लोगों की राय

नई पुस्तकें >> चश्में बदल जाते हैं

चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

17

एक तो कभी मेदिनीपुर जिले के किसी गाँव से आया लड़का, जो आज लड़के से युवक बन गया है। और दूसरा कभी बिहार के आरा जिले से आया लौंडा, सोमप्रकाश के दफ्तर में पिउन था। उसी समय पार्ट टाइम 'साहब' के यहाँ खाना भी बनाता था। उन दिनों साहब के साथ टूर पर जाता, सारी जिम्मेदारी उठाता-मातृलेह, पत्नीप्रेम, भगिनीप्रीति सब तरह से साहब का ध्यान रखता। साहब ने अवसर ग्रहण किया तो दफ्तर की नौकरी छोड़कर हमेशा के लिए उनके यहाँ चला आया। आज वह 'लौंडे' से 'बूढ़ा' हो चला है। शादी नामक अपरिहार्य शास्त्रीय पुण्य कर्म उसने बाल्यकाल में ही निपटा डाला था। वही धर्मपत्नी पितृगृह के गोकुल में पल बढ़ रही थी। फिर एक दिन यौवन के दहलीज पर पहुँचते ही कुलदीप मिसिर नामक व्यक्ति उसे 'गौना' करवाकर ले आया और अपने गाँव के घर में रोपित कर आया। और धीरे-धीरे उस पर सम्मिलित परिवार का सम्पूर्ण भार डालता चला गया। आज भी डालता जा रहा है। साल-डेढ़-साल में एक बार घर जाता और उस रोपित वृक्ष में खाद-मिट्टी डालकर अपना कर्त्तव्य पूरा करता और आज वह वृक्ष फल-फूल से विकसित महीरूह।

छह बेटे और तीन बेटी और बेटों से बहुत पोती-पोते, लड़कियों से भी अनेक नाती-नातिन से समृद्ध कुलदीप आज गाँव का सम्मानित व्यक्ति है।

नियमित रुपया भेजने के कारण उसके काबिल हो गए बेटों ने जमीन, भैंस, बैल इत्यादि खरीद खरीदकर सम्पत्ति बढ़ा ली है। ये सब खबरें वे लोग बाप को भेजा करते थे।

पर वह था कि सोमप्रकाश के इस मकान को ही अपनी जमीन मानता आ रहा है। अपनी समस्त कर्मशक्ति को इस घर को सुसंगठित करने और यहाँ के निवासियों की सेवा में उत्सर्ग करता जा रहा है।

ये ही है निरक्षर होते हुए भी चालाक दो आदमी। जो विद्वान, बुद्धिमान विलक्षण सोमप्रकाश को मूर्ख बनाकर उनके सिर पर कटहल फोड़ रहे हैं।

सोमप्रकाश के हितैषी लोग सर्वदा इस भयंकर नुकसान के सिर दर्द से कातर हो रहे हैं।

पर मज़े की बात तो ये है कि ये दो आदमी आज तक अपने आपको फालतू और बेकार का जंजाल नहीं समझते हैं। बल्कि नितान्त ही आवश्यक जानकर जी-जान उत्सर्ग कर रहे हैं। और उन्हीं हितैषियों के आने पर, उनका आदर सम्मान करते हैं, जलपान की व्यवस्था भी करते हैं। कोई भी आये आतिथ्य की त्रुटि नहीं होती है-इन्हीं कुलदीप मिसिर और अपनी वारिक के कारण।

उन दोनों के जीवन में यही परम सुस्वादित कर्म है।

और शायद यही पाँच लोगों के तन-बदन में आग लगाने के लिए काफी है। कोई किसी कारण से सुख-स्वाद पा रहा है यह क्या सहनीय है?

शायद-इन लोगों के अवचेतन मन में उन गंवार लोगों का सुख उतना नहीं खटक रहा है जितना सोमप्रकाश और सुकुमारी सान्याल नामक दो लोगों के मुख स्वाद ने खलबली मचा रखी है।

ये दोनों गृहस्थी की भीत हिलाने पर भी टूटे नहीं, जीवनयात्रा की अभ्यस्त पद्धति से विच्युत हो कातर नहीं हुए। उसी पुराने नियम से राजकीय चाल से मालिक-मालकिन की भूमिका निभाए जा रहे हैं।

क्या यह दृश्य कुढ़ने के लिए काफी नहीं? तन-बदन में आग लगाने का कारण नहीं?

दूसरों को खुश करने के लिए दो में से एक काम तो कर सकते थे।

एक, जीवित रहते-रहते मकान बेचकर, उत्तराधिकारियों को, जिसे जो मिलना है, देकर काम निपटा डालना। छोटा-सा एक निवासस्थान और सस्ता-सा एक काम का आदमी रखकर संक्षिप्त गृहस्थी जोड़कर अनाडम्बरपूर्वक जिन्दगी के बाकी दिन गुजार दें।

अथवा-मकान न बेचे और अपने दोनों के लिए छोटा सा एक हिस्सा निकालकर बाकी मकान किराए पर देकर आय का रास्ता निकालें। जो बैंक में जमा हो-होकर उत्तराधिकारियों की प्राप्ति की मात्रा बढ़ाने का आश्वासन देगा। पर ये लोग हैं कि दोनों में से एक भी नहीं कर रहे हैं? आय वसूली विहीन मकान को जैसे-तैसे भोगते जा रहे हैं और इसके लिए कोई परेशानी भी नहीं है। और ये क्या है?

तुम सोमप्रकाश आज भी साफ कपड़े पहन कर दूध से सफेद चादर बिछे बिस्तर पर बैठे अखबार पढ़ रहे हो और किताब पढ़ रहे हो। और रह-रहकर चश्मे का शीशा पोंछते हुए सोच रहे हो कि चश्मा शायद बदलना होगा।

और तुम श्रीमती सुकुमारी देवी! उधर चाहे जितना र्भो हाहाकार करो, आज भी सोच रही हो कि तुम्हारे पूजाघर का लाल सीमेन्ट वाला फर्श बदल कर अल्पना डिजाइन वाली मुजैक की टाइल लगा लो तो बहुत अच्छा लगेगा। अभी भी सोच रही हो कि गोपाल का पीतल का सिंहासन हटाकर एक चाँदी का सिंहासन बनवा लूँ तो कैसा रहेगा? गन्दा नहीं होता है। रोज-रोज माँजने की जरूरत नहीं। घर में चाँदी के बर्तनों की तो कोई कमी है नहीं, उन्हीं को तुड़वाकर बनवाया जा सकता है।

अभी भी ऐसा मनोभाव?

क्या कहा जा सकता है इसे?

सो इन दो जनों का कुछ बिगाड़ न सकने के कारण हितैषी रिश्तेदार इन फालतू दो आदमियों को लेकर सोच-सोचकर परेशान हुए जा रहे हैं।

और अन्त में इस नतीजे पर पहुँच गए कि सोमप्रकाश नाम का आदमी 'पागल' हो गया है। इस बात ने उन हितैषियों के मन को शान्ति पहुँचाई है।

अब इन लोगों के मन में उनके गृहत्यागी बेटे के प्रति सहानुभूति पैदा हो रही है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai