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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

19

भइया जी उल्लसित होकर ठीक बचपन की तरह अवनी के गले से लिपट कर बोला-'अरे अवनी भइया, अभी भी तुम हो न? गुड गुड। डर लग रहा था कि इतने दिनों के बाद जाकर टूटा-फूटा कुछ देखने को न मिले। महाराज जी हैं न?'

'हूँ।'  

'थैंक्यू।'

अवनी गम्मीर भाव से बोला-'भइया जी, घर तो टूट-फूट गया ही है।'  

'जानता हूँ। टूटे पर तुम दोनों और इन दोनों का रहना ही काफी है। मैं जानूँगा कि मेरा ननिहाल सही सलामत है। वही तब, जब कहता था, ताई ताई ताई, मामा के घर जाई...'

'तुम्हारे तो मामा लोग ही...'

'मुझे उसकी कोई परवाह नहीं। जिसका जहाँ जी चाहे जाए। तुमलोग रहो-बस।'

पहली मुलाकात के उल्लास के बाद उदयभानु 'अब तो जाना होगा' कहने के बाद ही अचानक बोला- 'मामदू। अपने 'स्मॉल' मुँह से एक 'बिग' बात बोलूँ?' सोमप्रकाश उसकी तरफ देखकर बोले-'इसमें नई बात क्या है? हमेशा से ही बिग बिग बातें करने की आदत है तुझे।'

सिर खुजलाते हुए, दोनों कानों को पकड़ने के बाद वह बोला-'नहीं...मानें, कह रहा था। तुम्हारे 'उसी' के बल पर ही तो लक्ष्य-पथ पर बढ़ सका था। तो अब जेब में कुछ आया है...'

'तो? वापस लौटाना चाहता है?' हँस दिए सोमप्रकाश-'पहले से ही थप्पड़ खाने का रास्ता बन्द करके बातें कर रहा है-वरना...'

'माफ कर दो मामदू। इस उल्लू को माफ कर दो।' कहकर सोमप्रकाश के पैरों पर सिर रख दिया।

सोमप्रकाश ने दोनों हाथों से उसे उठाकर कहा-'तुमको माफ कर सकूँ वह स्किल अब नहीं है रे ताक्डुमाडुम। पर हाँ 'रिजेक्टेड' होकर वापस नहीं लौटा है, इसी से मेरा सारा कर्जा उतर गया।'

'मामदू-तो तुम मेरे इस काम को नापसन्द नहीं कर रहे हो न?'

उसी तरह से धीरे-धीरे सोमप्रकाश बोले-'मैं किस मुँह से नापसन्द करूँगा?

शिल्प-टिल्प से नाता रिश्ताविहीन एक मामूली क्लर्क। पर हाँ, जीवन की अभिज्ञता के आधार पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि कोई भी शिल्प अवज्ञा की वस्तु नहीं है, अमर्यादा की भी नहीं। सभी शिल्प की सफलता में आनन्द है, गौरव है। पर इतना जरूर हमेशा याद रखना चाहिए कि सबसे महान शिल्पकला की देन है मनुष्य का यह जीवन। वहाँ सफलता ला सके तो...'

कहते-कहते ठहर गए। लज्जित हुए। हँसकर बोले-'देख रहा है न, ज़रा सा मौक़ा मिला नहीं कि एक हाथ 'उपदेश' झाडू दिया। बुढ़ापे का धर्म है भइया।' कहकर चश्मा उतारकर धोती के किनारे से रगड़-रगड़कर पोंछने लगे। बार-बार चश्मा रगड़ना-ये भी क्या बुढ़ापे का धर्म है?

