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उपन्यास >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15407
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...

22

टेलोफोन घनघना उठा था। उसके बाद मणिकुंतला का परि-मार्जित स्वर सुनाई पड़ा था-

''हाँ, मैं बोल रही हूँ, बहूरानी! (अब जरा धीमे स्वर में) तुम्हारी तबीयत कुछ खराब है क्या? कुछ और ही महसूस कर रही हो?''

अवंती शुरू में अवाक् हो गई थी। लेकिन दूसरे ही क्षण परिस्थिति का अन्दाजा लगा लिया था। कष्ट से अपने आपको संयत रख आश्चर्यचकित होने के बहाने को बरकरार रखते हुए कहा था, ''कुछ और ही तरह का मतलब?''

''कितने आश्चर्य की बात है! मतलब भी समझाना होगा क्या? तबीयत में हेर-फेर नहीं हो सकता? शादी हुए तो लंबा अरसा गुजर चुका है...''

अवंती ने वाक्य पूरा होने के पहले ही कहा था, ''तबीयत ठीक है।''

''ओह! लेकिन तुम्हारे ससुर ने आकर बताया कि बहूरानी का चेहरा थोड़ा बहुत उदास जैसा देखने को मिला। इसके अलावा यहाँ आकर दो दिन ठहरने के बारे में भी बताया था। उस समय मैंने कुछ और ही उम्मीद की थी।...बहरहाल, इच्छा हुई है तो आकर दो दिन यहीं ठहर जाओ। टूटू के साथ चली आओ।''

अवंती ने कहा था, ''नहीं-नहीं, मैंने यों ही बाबूजी से कहा था। मिस्त्रियों के झंझट-झमेलों से कभी-कभी जी में होता है कि भाग जाऊँ।

इन लोगों का काम खत्म होने का नाम ही नहीं लेता।''

''यह बताना बेकार है।''

मणिकुंतला ने अभिज्ञ स्वर में कहा था, ''ठेके के मिस्त्री तो हैं नहीं, रोजहा मिस्त्री हैं। तुम जब तक उन लोगों से 'जाओ भागो' नहीं कहोगी तब तक वे लोग काम का सिलसिला जारी रखेंगे। अच्छा, रख रही हूँ।''

अवंती के मन की आँखों के सामने कई दिन पहले की जो तसवीर उभर आयी, वह तसवीर अमियवल्लभ की आँखों के सामने कैसे उभर सकती है? वे बोले, ''मगर शांति या सुकून सीधी वस्तु नहीं है। उसे खरीदने के लिए कीमत तो देनी होगी।''

अवंती ने कहा, ''सबके द्वारा सबु-कुछ संभव नहीं है।''

''वही तो मुश्किल है।''

अमियवल्लभ चेहरे पर दुख का भाव लिये बोले, ''सबसे सब-कुछ होना संभव नहीं है। पर मुहिम के रास्ते पर चलने से शक्ति और शांति दोनों का विनाश होता है। दो में से एक को अधीनता स्वीकार करनी ही होगी। एक ही रथ को दो सारथी चलाने बैठें तो रथ अचल हो जाता है। घर-गृहस्थी भी तो एक रथ ही है।''

अवंती ने कहा, ''और यदि कोई रथ न चाहता हो और उतर जाना चाहता हो तो?''

''उतर जाना चाहता है!''

अमियवल्लभ चुप हो गए।

कुछ देर तक ताकते रहे।

अहिस्ता से बोले, यह तो तुमने बड़ी ही पेचीदा बात कही महारानी! फिर क्या मामला कुछ और ही है? दोनों के बीच भूमकेतु की तरह कोई उगकर चला आया है क्या?''

अवंती ने भी गौर से देखा।

अवंती ने कहा, ''यदि कहँ कि यही बात है तो?''

अमियवल्लभ उठकर खड़े हो गए। दो-चार बार चहलकदमी करने के बाद बोले, ''परिस्थिति को तूने इतना जटिल बना दिया है, ऐसी धारणा नहीं थी मेरी। सुनकर बड़ा डर लग रहा है। वह शनि कौन है? बचपन से ही प्यार है? या फिर आकस्मिक तौर पर यह घटना घटी है? उसे भगाया नहीं जा सकता? छोड़ दे, यह सब मन से पोंछ डाल।''

अवंती जरा हँसी।

अवंती परिस्थिति को जरा हल्का करने के खयाल से कहती है,  ''यह क्या, नानाजी, आप अपने आपको बूढ़ा मान रहे हैं?''

