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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

20

सोमप्रकाश बोले-'तो इतने दिनों बाद तुझे पत्नी का अभाव महसूस होने लगा है? हाँ, यही एक प्राणी पुरुष के जीवन में होता है जो उसकी सारी बातें ध्यान से सुनता है। और सुनकर जी-जान से उसे मानने को बाध्य होता है। परन्तु हम पुरुष लोग उसे उचित मर्यादा कहाँ देते हैं?'

नरोत्तम बोले-'अचानक ऐसी नाटकीय बातें?'

'यही देखो न, अभी अभिमान करके चली गईं। कह गईं, तेरी बात मैं मन लगाकर सुनता हूँ लेकिन उनकी बात रत्ती भर भी मन लगाकर नहीं सुनता हूँ। तुझसे सौत की तरह ईर्ष्या करती हैं।'

कहकर हँसने लगे। दोनों ही। और सबसे ज़ोरदार हँसी नरोत्तम की ही थी। फिर भी आज नरोत्तम के मन में सुख नहीं था। अचानक बोल उठे-'देख सोमा, हमारी धारणाएँ कैसी अचानक बदल जाती हैं। अभी कुछ दिन पहले ही तेरे दोनों बेटों की बेईमानी देखकर अपने आप को भाग्यवान समझ रहा था। सुखी सोच रहा था कि चलो मेरे लड़के नहीं हैं अच्छा ही है। शैतान गाय से खाली गौशाला भली। तिरंगी तीन बेटियों के साथ मैं साला मजे में हूँ।'

'तिरंगी?' सोमप्रकाश अवाक हुआ-'तिरंगी मतलब?'

'अरे वही, एक विधवा, एक डिवोर्सी और एक कुंवारी।...और उसने तो घोषणा कर रखा था कि चिरकुंवारी रहेगी। इसीलिए सोचता था कि जीवन इसी तरह से चलता चला जाएगा।...सो अचानक...', कहकर उन्होंने सुंघनी की डिबिया जेब से निकाल ली।

'क्या हुआ अचानक?' पूछा सोमप्रकाश ने।

नरोत्तम सुंघनी का चूरा झाड़ते हुए बोले-'कुछ दिनों से मन में सन्देह हो रहा था कि लौंडिया के हाव-भाव 'लव' हो जाने जैसे हैं।...हँसी भी आती थी सोचकर। सोचता, वक्त पर न होकर, बेवक्त। तो ठीक है, शादी की इच्छा हुई है तो अच्छी बात है। धूमधाम से शादी कर दूँगा। ...सचमुच सीमा, इन दोनों लड़कियों की शादी हुई थी जब हमारी ज्वाइंट फैमिली थी। जी भरकर धूमधाम न कर सका था। दूसरों की आँखों में खटकने का डर था। ...तो सोचा इस बार...', कहकर नरोत्तम ने फिर सुंघनी की डिबिया निकाल ली।

सोमप्रकाश बोले- 'इस बार बाधा किस बात की है? अब किसके ओंखों में खटकेगा? लड़की की दीदियों की आँखों में क्या ?'

सुंघनी का चूरा नाक में न डालकर गलती से हाथ झाड़ डाला नरोत्तम ने। बोले-'ऐसा हुआ होता तो भी अच्छा होता। स्वाभाविक बात होती। लेकिन सुनेगा भी तो क्या विश्वास करेगा?...छोटी लड़की के प्रेमी हैं हमारे ही महापाजी हरामी मझले दामाद।'

'एँ।' खाट के किनारे बैठे सोमप्रकाश खाट पर से गिरते-गिरते बचे। सँभलकर बैठते हुए बोले-'ये 'तू क्या कह रहा है?'

'और क्या कह रहा हूँ फिर? अभी कुछ दिन पहले भी तुझ पर करुणा करते हुए अपने आपको भाग्यवान समझ रहा था और आज लग रहा है मुझसे बड़ा अभागा दुनिया में कोई न होगा। शौक़ीन मनपसन्द निमन्त्रण पत्र छापूँगा सोचकर जितने निमन्त्रण पत्र आते थे उन्हें इकट्ठा कर रहा था। सोचता था छोटी लड़की की शादी में इनमें से एक छपवाऊँगा। लेकिन ऐसा कैसे कर सकूँगा? दामाद का नामधाम वंश लिखना पड़ेगा न? सच सोचा, जी कर रहा है सब कुछ छोड़छाड़ कर कहीं चला जाऊँ।'

थोड़ी देर चुप रहकर सोमप्रकाश ने पूछा-'ऐसी बात हुई कैसे? उम्र का भी तो काफी फर्क है।'

'हाँ बारह साल के आसपास।...मेरे गुणधर दामाद, सुना है कि शादी के वक्त ही से फ्राक पहनी साली को प्रेमभरी नजरों से देखते आ रहे हैं। और बाद में-दुनिया भर के उल्टे-सीधे बहाने बनाकर डिवोर्स देने के पीछे कारण यही सर्वनाशी ही है।'

सोमप्रकाश को लगा वे गहरे पानी के नीचे डूबते चले जा रहे हैं-'नरोत्तम, आज क्या तू नशा करके आया है? क्या बक रहा है?'

