उपन्यास >> चैत की दोपहर में चैत की दोपहर मेंआशापूर्णा देवी
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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...
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टूटू को समझने के लिए प्रखर बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। टूटू और किसी के प्रेम में उलझने नहीं जाएगा, क्योंकि वह बेहद आत्मप्रेमी है। स्वयं को केन्द्र बनाकर ही उसकी इच्छा, अभिलाषा और आवेग तीव्र गति से बढ़ते रहते हैं। खुद को प्रकाश में लाने के खयाल से ही उसे एक सुन्दर, विदुषी (लोक-समाज में गौरवजनक) और हर तरह से अनुगामिनी पत्नी की आवश्यकता है। उस साहचर्य में एक पैसे का भी घाटा सहना पड़े तो वह खुद को अपमानित महसूस करता है।
''और किसी के साथ?''
अवंती हँसकर बोली, ''न:, यह कलंक उस पर मढ़ा नहीं जा सकता। और किसी की उसे जरूरत नहीं पड़ती। वह सिर्फ अपने आपसे जुड़ा हुआ है। अपने आपके अतिरिक्त और किसी को वह प्यार नहीं कर सकता। लिहाजा जिसे वह अपना समझता है, उसकी समग्र सत्ता, उसके अस्तित्व को अपने अधीन रखना चाहता है।''
अमियवल्लभ के चेहरे पर एक शरारती सूक्ष्म कौतुक की हँसी उभर आती है। कहते हैं, ''समझ गया। उसे अपनी माँ का स्वभाव मिला है। मेरी मणि भी तो सारा कुछ अपनी मुट्ठी में रखना चाहती है। पर मेरा दामाद अक्लमन्द है न लड़ाई के रास्ते पर न जाकर आत्म-समर्पण के रास्ते का चुनाव कर लिया है। सिर्फ अनुगनत बनकर रहो, बस, प्रॉब्लेम सोल्व।''
हा-हा कर हँस पड़े अमियवल्लभ। बोले, ''सो तुम भी अपने ससुर से यह ट्रिक्स सीख ले सकती हो।''
अवंती ने आरक्त चेहरे के साथ कहा, ''सबसे सब-कुछ होना क्या मुमकिन है, नानाजी? अपनी इच्छा-अनिच्छा, सोच-समझ, उचित-अनुचित-बोध-सीधे शब्दों में कहा जाए तो अपनी सत्ता को विसर्जित कर थोड़ी-सी शान्ति खरीदना! आप इसे उचित ठहराते हैं?''
अवंती की आँखों के सामने तैर उठता है दो दिन पहले का एक दिन।
अवंती ने सोचना शुरू किया था कि इस लेक टाउन इलाके को छोड़ कुछ दिनों के लिए कहीं चले जाना बेहतर रहेगा। यहाँ श्यामल और लतिका के दायित्व (दायित्व क्यों और किस चीज़ का दायित्व! शायद उन लोगों के चिपटे रहने के हाव-भाव का ही दायित्व) से कुछ दिनों के लिए परे हट जाने से ये लोग भी स्वाभाविक हो जाएँगे, प्रत्याशा का पात्र हाथ से छूट जाएगा। टूटू भी ईर्ष्या के शिकंजे से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उस दिन शरत मित्तिर जब अपनी बहूरानी के हाथ की बनी चाय पीने आए थे तो अवंती ने एकाएक कहा था, ''बाबूजी, मैं अगर कुछ दिनों तक बालीगंज के मकान में जाकर रहूँ तो आप लोगों को कोई असुविधा होगी?''
टेलीफोन लग जाने के बाद से शरत मित्तिर के आने का सिल-सिला जरा कम हो गया है। उस दिन वे काफी दिनों के बाद आए थे। इसीलिए अवंती को शायद उस रूप में देखा नहीं था। लिहाजा इस प्रस्ताव से जरा चौंक उठे थे। इतना जरूर है कि तुरन्त खुद को सँभाल, बेहद उत्साह का प्रदर्शन करते हुए कहा था, ''घर की लक्ष्मी घर जाएगी तो इससे असुविधा हो सकती है? क्या कह रही हो बिटिया?'' कहा था और बड़े उत्साह के साथ कहा था।
लेकिन उनके उस उत्साह के अन्तराल से घबराहट और परेशानी का भाव उभर आया था।
फिर भी अवंती ने कहा था, ''तो फिर कल ही चलूँ। कहिए, आपकी क्या राय है?''
शरत मित्तिर ने कहा था, ''जरूर-जरूर। पर हों, अब तो कोई असुविधा नहीं है? फोनसे अपनी सास से जरा बतिया लो।''
अवंती के मन में इस आदमी के प्रति पुन: करुणा का उद्रेक हुआ था। मुसकराहट के साथ कहा था, ''बतियाने की जरूरत ही क्या है? आपको कहने से काम नहीं चलेगा?''
''अहाहा, ऐसी बात नहीं है। मुझसे भी कहने की जरूरत नहीं थी। तुम्हारा अपना मकान है, जब भी मर्जी होगी, जाओगी। बल्कि यह बताओं कि कब जाओगी? गाड़ी भेज दूँगा।''
''गाड़ी भेजने की जरूरत ही क्या है? मैं क्या खुद ही नहीं जा सकती ?''
शरत मित्तिर बोले, ''जरूर-जरूर, एक बार नहीं, सौ बार जा सकती हो। तुम यहाँ से चली आना। टूटू ऑफिस से चला आएगा।
तुम लोगों को जब तक रहने की इच्छा होगी, रहोगे। टूटू वहीं से ऑफिस जाया करेगा। अहा, कुछ दिनों तक हम लोगों के उस मकान में चहल-पहल छायी रहेगी।''
अवंती ने निराशा भरे स्वर में कहा, ''मैं अकेले ही जाना चाहती हूँ, बाबूजी!''
शरत मित्तिर के सर्वांग में विपन्न-विव्रत भाव उभर आया था। घबराकर बोले थे, ''तुम तो ऐसा चाह रही हो, मगर तुम्हारी सास क्या अपने लड़के की असुविधा बरदाश्त कर सकेंगी? अच्छा, जाकर कहता हूँ।''
असहाय हाव-भाव के साथ चले गए थे शरत मित्तिर।
लेकिन हाँ, जाने के बाद चालाकी से काम लिया था। उसका प्रमाण अवंती को कुछेक घंटे के बाद मिला था।
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