लड़के के चले जाने के बाद सुकुमारी खुशी से उत्तेजित होकर बहुत कुछ कहती रहीं पर सोमप्रकाश के मन तक वह बातें पहुँच नहीं रही थीं। उस समय सोमप्रकाश सोच रहे थे इस लड़के को दस हजार देने की खबर सुनकर उनके बेटे कितना आग-बबूला हो उठे थे। खूब सावधानी बरतने पर भी खबर छिपी नहीं। खुल गई थी सुनेत्रा के उछलकूद करने से। पिता होकर उसके साथ दुश्मनी करने का निर्मम दृष्टान्त पेश करते हुए वह भाइयों के सामने रो पड़ी थी।

हालाँकि उन दोनों का वक्तव्य यही था कि सोमप्रकाश का रुपया है सोमप्रकाश जैसे चाहें खर्च करें, चाहें तो रास्ते में बिखेर दें। लेकिन दीदी के लड़के का सिर चबाना बहुत ही घटिया हरकत है। जैसे उनकी दीदी सोमप्रकाश की कोई नहीं है। उनकी ही सगी है। पर सबसे ज्यादा आज याद आ रही है छोटे बेटे की कही बात। उसने अपने स्टाइल से शब्दों को चबाते हुए कहा था-'आपके पास जो रास्ते में बिखेरने के लिए इतना रुपया है यह मुझे मालूम न था। कितनी बार, कितनी 'असुविधा में पड़कर भी मुँह खोलकर कहते नहीं बना है...'

चौंक कर सोमप्रकाश ने कहा था-'कितनी बार असुविधा में पड़कर भी? मुझसे कह नहीं सके हो?'

'कह तो सका ही नहीं कभी। यही फ्लैट का आखिरी 'इन्स्टॉलमेंट' देते वक्त बुरी तरह से फँस गया था। पर मुझे कैसे मालूम होगा कि आप चाहें तो दे सकते थे।'

धीरे से सोमप्रकाश बोले-'एक बार बताकर तो देखो होता।' पर यह न कह सके कि मैं कैसे जानूँगा कि फँस भी सकते हो। हमेशा से ही बाप के होटल में खाते-खाते चले आ रहे हो। जबकि सुना है कि कमाई भी अच्छी-ख़ासी है।...पर ऐसी बातें कही नहीं जाती हैं।

अब सोच रहे थे कि अगर वे सुनें कि उदय रुपया देने आया था सोमप्रकाश ने लिया नहीं है...

सुनेंगे ही। चाहे कितना भी 'गुप्त' क्यों न रखो खबर दबती नहीं है। खबर हवा के साथ फैलती है। क्या पता, सरल, खुले मन का लड़का, खुद ही माँ-बाप से कह बैठे-'मामदू इज़ ए ग्रेट मैन। समझे न, तुम लोग वन पाइस फादर मदर...और मामदू का...'

ऐसे ही बोलता है वह। सोमप्रकाश अनुभव करते थे कि बाप की वन पाइस फादर मदर वाली कृपणता उसे दुःख पहुँचाती थी।

सुकुमारी बोल उठीं-'किसी दिन क्या ध्यान से मेरी बात सुनी है तुमने? बात कुछ कह रही हूँ और उत्तर कुछ दे रहे हो। मेरी बात की कद्र तुम्हारी नज़र में यही है। अभी प्राणप्रिय नरोत्तम आ जाएँ तो मन प्राण कान सब चौकन्ने हो जाएँगे।'

सोमप्रकाश आवाज़ करके हँसने लगे। बोले-'नरोत्तम से तुम सौतों जैसी हिंसा करती हो।'

'तुम्हारा जैसा व्यवहार है...क्या करूँ?'

आते हैं नरोत्तम। पैर का दर्द सम्पूर्ण रूप से ठीक न होने पर भी खुशी-खुशी आया करते हैं। लेकिन आज?

आज आते ही धम्म से बैठकर बोले-'देख सोमा, शुरु-शुरु में सोचता था, तू घर में बन्द पड़ा रहता है। सच मान, ममतावश तेरे लिए ही यहाँ आता था। अचानक देख रहा हूँ-नः। अपने लिए ही आता हूँ। मन की बातें सुनाने के लिए एक आदमी की ज़रूरत होती है-समझा न? एक ऐसा आदमी, जो मेरी बात के बीच में ही बहाना बनाकर उठकर चला नहीं जायेगा, मेरी बातों को इस कान से सुनकर उस कान से निकालेगा नहीं-माने कि कानों में घुसाएगा।'

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