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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

18

ओ, इसीलिए।

इसीलिए दोनों बेटों ने अपना-अपना रास्ता चुन लिया है। यूँ भी गृहस्थी मालिक की 'इच्छा' पर ही चल रही थी पर जब वही 'पागल' हो जाए तो स्वस्थ मस्तिष्क वाले कैसे टिके रह सकते हैं?

सुकुमारी?

उनका सिर तो बेठीक नहीं है।

वह क्यों?

वह तो फालतू हैं। मालिक की इच्छा की कठपुतली।

दुर! इन लोगों की हितचिन्ता करना ही पागल है।

सोमप्रकाश के मस्तिष्क विकृति के सम्पर्क में निश्चिन्त हो गये उनके बेटे रिश्तेदार वगैरह-वगैरह जब उन्होंने देखा कि उस विशाल मकान का पूरा निचला हिस्सा बिना किराए पर दिए ही एक गैरसरकारी समाजसेवी संस्था 'साक्षरता उद्योग' को दे दिया गया है।

सिर्फ बिना किराए पर ही नहीं। बिजली, पंखा, पानी के साथ-साथ साक्षर होने के लिए आनेवाले छात्रों को जलपान भी करवाया जा रहा था।

सुनेत्रा की सास बोली-'लेकिन बहूमाँ! तुम भी तो उनकी एक सन्तान हो? तुम खुली आँखों से बैठे-बैठे यह अपव्यय, यह पागलपन देखोगी?'  

'वाह! मैं क्या करूँगी?'

'क्यों जा जाकर 'उचित' बुद्धि दे नहीं सकती हो?'

'हाँ, पिताजी वैसे हैं क्या? दूसरे की बुद्धि से काम करेंगे?' निपट सीधी-साधी भोली-भाली ग्रामीण महिला। इसीलिए वह अपनी भाषा में बोलीं-'लेकिन बेटी, मैं साफ बात ही कहूँगी। तुम भी तो उनकी सम्पत्ति की, जायदाद की, बैंक में जो रुपये-पैसों की वारिस हो? बेकार में सब उड़ा-पुड़ा दिया तो नुक्सान तुम्हारी भी है न? क्यों ठीक कह रही हूँ न?'

'वह सब तो ठीक है लेकिन...'

'लेकिन-वेकिन छोड़ो बहूमाँ! तुम जाकर दावा करो। तुम्हारे घर में जरूरत है, तीन-तीन लड़कियाँ ब्याहनी हैं। तुम अपना हिस्सा अभी से लिख लो।'

'धत्! आप भी क्या कहती हैं? यह क्या कहा जा सकता है?'

'मानती हूँ, चक्षुलज्जावश ऐसा कहना मुश्किल होगा लेकिन अचानक अगर तुम्हारे पिता सदैव के लिए आँखें बन्द कर बैठे तो? पा सकोगी सही-सही हिस्सा? तब तो दोनों भाई आम दूध की तरह मिल जाएँगे और बहन का हिस्सा झाडू देंगे।'  

अभिमन्यु के कान तक बात पहुँची तो वह बोल उठा-'माँ ठीक ही कह रही हैं। कुछ भी कहो, गृहस्थी के काम में ही हड्डियाँ मजबूत की हैं उन्होंने। यही बात मैं भी सोचा करता हूँ पर दामाद हूँ-कहना नहीं चाहता हूँ।'

सुनेत्रा नामक मजबूत दुर्ग की भीत हिल उठी। अब लड़के के लिए हाय-हाय नहीं करती है। वह कभी-कभी चिट्ठी लिखता है। अपनी नाना प्रकार की वेशभूषा पहनी तस्वीरें भेजता है। और धीरे-धीरे सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता चला जा रहा है यह भी लिखता है।

अचानक एक दिन आकर कुछ घंटों के लिए चक्कर भी लगा गया था। खुशी से डगमग, उच्छृंखलता से भरपूर। अपनी ही बात कर रहा था-दूसरों की बातें सुनने का वक्त ही नहीं था उसके पास।

फिर भी सुनेत्रा, लगभग जोर-जबरदस्ती उसे मामदू के दिमाग़ फिरने वाली बात बताती है। सुनते ही वह जबरदस्त प्रतिवाद करते हुए बोला-'इसमें दिमाग खराब होने वाली कौन सी बात है? बहुत अच्छा कर रहे हैं। जैसे राजाओं की तरह रहते थे वैसे ही हैं। लड़के सालों ने बेईमानी की, बूढ़े माँ-बाप को फेंक कर चले गये और ये लोग उनके लिए बैठे-बैठे आँसू बहाये? अपना सुख स्वच्छन्दता विसर्जन दे डालें? धत्! इस दफा तो समय नहीं निकाल पाया। प्लेन की गड़बड़ी के कारण इतने घंटे ऐसा फंसा...किसी तरह से तुम लोगों से मिल लिया।...आस-पास ही एक शूटिंग में जा रहा हूँ...लौटते वक्त दो दिन रुकूँगा। तब मामदू से मिलूँगा।'

