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चश्में बदल जाते हैं

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15408
आईएसबीएन :0000000000

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बाप बेटा को समझाना चाहता है कि युग बदल गया है-तुम्हारा चश्मा बदलना जरूरी है। वृद्ध पिता के चेहरे पर हँसी बिखर जाती है।

16

साढ़ूभाई ने सोचा, इनका दिमाग बिल्कुल ही ख़राब हो चुका है। बड़ा बेटा कभी-कभी आता है, पिताजी की दवाएँ सब ठीक-ठाक हैं या नहीं, ठीक से वक्त पर लेते हैं या नहीं-आकर पूछताछ करता है। माँ के पास बैठकर चाय-नाश्ता खाता है फिर चला जाता है।

खाने की चीज़ें हालाँकि बाज़ार की ख़रीदी चीज़ें ही होती हैं। इतना समय उसके पास रहता नहीं है कि बनाकर खिलाया जा सके। एक दिन अचानक शाम को, चाय के वक्त आ गया था। देखकर बोला-'पिताजी चाय के साथ बिस्कुट खायेंगे? क्यों? घर में कुछ बनाया नहीं गया है क्या?'

सुकुमारीं खेद प्रकट करते हुए बोलीं-'किसके लिए घर में नाश्ता बने?

एक थाल कचौड़ी बनेगी तो अगर ये खाएँगे तो मुश्किल से एक। और मैंने माना कि दो खा ली, बाक़ी तो खाएँगे अवनी और महाराज ही न। कुछ बनाने की इच्छा नहीं होती है।'

हरी मटर की कचौड़ी, चने के दाल की दालपूडी, हींग की कचौड़ी-ये सब सोमप्रकाश को बहुत प्रिय थीं। और हर शाम को यही सब बनता था। यह बातें बड़े लड़के के इतनी जल्दी भूल जाने की नहीं हैं। खुद भी तो काम से लौटने पर यही सब खाता था और ज्यादा ही मिलता था। इन खाद्यों का वह भी तो भक्त है। उस पर माँ की जबरदस्ती।

उसके अपने घर में तो वह सब बीती बातें...सपना बनकर रह गई हैं। 'चाय के साथ खाने के लिए सभ्य आधुनिक चीजे नहीं हैं क्या? फालतू में ढेर सारी कचौड़ियाँ, दालपूडी, आलूदम खाने का कोई मतलब है?'

इस वक्त उपरोक्त प्रश्न पूछने वाला उपस्थित नहीं है सो आवाज़ नीची कर कहता है-'एक थाल भरकर बनाने की जरूरत ही क्या है? पिताजी और तुम्हारे भर की दो चार नहीं बन सकती हैं?'

सुकुमारी का गाल पर हाथ चला गया-'लो सुनो बात। ये सब चीजें क्या दो या तीन बनती हैं? फिर जो लोग सारी तैयारियाँ करेंगे, दाल भिगोएँगे, पीसेंगे, मैदा सानेंगे उन्हें दिए बगैर क्या खाया जा सकेगा?'

अब इस पर क्या कहे?

चुप हो गया बड़ा बेटा। शुरु-शुरु में माँ के इस 'सर्व जीवे समज्ञान' पर कितना हँसता था, तानें मारता था पर अब नहीं करता है।

पर छोटा बेटा दूसरी धातु का बना है। वह नहीं आता है। हाँ एक बार अचानक आ गया था। उसने सोमप्रकाश से तीखे स्वर में प्रश्न पूछा था-'अब तो घर में कोई काम ही नहीं है, हमेशा की तरह घर में दो दो तगड़े आदमी को दामाद की तरह क्यों पाल रहे हैं? सुना है कि तनख्वाह तक वही है, ज़रा भी कम नहीं किया है?'

बात को बीच में ही काटकर सोमप्रकाश अवाक होकर बोले थे-'तनख्वाह कहीं कम की जाती है? अपमानित महसूस नहीं करेंगे? काम छोड़कर चले जाना न चाहेंगे?'

लड़का निज स्वभाव के अनुसार होंठ टेढ़े करके कहा था- 'अपमानित महसूस करेंगे? ओ! छोड़कर चले जाना चाहेंगे? हालाँकि इससे बहुत नुकसान होगा। लेकिन लोग आपलोगों की इस व्यवस्था पर हँस रहे हैं...अब रूबी को ही देख लीजिए, वह तो एक ही कामवाली के भरोसे सब करती है। रसोई, बर्तन माँजना, घर की साफ-सफाई, किंग की सारी जरूरतें।...और आपलोग? ठीक है, आपको जो ठीक लगे वही कीजिए। लेकिन रूबी के घरवाले आपलोग पर खूब हँसते हैं। उनका कहना है कि आपलोगों की भलमनसाहत का ये दोनों खूब फ़ायदा उठा रहे हैं।'

सुनकर क्या सोमप्रकाश नहीं कह सकते थे 'मेरे घर की व्यवस्था में तुम्हें नाक डालने की क्या जरूरत है?' उनसे यह न कहा जा सका। जो कह सके वही कहा- 'अवनी महाराज को तो अब 'काम का आदमी' सोचा नहीं जा सकता है। ये लोग घर के लोग ही लगते हैं। 'स्वेच्छा से माया का बन्धन काटकर' जब तक चले नहीं जाते हैं तब तक सिर्फ आर्थिक सुविधा असुविधा की बात सोचकर उनसे 'चले जाओ' तो नहीं कहा जा सकता है।'

'स्वेच्छा से माया के बन्धन काटने' में कुछ बात निहित थी क्या?'

अमलप्रकाश का चेहरा लाल हो उठा। उठकर खड़े होते हुए बोला-'ठीक है। आपके घर की व्यवस्था में मैंने कभी भी नाक नहीं डाला था तो अब कैसे डाल सकता हूँ? हाँ इसी तरह चला सकें तो ठीक ही है।'

सोमप्रकाश शान्तभाव से बोले-'हमारे लिए चिन्ता करते हो, यह मैं समझ रहा हूँ। पर ज्यादा चिन्ता मत करो। जब तक रहूँगा-पेंशन तो कोई छीन नहीं सकता है। अब तक जैसे चलाता आया हूँ चला ले जाऊँगा। उसके बाद? तुमलोगों की माँ? रहने का आश्रय यह घर तो रहा ही-और फिर तुमलोग भी हो। तुमलोग अपनी माँ को भूखा मरने तो नहीं दोगे।'

इसके बाद और क्या कहता?

इसके मतलब...

एक ग्रामीण कहावत है-नासमझ को कोई कितना समझाए जब समझना ही नहीं चाहे...

या कहना होगा 'चोर नहीं सुनता है धर्म की कहानी।'

'जादू-टोना किया है बहूमाँ, इन दोनों आदमियों ने तुम्हारे माँ-बाप पर जादू टोना किया है।'

सुनेत्रा की सास जाप की माला आँखों और माथे से छुलाकर कहतीं-'वरना ऐसा कहीं होता है? तुम्हारे पिता के जैसा एक बुद्धिमान, विद्वान चौकस आदमी, जो कभी एक ऑफिस के सर्वेसर्वा थे, वे ऐसे नासमझ बने बैठे हैं? और वे दोनों मूरख भूत, चालाकी के बल पर उन्हीं के सिर पर कटहल फोड़कर खाए चले जा रहे हें?'

हाँ, वही. दोनों नितान्त ही नगण्य, लगभग निरक्षर दो देहाती आदमी, वही सोमप्रकाश के परिचित जगत के लिए आलोचना के बिषयवस्तु हैं।

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