचीत होती है। अब आजकल नई खबर है-अर्थात सोमप्रकाश के 'सु-मतिं की खबर ने दूरभाष का खर्च बढ़ा दिया था।

'मकान हाथ से निकल जाने से पहले एक दिन सब कोई मिलकर कुछ वक्त बिता आयें तो कैसे रहेगा रूबी?'

'बुरा नहीं। मैं भी यही सोच रही थी। किंग तो अभी भी 'घर' 'घर' करके जिद्द करता है।...अच्छा अचानक सरप्राइज विजिट नहीं दिया जा सकता है? वृद्ध वृद्धा डैम ग्लैड हो जायेंगे।'

'अचानक! नहीं रे रूबी! वैसा करना शायद ठीक नहीं होगा। माँ को तो जानती हैं, पहले से पता नहीं हुआ तो, माने मन माफिक जतन न कर सकी तो मन खराब करेंगी।'

'ओ दीदी। ही ही। सासुमाँ के नन्दी मृगी दोनों तो अभी भी हैं। वे पहले न मालूम न होने पर भी...ही ही...पार्टी दे डालने में सक्षम हैं।'

'सुन, ये बता उन दोनों का क्या होगा?'

'अरे? पता नहीं है क्या? अमल ने बताया कि अच्छी-खासी रक़म देकर उन्हें उनके गाँव भेज दिया जायेगा।'

'तो एक दिन तय कर लिया जाए।'

'जल्दी क्या है? सुना है बेचने के बाद और छह महीने रह सकेंगे...पर क्या आखिरी दिन तक रहेंगे किंग के दादा दादी? घर के लिए...ही ही...ऐसा मोह है।'  

'ठीक कह रही है तू। 'घर' माने 'अपना घर' उसके प्रति तो मोह रह ही सकता है। यूँ तो, मैं भी एक अपने 'मकान' का दिन रात सपना देखती हूँ-पर क्या इनकी तरह इतनी पागल हो सकूँगी? 'घर' तो नहीं जैसे 'नारायण' 'इष्ट देवता'। अच्छा रे, तब फिर वही बात रही।'

हाँ, इसी तरह से सम्पर्क बना रखा है। सोमप्रकाश की दोनों बहुओं ने। भाइयों के बीच अगर बीस परसेन्ट तो बहुओं के बीच अस्सी परसेन्ट।

सोमप्रकाश का कमजोर हार्ट क्या कुछ मजबूत हो गया है? वरना आजकल निचली मंजिल में वे कैसे दिखाई पड़ रहे हैं?...देखा जाता है गेट के पास झुक कर एक कोई जंगली पौधा उखाड़कर फेंक रहे हैं या कोई सुन्दर सा घासफूँस का पौधा हाथ में लेकर घुमा-घुमाकर देख रहे हैं। या उसे आधे बाँह के कुर्ते की जेब में रख रहे हैं यत्नपूर्वक।

कभी-कभी आसपास रहने वाला कोई परिचित पड़ोसी उन्हें देखकर ठिठक कर रुक जाता है। नमस्कार आदान-प्रदान के बाद आगे बढ़ आता है। पूछता है-'आजकल निकल रहे हैं? बड़ी अच्छी बात है। हमने सुना आप भी मोहल्ला छोडकर चले जा रहे हैं? घर बेच डालेंगे?'

सोमप्रकाश मुस्कुरा कर कहते-'बेचेंगे क्या, बेच डाला है।'

'बेच डाला है?'

'हाँ, वह बात अब 'भविष्य' नहीं 'अतीत' हो गई है। ये जो अभी भी यहाँ रह रहा हूँ यह भी नए मालिक की कृपा समझिये। चाहूँ तो और दो-चार महीना रह सकता हूँ।'

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