'अरे ओ सोमा, आज नहीं किया है पर इसके बाद शायद यही करना पड़ेगा। क्रमश: हम 'मनुष्य' शब्द का मतलब ही भूलते जा रहे हैं। क्या तू सोच सकता, मेरी यही छोटी लड़की जो उस आदमी को' केंचुए जोंक की तरह घृणा करती थी और मझली दीदी के दुःख से मरा करती थी अब वही लड़की कह रही है कि गलती असल में मझली दीदी की ही थी। मानसदा जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।' अब बता, सोच सकता है तू? कब कौन किस रंगीन चश्मे से देखता है..कहना मुश्किल है।'

इतने ताजा स्वभाव के नरोत्तम सरकार, कन्धे लटकाकर चले गये। उनको जाते देखकर सोमप्रकाश को लगा-अब वह कभी नहीं आयेगा।

सोमप्रकाश का सोचना गलत नहीं था। सचमुच नरोत्तम फिर नहीं आये। कितने दिन बीत गये, नरोत्तम को फिर किसी ने इस घर का चौखट लाँघते नहीं देखा।

पर इससे क्या फर्क पड़ता है? जब पाँव फिसलकर गिर जाने से घुटना टूट गया था तब भी तो बहुत दिनों तक नहीं आये थे। अभी भी नहीं आ रहे हैं। पर नित्यनियम वाले तो ठीक आ रहे हैं-रात के बाद दिन आ रहा है, सुबह के बाद दोपहर शाम सन्ध्या आ रही है। रात, और पुन: सवेरा संसार में किसी तरह का छन्द पतन तो हुआ नहीं है।

महाराज कुलदीप मिसिर भोर को ही नहाकर 'भाईजी' का पूजाघर साफ करके, पोंछा लगाकर, हाथ धोकर छत की बगिया से फूल तुलसी तोड़कर रख देता है, पेड़ों में पानी डालता है, पूजा के बर्तनों को चमकाकर माँजता है। इसके बाद रसोईघर में आता है।...उधर अवनी नित्य नियम से खिड़की दरवाजे झाड़ता है। हर हफ्ते पूरे घर के अदृश्य जालों को तोड़ता है। बाबू के कपड़े साबुन लगाकर धोता है, कपड़ों में माड़ डालता है, लोहा करके रख देता है। धोतियों को निश्चित दिन जाकर लांड्री में दे आता है, ले आता है। 'मौसी जी' की साड़ियों के बारे में पूछता है।

यथानियम बाजार जाता है, मछली काटकर रसोईघर में दे आता है और बाकी वक्त खुद साफ-सुथरे शर्ट-पैजामे में लैस होकर घर के दरवाजे पर खड़ा रहता है। ये उसका पहरा देने का वक्त है।

मोहनी की माँ भी अपना काम नित्य नियम से करती जा रही है। घर के लोगों के नहाने-खाने के समय में भी कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है।-इस अटूट छन्द के बीच किसे याद रहता है कि कब कौन नहीं आ रहा है या बार-बार नहीं आ रहा है। और अगर याद आता भी है तो मुँह से कहता नहीं है। फिर भी एक दिन सुकुमारी ने बात छेड़ी।

सोमप्रकाश के पास जाकर डरते-डरते बोलीं-'क्यों जी, मैं तुम्हारे दोस्त के रोज-रोज आने का मजाक उड़ाती थी यह बात क्या तुमने उनसे कह दी थी?'

अवाक हुए सोमप्रकाश-'मैं? मैं क्यों कहूँगा? अचानक ऐसे क्यों पूछ रही हो?'  

'न माने...देख रही थी न कि इन दिनों आ नहीं रहे हैं। फिर मोहल्ला छोड़कर चले भी गये, एक बार मिलने भी आये...'

मोहल्ला छोड़कर चला गया? सोमप्रकाश क्या बंगला भाषा भूल गये? इस बात का अर्थ क्यों नहीं समझ सके?

सुकुमारी ने बात को दोहराते हुए कहा-'चले गये हैं। मोहल्ला छोड़कर चले गये हैं। सुकुमारी अर्थ समझाने लगीं-अवनी अपनी आँखों से देख आया था।

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