अमियवल्लभ ने निराश स्वर में कहा, ''इन दो मिनटों के दरमियान बीस साल उमर बढ़ गई, महारानी! पर हाँ, मेरा कहना है, अच्छी तरह सोच-समझकर कदम उठाने की जरूरत है। 'जीवन' बहुत ही मूल्यवान वस्तु है। गलती करने से बहुत ज्यादा हर्जाना देना पड़ता है। आवेश और जिद के वशीभूत हो या झोंक में आकर एक बार रथ से नीचे उतर आने पर उसे गर्द-गुब्वार से बचाकर रखने के लिए बहुत ही साधना और शक्ति की आवश्यकता होती है। उसके बदले क्या मिल रहा है, यह सोचना भी जरूरी है।''

''उफ़! हर वक्त रुपया-आना-पाई का हिसाब करना होगा?'' अमियवल्लभ ने जोरदार शब्दों में कहा, ''करना ही होगा। जो चीज़ एक बार या दुबारा प्राप्त नहीं होता है, उसकी हिफाजत करने के लिए सोच-समझ की जरूरत है। 'प्रेम', 'प्रणय', 'प्यार'-यह सब महत्त्वपूर्ण, सुन्दर और मूल्यवान वस्तु है। लेकिन इसके लिए एक ठोस आधार की जरूरत है, समझी? वह आधार है आस्था, विश्वास, सुरक्षा का आश्वासन। आज के जमाने में तो हमेशा देखने को मिल रहा है कि 'बनाव नहीं हो रहा है,' 'निभाव नहीं हो रहा है'-यह कहकर लोग अदालत के दरवाजे खटखटाते हैं। वे लोग सभी क्या सुखी हो सकेंगे ''  

''सुख ही क्या सब-कुछ है?''

''आदमी तो सुख के लिए ही मोहताज रहते हें।''

अवंती क्षुब्ध-उत्तेजित स्वर में कहती है, ''इसका मतलब आप कहना चाह्ते हैं, उस सुख के रथ पर सवार होकर रहने क लिए जिन्दगी भर अभिनय करते रहना होगा?''

''मैं कुछ भी नहीं कहना चाहता, महारानी, पर इतना जानता हूँ कि अभिनय भी कभी किसी समय सच्चाई का रूप ले सकता है। 'मरा', 'मरा' कहते-कहते राम नाम की तरह।''

''वह सब तो भाव की बात है।''

अमियवल्लभ ने आहिस्ता से कहा, ''भाव की बात ही हमेशा से सीखता आ रहा हूँ महारानी, अभाव की बात कभी नहीं सीखी है। पर हां, यह जानता हूँ कि जो सचमुच ही मन का मीत है, वह एक दुर्लभ वस्तु है। यह तो चिरंतन काल से सुनने को मिल रहा है, 'मैं उसे कहां पाऊँगा? वह मेरे मन का मीत है। मिल नहीं रहा है। करोड़ों में एक है वह।' सच कहूँ, मन को मनाकर ही चलना पड़ता है ...बहुत ही आनन्द और उछाह के साथ में जीवन जी रहा था, महारानी। सोचान ही था कि इस तरह बिना बादल के बिजली गिर पड़ेगी। बूढ़ों-बेवकूफों की बात नगण्य मानी जाती है, फिर भी कहता हूँ कि जल्दबाजी में कोई कदम न उठाना। समय के हाथ में छोड़ दे। समय से बढ़कर बुदि देने वाला और कोई नहीं होता। तेरा मायका भी तो है। न हो तो कुछ दिन वहीं जाकर ठहर जा। मन को समझने का वक्त मिलेगा।''

मायका!

अवंती धिक्कार के स्वर में कहती है, कभी किसी मौके पर दो दिन भी रहने देता है? जाते ही गाड़ी लेकर आ धमकता है। माँ और बाबूजी भी धनी-मानी दामाद के भय से कुछ नहीं कहते। नहीं कहते कि आयी है तो दो दिन रहे। सबके सामने बहस-मुबाहिसा कियाजा सकता हृ ?''

अमियवल्लभ के चेहरे की लकीर पर तनाव आ जाता है। कहते हैं, ''अभी क्या ऐसा करेगा? अभी तो झगड़ा चल रहा है।''

''इससे क्या आता-जाता है? कहावत है कि अधिकार का पंजा मजबूत होता है।''

ससुर से निवेदन करने के पहले तो अवंती 'वराह नगर जाकर कुछ दिनों तक ठहरूँगी,' कहकर चली गई थी। लेकिन दो दिन बाद ही टूटू गाड़ी लेकर आ धमका।

अवंती ने कहा था,' ''ले जाने की खातिर आने की बात तो नहीं थी। मैंने तो कहा था, कुछ दिन रहूँगी।''

टूटू मित्तिर ने बेझिझक कहा था, ''रहना तो हो चुका है। कल रविवार है, बालीगंज जाना होगा।

''वाह! जितने भी दावे हैं, वे सिर्फ तुम्हारे मां-बाप के ही? मेरे माँ-बाप के कुछ भी नहीं ?'' अवंती ने कहा था।

लेकिन अवंती की किस्मत ऐसी है कि उसके मां-बाप ने हामी भरते हुए भेज दिया था, ''अहा, फिर चली आना। तेरे पास तो गाड़ी है, असुविधा की कौन-सी बात है? मेहमान लियावे आए हैं।''

दरअसल उन्हें भी लड़की के आकस्मिक आगमन से सुकून का अहसास नहीं हो रहा था। लड़की की ओर शकभरी निगाह से ताकते हुए घुमा-फिराकर सवाल किया था कि अचानक उनके इस तरह के सौभाग्य का कारण क्या है?

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