सो की थी भेंट उदयभानु बागची नाम के लड़के ने। जो वर्तमान में केवल 'कुमार उदय' है।

नहीं, कुमार भानु नहीं रखा था। इसमें 'अनुकरण' करने जैसा छाप है। लेकिन अभी भी बम्बई में उसके कर्णजगत में 'कुमार उदय' नाम बहुत प्रचारित नहीं हुआ है। अभी भी परिचितों के बीच उदय बागची ही उसकी पहचान है अथवा उदय।

उसे पूरी उम्मीद है कि लोग ज्यादा दिनों तक ऐसा नहीं कहेंगे। नए एक उज्ज्वल नाम का उदय होगा ही इस रुपहले माया जगत के चलचित्र पर। गूँगे बहरे के पार्ट ने काफी तहलका मचा दिया था। चेहरे ने भी साथ दिया था।

सुना था कि और कई फिल्मों के लिए अनुबन्धित है। पहले सुकुमारी से भेंट हुई।

सुकुमारी लगभग छिटक कर उछल पड़ी। चिल्ला पड़ी-'अरे बाप रे! तू तो इन दो ढाई सालों में एकदम ही 'लायक' हो गया है ताक्डुमाडुम।...ओ माँ, और भी ज्यादा गोरा हो गया है लम्बा भी और हो गया है। और साज-पोशाक? अब क्या कहकर बुलाऊँ तुझे? नवाब बहादुर? अलाउद्दीन खिलजी? टीपू सुल्तान? या कि...'

उदय ने अपनी छोटे साइज की दिद्मा को फट से दोनों हाथों से ऊपर उठा लिया और एक चक्कर काटकर बोला-'इतना सब-कुछ बुलाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ ताक्डुमाडुम।'

बहुत दिनों बाद इस घर में खुशी की लहर दौड़ गई। सुकुमारी बोलीं-'तो क्यों रे, चेहरा तो मारकटारी (यह नाती की ही भाषा है)-कोई हिरोइन-वीरोइन तो नहीं जुटा बैठा है?'

इस बार उदयभानु खुद ही एक चक्कर काटकर-बोला-'राम भजो। तुम्हारा नाती क्या इतना मूर्ख है? अभी गड्ढे में जा गिरेगा? यह सब बातें छोड़ो। यह बताओ कैसी हो? आजकल तो ठाट हैं-सिर्फ बूढ़ा-बूढी-दोनों आमने-सामने, सुख सागर में गोते लगाते हुए...'

'चुप हो जा। सुख सागर में डुबकी ही तो लगा रहे हैं। घर का हाल जानता है?'  

'जाना है मदर से। लो कह रहा हूँ 'दुःख से गहन दुःखी' पर भई मुझे तो कहीं कुछ दुःख-वुःख नजर नहीं आ रहा है। मैं ही जब घर छोड़कर भाग गया था, ऐसा लगा था, जाने कौन-सा महापाप कर रहा हूँ। शायद मातृघाती हो जाऊँगा। हूँ कुछ नहीं। आकर देखा...पहले से ज्यादा ही धूमधड़क्का है। बहनें तीनों तो-सच दिला, उनके लिए जो मामूली सी बम्बईमार्का चीजें उपहारस्वरूप ले आया हूँ-उन्हें पाकर ऐसा करने लगीं जैसे राज्य ही पा गई हैं। कितने थोड़े से सन्तुष्ट हो गईं बेचारियाँ। इसीलिए तो संकल्प किया था कि बहुत रुपया कमाऊँगा, खूब तड़क-भड़कदार जिन्दगी होगी। दोनों हाथों से सबको उपहार दूँगा...पिताजी की कंजूसी देखते-देखते...' कहते-कहते रुककर हँसने लगा।

सुकुमारी भी हँसकर बोलीं-'तो बहनों को बम्बईमार्का साड़ी-ब्लाउज गहने उपहार देने के लिए ले आया और इस दिद्मा के लिए?'

'दिद्मा के लिए?' अपने स्टाइल से कन्धे झटक कर बोला- 'तुम्हारे लिए? ये एक बम्बईमार्का नया लवर लाया हूँ न। बूढ़े की तरफ देखने की इच्छा ही न होगी।'  

'ठहर जा तो यार मेरे। इसीलिए तो तेरे मामदू ने तेरा नाम शेखचिल्ली रखा है। चल, देखें, शायद नहाकर निकाल आए हैं।'

तभी अवनी ने आकर बताया-'हाँ नहा चुके हैं। भइया जी को बुला रहे हैं।'

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