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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

27

सुकुमारी मन ही मन डरी। लोग जो कहते हैं वही होने जा रहा है क्या? फिर भी कठिनाई से हँसकर बोलीं-'वाह! तो फिर रहते कहाँ?'

'क्यों? किराए के मकान में रहा नहीं जा सकता है क्या?'

'वह क्या मन-माफिक होता?'

'मन माफिक?' सोमप्रकाश बोले-'जिन्दगी में कौन सी बात मन माफिक होती है? माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी, परिवार, परिवेश, लड़के, लड़की? अरे बाबा, अपना चेहरा ही क्या मन के माफिक होता है? जिसे लेकर ताउम्र लोक समाज में घूमना पड़ता है।'

डर छिपाते हुए सुकुमारी सावधानी से बोलीं-'अगर ऐसा सोचते हो तो यही एक चीज है जो मन माफिक हो सकती है। अपने प्लॉन के मुताबिक अपना मकान।'

सोमप्रकाश सुकुमारी की ओर देखते हुए बोले-'घर बेच देने से तुम्हारा मन बहुत दुःख -है न?'

'अरे, वह बात तो बीत चुकी है। अब वह बात क्यों कर रहे हो? अभी चलो सलाह करें। यह बताओ कि किस केटरार को कहोगे? उन्हें, जो ओमू की शादी में थे या जो बाबूसोना की खीर चटाई के समय...'

सोमप्रकाश ने पूछा-'केटरार? इतना बड़ा आयोजन करना चाहती हो?'  

'वाह! बताया तो था उस दिन।'

'देखो, बाहरी लोग ढेर सारे इकट्ठा करने पर क्या सचमुच की खुशी हासिल हो पाती है?'

'और ज्यादा लोग न हुए तो पता कैसे चलेगा कि धूमधाम है? नहीं-नहीं, जैसा कहा है वैसा ही होगा। खाने का मेनू क्या होगा? सुबह शाम रात-तीन वक्त का...'

'इतना कुछ तय करने से पहले अपने बहू-बेटों की राय तो जान लो-आयेंगे कि नहीं आयेंगे।'

सुकुमारी हँसते हुए बोलीं-'वह मैंने पता कर लिया है। बड़ी बहूमाँ ने खुद ही उस दिन फोन पर बातों-ही-बातों में कहा-'घर छोड़ने से पहले सब कोई मिलकर एक दिन वहाँ बिता आना अच्छा रहेगा।' इसी वजह से तो मेरी हिम्मत हुई। खैर, ये बताओ मैजिशियन का इन्तजाम हो जायेगा न? मेरी बड़ी इच्छा है।'

अतएव सोमप्रकाश ने उसका इन्तजाम करेंगे कहकर भरोसा दिलाया। जाकर कहने की शक्ति तो है नहीं-सब फोन पर।

और सफल भी हो गये। जब सुकुमारी को बताने लगे-'तुम शायद पी.सी. सरकार जूनियर की आशा नहीं करती हो पर यह भी ऐमेचर है। दो लड़के दोस्त एक साथ मिलकर मैजिक दिखाया करते हैं-बिना पैसे के-सिर्फ 'नाम' करने के लिए। मैंने इनसे तय कर लिया है-दोपहर को तीन बजे आयेंगे।'

ठीक उसी वक्त फोन की घंटी झनझना उठी।

'हैलो।'

'ओः, माँ? मैं रूबी बोल रही हूँ-आपके यहाँ जाकर 'डे स्पेन्ड' वाले प्रोग्राम की तारीख क्या है?'

'अरे, उस दिन बताया नहीं था? अगले बारह तारीख को किसी बात की छुट्टी है न-शायद हजरत का जन्मदिन है...सब को सुविधा होगी...'

'वह तो ठीक है पर किंग का जाना न हो सकेगा।'

'क्या? क्या कहा छोटी बहूमाँ? असली आदमी का आना न हो सकेगा?'  

'अब क्या करें बताइए? अचानक पता चला उसी दिन स्कूल का स्पोर्टस है।'  

'स्कूल का काम-छुट्टी के दिन?'

'कुछ कहिए नहीं-यह व्यवस्था मालिकों की है...'

'सो होने दो। स्पोर्टस ही तो है, परीक्षा तो नहीं है? उसे छोड़ दो।'

'ऐसा कैसे हो सकता है?' न झुकने वाली आवाज़।

'ओ छोटी बहूमाँ। सबसे कह दिया गया है। सारी तैयारी भी हो चुकी है इधर। केवल बाबूसोना के लिए ही मैजिक की व्यवस्था...'

'अब क्या कर सकती हूँ? पहले से पता नहीं था, अचानक ही तय हुआ है...'

'छोटी बहूमाँ। स्पोर्टस माने तो खेलकूद? उसमें न गया तो कुछ नहीं होगा। घर पर उस दिन कितना कुछ होगा हल्ला-गुल्ला...'

ऐसा कहने से क्या होगा? आपके और लोग तो आयेंगे। हम दोनों उसे स्कूल छोड़कर एक बार आपके यहाँ चक्कर लगा आयेंगे। हमारे घरवालों को भी तो बुलाया है, पता चला। माँ जायेंगी। हम भी डिनर के वक्त ठीक जा पहुँचेंगे आपके पोते के साथ। हालाँकि सारे दिन में इतना टायर्ड हुआ रहेगा...ही ही...कहीं जाते जाते मोटर में सो न जाए।'

'ओ माँ, मेरा क्या होगा? ओ छोटी बहूमाँ...दुहाई है। इस बार के लिए खेलकूद में शामिल न होगा तो कोई हज नहीं होगा-तुम मेरे इस इच्छा में बाधा मत डालो। इतनी आशा पर राख मत डालो। उस दिन उसे छुट्टी दिला दो।'

'ओ हो, ताज्जुब है। ऐसी एब्सर्ड बातें करती हैं आप। जो असम्भव है उसी को लेकर...रखती हूँ।'

सुकुमारी फफककर रो उठीं-'ओ छोटी बहूमाँ! छोटी बहूमाँ...रूबी रूबी।'

इसके बाद धीरे से रिसीवर रखते हुए बोलीं-'काट दिया। हाय भगवान...देखा तुमने?'

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